श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 78 लिखिआ आइआ गोविंद का वणजारिआ मित्रा उठि चले कमाणा साथि ॥ इक रती बिलम न देवनी वणजारिआ मित्रा ओनी तकड़े पाए हाथ ॥ लिखिआ आइआ पकड़ि चलाइआ मनमुख सदा दुहेले ॥ जिनी पूरा सतिगुरु सेविआ से दरगह सदा सुहेले ॥ करम धरती सरीरु जुग अंतरि जो बोवै सो खाति ॥ कहु नानक भगत सोहहि दरवारे मनमुख सदा भवाति ॥५॥१॥४॥ {पन्ना 78} लिखिआ आयआ गोविंद का, वणजारिआ मित्रा, उठि चले कमाणा साथि॥ इक रती बिलम न देवनी, वणजारिआ मित्रा, ओनी तकड़े पाऐ हाथ॥ लिखिआ आयआ पकड़ि चलायआ मनमुख सदा दुहेले॥ जिनी पूरा सतिगुरु सेविआ से दरगह सदा सुहेले॥ करम धरती सरीर जुग अंतरि जो बोवै सो खाति॥ कहु नानक भगत सोहहि दरवारे मनमुख सदा भवाति॥५॥१॥४॥ पद्अर्थ: उठि = उठ के। कमाण = कमाए हुए कर्मों के संस्कार, आत्मिक जीवन की अच्छी बुरी कमाई। बिलम = देर। देवनी = देते। ओनी = उन (यमों) ने। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। दुहेले = दुखी। सुहेले = सुखी। करम धरती = कर्म कमाने के लिए धरती। जुग अंतरि = युग में, जगत में, मनुष्य जीवन में (यहां ‘जुग’ शब्द किसी खास सतिजुग कलिजुग वास्ते नहीं बरता गया है)। खाति = खाता है। सोहहि = शोभते हैं। दरवारे = प्रभू के दरबार में। भवाति = जनम मरण में डाले जाते हैं।5। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! जब परमात्मा द्वारा (मौत का) लिखा हुआ (परवाना) आता है, तब (यहां) कमाए हुए (अच्छे बुरे कर्मों के संस्कार जीवात्मा के) साथ चल पड़ते हैं। उस समय यमों ने पक्के हाथ डाले होते हैं, हे वणजारे मित्र! वे रक्ती मात्र भी समय की टाल मटोल की इजाजत नहीं देते। जब करतार द्वारा (मौत का) लिखा हुआ हुकम आता है (वह यम जीव को) पकड़ के आगे लगा लेते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (फिर) सदा दुखी रहते हैं। जिन्होंने पूरे गुरू का आसरा लिए रखा, वे परमात्मा की दरगाह में सदा सुखी रहते हैं। (हे वणजारे मित्र!) मनुष्य जीवन में (मनुष्य का) शरीर कर्म कमाने के लिए धरती (के समान) है, (जिस में) जैसा (कोई) बीजता है वही खाता है। हे नानक! कह–परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के दर पर शोभा पाते हैं, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।5।1।4। सिरीरागु महला ४ घरु २ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मुंध इआणी पेईअड़ै किउ करि हरि दरसनु पिखै ॥ हरि हरि अपनी किरपा करे गुरमुखि साहुरड़ै कम सिखै ॥ साहुरड़ै कम सिखै गुरमुखि हरि हरि सदा धिआए ॥ सहीआ विचि फिरै सुहेली हरि दरगह बाह लुडाए ॥ लेखा धरम राइ की बाकी जपि हरि हरि नामु किरखै ॥ मुंध इआणी पेईअड़ै गुरमुखि हरि दरसनु दिखै ॥१॥ {पन्ना 78} उच्चारण: सिरी रागु महल ४ घरु २ छंत ॥ (ੴ ) इक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ मुंध इआणी पेइअड़ै किउकरि हरि दरसन पिखै॥ हरि हरि अपनी किरपा करे गुरमुखि साहुरड़ै कंम सिखै॥ साहुरड़ै कंम सिखै गुरमुखि, हरि हरि सदा धिआए॥ सहीआ विचि फिरै सुहेली हरि दरगह बाह लुडाए॥ लेखा धरमराय की बाकी जपि हरि हरि नाम किरखै॥ मुंध इआणी पेईअड़ै गुरमुखि हरि दरसनु दिखै॥१॥ पद्अर्थ: मुंध = मुग्धा, जवान स्त्री। पेइअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। किउकरि = कैसे? पिखै = देखे। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। साहुरड़ै कम = सहुरे घर के काम, वह काम जिनके करने से पति को मिल सके। सहीआ = सहेलियां, सतसंगी। सुहेली = आसान। बाह लुडाऐ = बाँह हुलारती है, बेफिक्र हो के घूमती है। जपि = जप के। किरखै = खींच लेती है, खत्म कर लेती है। दिखै = देखे, देखती है।1। अर्थ: अगर जीव-स्त्री पेके घर में (इस मनुष्य जन्म में) अंञाण ही टिकी रहे, तो वह पति प्रभू का दर्शन कैसे कर सकती है? (दर्शन नही कर सकती)। जब परमात्मा अपनी मिहर करता है, तो (जीव स्त्री) गुरू के सन्मुख हो के प्रभू पति के चरणों में पहुँचने वाले काम (करने) सीखती है। गुरू की शरण पड़ कर (जीव स्त्री) वह काम सीखती है, जिनकी सहायता से पति प्रभू की हजूरी में पहुँच सके (वे काम ये हैं कि जीव स्त्री) सदा परमात्मा का नाम सिमरती है, सहेलियों में (सत्संगियों में रह के इस लोक में) आराम से चलती फिरती है (आरामदायक जीवन व्यतीत करती है, और) परमात्मा की हजूरी में बे-फिक्र हो के पहुँचती है। वह जीव स्त्री परमात्मा का नाम सदा जप के धर्मराज का लेखा, धर्मराज के लेखे की बाकी, खत्म कर लेती है। भोली जीव स्त्री पेके घर में (इस मनुष्य जन्म में) गुरू की शरण पड़ के परमात्मा पति का दर्शन कर लेती है।1। वीआहु होआ मेरे बाबुला गुरमुखे हरि पाइआ ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ गुर गिआनु प्रचंडु बलाइआ ॥ बलिआ गुर गिआनु अंधेरा बिनसिआ हरि रतनु पदारथु लाधा ॥ हउमै रोगु गइआ दुखु लाथा आपु आपै गुरमति खाधा ॥ अकाल मूरति वरु पाइआ अबिनासी ना कदे मरै न जाइआ ॥ वीआहु होआ मेरे बाबोला गुरमुखे हरि पाइआ ॥२॥ {पन्ना 78} उच्चारण: विआह होआ मेरे बाबुला गुरमुखे हरि पायआ॥ अगिआन अंधेरा कटिआ गुर गिआन प्रचंड बलायआ॥ बलिआ गुर गिआन, अंधेरा बिनसिआ, हरि रतन पदारथ लाधा॥ हउमै रोग गयआ दुख लाथा आप आपै गुरमति खाधा॥ अकाल मूरति वर पायआ अबिनासी, न कदे मरै न जायआ॥ विआह होआ मेरे बाबोला गुरमुखे हरि पायआ॥२॥ पद्अर्थ: मेरे बाबुला, मेरे बाबोला = हे मेरे पिता। वीआहु = पति प्रभू का मिलाप। गुरमुखे = गुरू की ओर मुंह करके, गुरू की शरण पड़ के। अगिआनु = बे समझी। गुर गिआनु = गुरू से मिली हुई परमात्मा से गहरी सांझ। प्रचंडु = तेज। बलाइआ = जलाया। बिनसिआ = नाश हो गया। लाधा = मिल गया। आपु = स्वै भाव। आपै = स्वै के ज्ञान से। गुरमति = गुरू की मति ले के। वरु = खसम। जाइआ = पैदा हुआ।2। अर्थ: हे मेरे पिता! (प्रभू पति के साथ) मेरा ब्याह हो गया है, गुरू की शरण पड़ के मुझे प्रभू पति मिल गया है। गुरू का बख्शा हुआ ज्ञान (रूपी सूरज इतना) तेज जग मग कर उठा है कि (मेरे अंदर से) बे-समझी का अंधकार दूर हो गया है। गुरू का दिया ज्ञान (मेरे अंदर) चमक पड़ा है (माया मोह का) अंधेरा दूर हो गया है (उस प्रकाश की बरकति से मुझे) परमात्मा का नाम (-रूप) कीमती रत्न मिल गया है। गुरू की मति पे चलने से मेरा अहंकार का रोग दूर हो गया है, अहम् का दुख खत्म हो गया है, स्वै के ज्ञान से स्वै भाव खत्म हो गया है। (गुरू की शरण पड़ने से) मुझे वह पति मिल गया है, जिसकी हस्ती को कभी काल छू नही सकता, जो नाश-रहित है, जो ना कभी मरता है ना पैदा होता है। हे मेरे पिता! गुरू की शरण पड़ के मेरा (परमात्मा पति के साथ) विवाह हो गया है, मुझे परमात्मा मिल गया है।2। हरि सति सते मेरे बाबुला हरि जन मिलि जंञ सुहंदी ॥ पेवकड़ै हरि जपि सुहेली विचि साहुरड़ै खरी सोहंदी ॥ साहुरड़ै विचि खरी सोहंदी जिनि पेवकड़ै नामु समालिआ ॥ सभु सफलिओ जनमु तिना दा गुरमुखि जिना मनु जिणि पासा ढालिआ ॥ हरि संत जना मिलि कारजु सोहिआ वरु पाइआ पुरखु अनंदी ॥ हरि सति सति मेरे बाबोला हरि जन मिलि जंञ सुोहंदी ॥३॥ {पन्ना 78} उच्चारण: हरि सति सते मेरे बाबुला हरि जन मिलि जंञ सुहंदी॥ पेवकड़ै हरि जपि सुहेली विचि साहुरड़ै खरी सोहंदी॥ साहुरड़ै विचि खरी सोहंदी जिनि पेवकड़ै नाम समालिआ॥ सभ सफलिओ जनम तिना दा गुरमुखि जिना मन जिणि पासा ढालिआ॥ हरि संति जना मिलि कारज सोहिआ वर पायआ पुरख अनंदी॥ हरि सति सति मेरे बाबोला हरि जन मिलि जंञ सुोहंदी॥३॥ पद्अर्थ: सति सते = सतय सत्य, सदा कायम रहने वाला। हरि जन = परमात्मा के सेवक, सत्संगी। मिलि = मिल के, इकट्ठे हो के। सुहंदी = सुंदर लगती है। जपि = जप के। साहुरड़ै = सहुरे घर, परमात्मा की हजूरी में। सोहंदी, सुहंदी = शोभती है। जिनि = जिस (जीव स्त्री) ने। समालिआ = संभाला है, (हृदय में) संभाला है। सभु = सारा। सफलिओ = कामयाब। जिणि = जीत के, वश में करके। पासा ढालिआ = नरदें फेंकी हैं, जिंदगी रूपी चौपड़ की बाजी खेली है। कारजु = विवाह का काम, प्रभू पति के साथ मिलाप का उद्यम। सोहिआ = सुंदर हो गया है, अच्छी तरह सिरे चढ़ा है। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। अनंदी = आनंद का श्रोत।3। सुोहंदी: अक्षर ‘स’ पे दो मात्राएं, ‘ु’ व ‘ो’ हैं। असल शब्द सोहंदी है। यहां ‘सुहंदी’ पढ़ना है।। अर्थ: हे मेरे पिता! प्रभू पति सदा कायम रहने वाला है, सदा कायम रहने वाला है, (उस पति के साथ मिलाप कराने के लिए) उस प्रभू के भगत जन मिल के (मानो) सुंदर बारात बनते हैं। (जीव सि्त्रयां इन सत्संगियों में रह के) पेके घर में (इस मनुष्य जनम में) परमात्मा का नाम जप के सुखी जीवन व्यतीत करती हैं, और परलोक में भी बहुत शोभा पाती हैं। (ये यकीन जानों कि) जिस जीव स्त्री ने पेके घर में परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाया है, वह परलोक में (जरूर) शोभा कमाती है। गुरू की शरण पड़ के उन जीव सि्त्रयों का जीवन कामयाब हो जाता है, जिन्होंने अपना मन जीत के (वश में ला के) चौपड़-रूप ये जीवन खेल खेली है। परमात्मा का भजन करने वाले गुरमुखों के साथ मिल के परमात्मा पति के साथ मधुर मिलाप हो जाता है, वह सर्व-व्यापक और आनन्द का श्रोत पति प्रभू मिल जाता है। हे मेरे पिता! प्रभू पति सदा कायम रहने वाला है, सदा कायम रहने वाला है, (उस पति से मिलाप कराने के लिए) उस प्रभू के भगत जन मिल के (जैसे) सोहणी बारात बनते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |