श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 77 चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा हरि चलण वेला आदी ॥ करि सेवहु पूरा सतिगुरू वणजारिआ मित्रा सभ चली रैणि विहादी ॥ हरि सेवहु खिनु खिनु ढिल मूलि न करिहु जितु असथिरु जुगु जुगु होवहु ॥ हरि सेती सद माणहु रलीआ जनम मरण दुख खोवहु ॥ गुर सतिगुर सुआमी भेदु न जाणहु जितु मिलि हरि भगति सुखांदी ॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै सफलिओु रैणि भगता दी ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 77} उच्चारण: चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा हरि चलण वेला आदी॥ करि सेवहु पूरा सतिगुरू वणजारिया मित्रा सभ चली रैणि विहादी॥ हरि सेवहु खिन खिन ढिल मूल न करिहु जित असथिर जुग जुग होवहु॥ हरि सेती सद माणहु रलीआ जनम मरण दुख खोवहु॥ गुर सतिगुर सुआमी भेद न जाणहु जित मिलि हरि भगति सुखांदी। कहु नानक, प्राणी चउथै पहरै सफलिओ रैणि भगता दी॥४॥१॥३॥ पद्अर्थ: आदी = आंदी, ले आता है। करि पूरा = पूरा जान के, अभुल जान के। सेवहु = शरण पड़ो। रैणि = रात, उम्र। चली विहादी = गुजरती जा रही है। खिनु खिनु = हरेक छिन, शवास-श्वास। सेवहु = सिमरो। मूलि = बिल्कुल ही। जितु = जिस (उद्यम) से। असथिरु = अटॅल, अटॅल् आत्मिक जीवन वाले। रलीआ = आत्मिक आनंद। जनम मरण दुख = जनम मरन के चक्कर में पड़ने का दुख। भेदु = फर्क। जितु = जिस (गुरू) में। मिलि = मिल के, जुड़ के। सुखांदी = प्यारी लगती है।4। सफलिउ– (नोट: ‘उ’ के साथ मात्रा ‘ु’ और ‘ो’ है। असल शब्द है ‘सफलिओ’ जिसे ‘सफलिउ’ पढ़ना है)। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की रात के) चौथे पहर परमात्मा (जीव के यहां से) चलने का समय (ही) आता है। हे वणजारे जीव मित्र! गुरू को अभुल जान के गुरू की शरण पड़ो, (जिंदगी की) सारी रात बीतती जा रही है। (हे जीव मित्र!) स्वास-स्वास परमात्मा का नाम सिमरो, (इस काम में) बिल्कुल आलस ना करो, सिमरन की बरकति से ही सदा के लिए अटॅल आत्मिक जीवन वाले बन सकोगे। (हे जीव मित्र! सिमरन की बरकति से ही) परमात्मा के मिलाप का आनंद प्राप्त कर सकोगे और जनम मरण के चक्कर में पड़ने वाले दुखों को खत्म कर सकोगे। (हे जीव मित्र!) गुरू और परमात्मा के बीच रॅती भर भी फर्क ना समझो गुरू (के चरणों) में जुड़ के ही परमात्मा की भक्ति प्यारी लगती है। हे नानक! कह– जो प्राणी (जिंदगी की रात के) चौथे पहर में भी (परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं उन) भक्तों की (जिंदगी की सारी) रात कामयाब रहती है।4।1।3। सिरीरागु महला ५ ॥ पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धरि पाइता उदरै माहि ॥ दसी मासी मानसु कीआ वणजारिआ मित्रा करि मुहलति करम कमाहि ॥ मुहलति करि दीनी करम कमाणे जैसा लिखतु धुरि पाइआ ॥ मात पिता भाई सुत बनिता तिन भीतरि प्रभू संजोइआ ॥ करम सुकरम कराए आपे इसु जंतै वसि किछु नाहि ॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै धरि पाइता उदरै माहि ॥१॥ {पन्ना 77} उच्चारण: सिरीरागु महला ५॥ पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धरि पायता उदरै माहि॥ दसी मासी मानस कीआ वणजारिआ मित्रा करि मुहलति करम कमाहि॥ मुहलति करि दीनी करम कमाणै जैसा लिखत धुरि पायआ॥ मात पिता भाई सुत बनिता तिन भीतरि प्रभू संजोयआ॥ करम सुकरम कराऐ आपे इस जंतै वसि किछु नाहि॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै धरि पायता उदरै माहि॥१॥ पद्अर्थ: धरि = धरे, धरता है। पाइता = पैंतड़ा। उदरै माहि = माँ के पेट में। मासी = महीनों बाद। मानसु = मनुष्य (का बच्चा)। करि = करे, करता है। मुहलति = (उम्र रूप) समय। कमाहि = कमाते हैं। लिखतु = पीछे लिखे कर्मों के संस्कारों का लेख। धुरि = धुर से। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। तिन भीतरि = उन (पुत्र स्त्री आदिक संबंधियों) में। संजोइआ = मिला दिया, परचा दिया। सुकरम = अच्छे कर्म। वसि = वस में।1। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (मानस जिंदगी की) रात के पहले पहर परमात्मा माँ के पेट में (जीव का) पैंतड़ा रखता है। हे वणजारे मित्र! (फिर) दसों महीनों में प्रभू मनुष्य (का साबत बुत) बना देता है। (जीवों को जिंदगी का) मुकरॅर समय देता है। (जिसमें जीव अच्छे-बुरे कर्म) कमाते हैं। परमात्मा जीव के लिए जिंदगी का समय मुकरॅर कर देता है। पीछे किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार प्रभू जीव के माथे पे धुर से जैसा लेख लिख देता है, वैसे ही कर्म जीव कमाते हैं। माता पिता भाई पुत्र स्त्री (आदिक) इन संबंधियों में प्रभू जीव को रचा मचा देता है। इस जीव के इख्तियार में कुछ नहीं, परमात्मा स्वयं ही इससे अच्छे बुरे कर्म कराता है। हे नानक! कह– (जिंदगी की रात के) पहले पहर परमात्मा प्राणी का पैंतड़ा माँ के पेट में रख देता है।1। दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा भरि जुआनी लहरी देइ ॥ बुरा भला न पछाणई वणजारिआ मित्रा मनु मता अहमेइ ॥ बुरा भला न पछाणै प्राणी आगै पंथु करारा ॥ पूरा सतिगुरु कबहूं न सेविआ सिरि ठाढे जम जंदारा ॥ धरम राइ जब पकरसि बवरे तब किआ जबाबु करेइ ॥ कहु नानक दूजै पहरै प्राणी भरि जोबनु लहरी देइ ॥२॥ {पन्ना 77} उच्चारण: दूजै पहरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, भरि जुआनी लहरी देय॥ बुरा भला न पछाणई, वणजारिआ मित्रा, मन मता अहंमेय॥ बुरा भला न पछाणै प्राणी आगै पंथ करारा॥ पूरा सतिगुरू कबहूँ न सेविआ सिरि ठाढे जम जंदारा॥ धरमराय जब पकरसि बवरे तब किआ जबाब करेय॥ कहु नानक दूजै पहरै प्राणी भरि जोबन लहरी देय॥2॥ पद्अर्थ: भरि जुआनी = भरी जवानी, पूरे जोश में पहुँची हुई जवानी। लहरी = लहरें (‘लहिर’ का बहुवचन) उछाले। देइ = देती है। मता = मस्त, मतवाला। अहंमेइ = अहं+एव, मैं ही, मैं ही, अहंकार में। आगै = परलोक में। पंथु = रास्ता। करारा = करड़ा, सख्त, मुश्किल। सिरि = सिर पर। ठाढे = खड़े हुए। जंदारा = जालम, चंडाल। पकरसि = पकड़ेगा। बवरे = पागल जीव को। करेइ = करता है।2। अर्थ- हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर शिखर पर पहुँची हुई जवानी (जीव के अंदर) उछाले मारती है। हे वणजारे मित्र! तब जीव का मन अहंकार (गुरूर) में मद्मस्त रहता है, और वह अच्छे-बुरे काम में तमीज नही करता। (जवानी के नशे में) प्राणी ये नहीं पहचानता, कि जो कुछ मैं कर रहा हूँ अच्छा है या बुरा (विकारों में पड़ जाता है, और) परलोक में रास्ता मुश्किल बना लेता है। (अहंकार में मस्त मनुष्य) पूरे गुरू की शरण नही पड़ता, (इस वास्ते उस के) सिर पर जालिम यम आ खड़े हुए हैं। (जवानी के नशे में मनुष्य कभी नही सोचता कि अहंकार में) झल्ले हो चुके को जब धर्मराज आ पकड़ेगा, तब (अपनी गलत करतूतों के बारे में) वह क्या जवाब देगा? हे नानक! कह– (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर शिखर पे पहुँचा हुआ जोबन (मनुष्य के अंदर) उछाले मारता है।2। तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा बिखु संचै अंधु अगिआनु ॥ पुत्रि कलत्रि मोहि लपटिआ वणजारिआ मित्रा अंतरि लहरि लोभानु ॥ अंतरि लहरि लोभानु परानी सो प्रभु चिति न आवै ॥ साधसंगति सिउ संगु न कीआ बहु जोनी दुखु पावै ॥ सिरजनहारु विसारिआ सुआमी इक निमख न लगो धिआनु ॥ कहु नानक प्राणी तीजै पहरै बिखु संचे अंधु अगिआनु ॥३॥ {पन्ना 77} उच्चारण: तीजै पहरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, बिख संचे अंध अगिआन॥ पुत्रि कलत्रि मोहि लपटिआ, वणजारिआ मित्रा, अंतरि लहिर लोभान॥ अंतरि लहिर लोभानपरानी सो प्रभु चिति न आवै॥ साध-संगति सिउ संग न कीआ बहु जोनी दुख पावै॥ सिरजनहार विसारिआ सुआमी इक निमख न लगो धिआन॥ कहु नानक प्राणी तीजै पहरै बिख संचै अंध अगिआन॥३॥ पद्अर्थ: बिखु = (आत्मिक मौत देने वाला) जहर, माया। संचे = इकट्ठे करता है, संचय करता है। अंधु = अंध मनुष्य। अगिआनु = ज्ञानहीन मनुष्य। पुत्रि = पुत्र (के मोह) में। कलत्रि = कलत्र अर्थात स्त्री के मोह में (कलत्र = स्त्री। देखें: ‘गुरबाणी व्याकरण’)। लोभानु = लोभवान, लोभी। चिति = चिक्त में। संगु = साथ। निमख = आँख झपकने जितना समय।3। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी के) रात के तीसरे पहर माया के मोह में अंधा हुआ व ज्ञानहीन मनुष्य (आत्मिक जीवन को खत्म कर देनें वाला धन रूपी) जहर एकत्र करता रहता है। हे वणजारे मित्र! तब मनुष्य माया का लोभी हो जाता है। इसके अंदर (लोभ की) लहरें उठती हैं, मनुष्य पुत्र (के मोह) में, स्त्री (के मोह) में, (माया के) मोह में फंसा रहता है। प्राणी के अंदर (लोभ की) लहरें उठती हैं, मनुष्य लोभी हुआ रहता है, वह परमात्मा कभी इसके चिक्त में नहीं आता। मनुष्य तब साध-संगति से मेल मिलाप नहीं रखता, (आखिर) कई जूनियों में (भटकता) दुख बर्दाश्त करता है। मनुष्य अपने सृजनहार मालिक को भुला देता है, आँख झपकने के जितना समय भी परमात्मा में सुरति नहीं जोड़ता। हे नानक! कह– (जिंदगी की) रात के तीसरे पहर अंधा ज्ञान हीन मनुष्य (आत्मिक मौत ले आने धन-रूप) जहर (ही) एकत्र करता रहता है।3। चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा दिनु नेड़ै आइआ सोइ ॥ गुरमुखि नामु समालि तूं वणजारिआ मित्रा तेरा दरगह बेली होइ ॥ गुरमुखि नामु समालि पराणी अंते होइ सखाई ॥ इहु मोहु माइआ तेरै संगि न चालै झूठी प्रीति लगाई ॥ सगली रैणि गुदरी अंधिआरी सेवि सतिगुरु चानणु होइ ॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै दिनु नेड़ै आइआ सोइ ॥४॥ {पन्ना 77-78} उच्चारण: चउथै पहरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, दिन नेड़ै आयआ सोय॥ गुरमुखि नाम समालि तूं, वणजारिआ मित्रा, तेरा दरगह बेली होय॥ गुरमुखि नाम समालि पराणी अंते होय सखाई॥ इहु मोह मायआ तेरै संगि न चालै झूठी प्रीति लगाई॥ सगली रैणि गुदरी अंधिआरी सेवि सतिगुरु चानण होय॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै दिन नेड़ै आयआ सोय॥४॥ पद्अर्थ: सोइ = वह। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। बेली = मददगार। अंते = आखिरी समय। सखाई = मित्र। संगि = साथ। झूठी = पूरी ना निभने वाली। सगली = सारी। रैणि = (जिंदगी की) रात। गुदरी = गुजरी (जैसे कादी = काजी, कागद = कागज)। अंधिआरी = माया के मोह के अंधेरे वाली।4। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की रात) के चौथे पहर वह दिन नजदीक आ जाता है, (जब यहां से कूच करना होता है)। हे वणजारे मित्र! प्रभू का नाम हृदय में बसा, नाम ही प्रभू की दरगाह में तेरा मददगार बनेगा। हे प्राणी! गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रख, नाम ही आखिरी समय साथी बनता है। माया का यह मोह (जिसमें तू फंसा पड़ा है) तेरे साथ नहीं जा सकता, तूने इससे झूठा प्यार डाला हुआ है। (हे भाई!) जिंदगी की सारी रात माया के अंधेरे में बीतती जा रही है। गुरू की शरण पड़ (ता कि तेरे अंदर परमात्मा के नाम का) प्रकाश हो जाऐ। हे नानक! कह– (जिंदगी की) रात के चौथै पहर वह दिन नजदीक आ जाता है (जब यहां से कूच करना होता है)।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |