श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि प्रभु मेरे बाबुला हरि देवहु दानु मै दाजो ॥ हरि कपड़ो हरि सोभा देवहु जितु सवरै मेरा काजो ॥ हरि हरि भगती काजु सुहेला गुरि सतिगुरि दानु दिवाइआ ॥ खंडि वरभंडि हरि सोभा होई इहु दानु न रलै रलाइआ ॥ होरि मनमुख दाजु जि रखि दिखालहि सु कूड़ु अहंकारु कचु पाजो ॥ हरि प्रभ मेरे बाबुला हरि देवहु दानु मै दाजो ॥४॥ {पन्ना 79}

उच्चारण: हरि प्रभ मेरे बाबुला हरि देवहु दान मै दाजो॥ हरि कपड़ो हरि सोभा देवहु जित सवरै मेरा काजो॥ हरि हरि भगती काज सुहेला गुरि सतिगुरि दानु दिवायआ॥ खंडि वरभंडि हरि सोभा होई इह दान न रलै रलायआ॥ होरि मनमुखि दाज जि रखि दिखालहि सु कूड़ अहंकार कच पाजो॥ हरि प्रभ मेरे बाबुला हरि देवहु दान मै दाजो॥४॥

पद्अर्थ: हरि प्रभ दानु = हरि प्रभू के नाम का दान। मै = मुझे। दाजो = दहेज। कपड़ो सोभा = (दहेज में दिया हुआ कीमती) कपड़ा व धन। जितु = जिस (दहेज) से। सवरै = संवर जाए, सुंदर लगने लगे। काजो = काज, विवाह का काम। सुहेला = सुखदाई। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। खंडि = खंड में, देश में, धरती पर। वरभंडि = ब्रहमंड में, संसार में। हरि सोभा = हरि नाम के दहेज की शोभा। न रलै रलाइआ = कोई और दहेज इसकी बराबरी नहीं कर सकता। होरि = और लोग (‘होरि’ बहुवचन है)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। जि = जो। रखि = रख के। कूड़ = झूठा। कचु = (काँच जैसा) खोटा। पाजो = पाज, दिखावा।

अर्थ: हे मेरे पिता! (मैं तूझसे दहेज मांगती हूँ) मुझे हरि प्रभू के नाम का दान दे, मुझे यही दहेज दे। मुझे हरि का नाम ही (दहेज के) कपड़े दे, मुझे हरि का नाम ही (दहेज के गहने आदिक) धन दे, इसी दहेज से मेरा (प्रभू पति के साथ) विवाह सुंदर लगने लग पड़े।

परमात्मा की भक्ति के साथ ही (परमात्मा से) विवाह का उद्यम सुखदाई बनता है। (जिस जीव कन्या को) गुरू ने सतिगुरू ने ये दान (ये दहेज) दिलाया है, हरि नाम के दहेज से उसकी शोभा (उस के) देश में संसार में हो जाती है। यह दहेज ऐसा है कि इससे और कोई बराबरी नहीं कर सकता। अपने मन के पीछे चलने वाले और लोग जो दहेज रख के दिखाते हैं (दिखावा करते हैं) वह झूठा अहंकार (पैदा करने वाले) हैं वह काँच (के समान कच्चे) हैं, वो (निरा) दिखावा ही है।

हे मेरे पिता! मुझे हरि प्रभू का नाम दान दे, मुझे यही दहेज दे।4।

हरि राम राम मेरे बाबोला पिर मिलि धन वेल वधंदी ॥ हरि जुगह जुगो जुग जुगह जुगो सद पीड़ी गुरू चलंदी ॥ जुगि जुगि पीड़ी चलै सतिगुर की जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ ॥ हरि पुरखु न कब ही बिनसै जावै नित देवै चड़ै सवाइआ ॥ नानक संत संत हरि एको जपि हरि हरि नामु सोहंदी ॥ हरि राम राम मेरे बाबुला पिर मिलि धन वेल वधंदी ॥५॥१॥ {पन्ना 79}

उच्चारण: हरि राम राम मेरे बाबोला पिर मिलि धन वेल वधंदी॥ हरि जुगह जुगो जुग जुगह जुगो सद पीढ़ी गुरू चलंदी॥ जुगि जुगि पीढ़ी चलै सतिगुर की जिनी गुरमुखि नामधिआयआ॥ हरि पुरख न कबही बिनसै जावै नित देवै चढ़ै सवायआ॥ नानक संत संत हरि ऐको जपि हरि हरि नाम सोहंदी॥ हरि राम राम मेरे बाबुला पिर मिलि धन वेल वधंदी॥४॥१॥

पद्अर्थ: हरि राम राम पिर मिलि = हरि मिलि, राम मिलि, पिर मिलि, परमात्मा पति को मिल के। धन = जीव स्त्री। धन वेल = जीव स्त्री की पीढ़ी, प्रभू पति को मिली हुई जीव स्त्री की पीढ़ी। जुगह जुगो = हरेक युग में। जुग जुगह जुगो = हरेक युग में, सदा ही। सद = सदा। पीढ़ी गुरू = गुरू की पीढ़ी। चलंदी = चल पड़ती है। जुगि जुगि = हरेक युग में। जिनी = जिन (मनुष्यों) ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। जावै = नाश होता है। चढ़ै सवाइआ = और और बढ़ता है। संत हरि = संतों का हरि। जपि = जप के। सोहंदी = (पीढ़ी) शोभती है।5।

अर्थ: हे मेरे पिता! हरि पति के साथ राम पति के साथ मिल के जीव स्त्री की पीढ़ी चल पड़ती है। अनेकों युगों से सदा से ही गुरू की प्रभू पति की, पीढ़ी चली आती है। हरेक युग में सतिगुरू की पीढ़ी (नादी संतान) चल पड़ती है। जिन्होंने गुरू को मिल के परमात्मा का नाम सिमरा है (वे गुरू की पीढ़ी हैं, वे गुरू की नादी संतान हैं)। परमात्मा ऐसा पति है, जो कभी भी नाश नहीं होता, जो कभी भी नहीं मरता। वह सदा दातें बख्शता है, उसकी दात सदा बढ़ती ही रहती है।

हे नानक! भगत जन और भगतों का (प्यारा) प्रभू एक रूप है। परमात्मा का नाम जप जप के जीव स्त्री सुंदर जीवन वाली बन जाती है।

हे मेरे पिता! हरि पति के साथ राम पति के साथ मिल के जीव स्त्री की पीढ़ी चल पड़ती है (भाव, उसकी संगति में रह कर और अनेकों जीव सिमरन की राह पे पड़ जाते हैं)।5।1।

सिरीरागु महला ५ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा गोबिंद नामु समाले ॥ मन पिआरिआ जी मित्रा हरि निबहै तेरै नाले ॥ संगि सहाई हरि नामु धिआई बिरथा कोइ न जाए ॥ मन चिंदे सेई फल पावहि चरण कमल चितु लाए ॥ जलि थलि पूरि रहिआ बनवारी घटि घटि नदरि निहाले ॥ नानकु सिख देइ मन प्रीतम साधसंगि भ्रमु जाले ॥१॥ {पन्ना 79}

उच्चारण: (ੴ ) इक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा गोबिंद नाम समाले॥ मन पिआरिआ जी मित्रा हरि निबहै तेरै नाले॥ संगि सहाई हरिनाम धिआई बिरथा कोय न जाऐ॥ मन चिंदे सेई फल पावहि चरण कमल चित लाऐ॥ जलि थलि पूरि रहिआ बनवारी घटि घटि नदरि निहाले॥ नानक सिख देय, मन प्रीतम, साधसंगि भ्रम जाले॥१॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! समाले = संभाल, (अपने अंदर) संभाल रख। निबहै = आखिर तक साथ निभाएगा। नाले = साथ। धिआई = (हे मन!) तू सिमर, तू ध्यान कर। बिरथा = वृथा, खाली। मन चिंदे फल = मन इच्छित फल। लाऐ = लगाऐ। बनवारी = जगत का मालिक। घटि घटि = हरेक घट में। निहाले = देखता है। सिख = शिक्षा। देइ = देता है। जाले = जला दे।1।

अर्थ: हे (मेरे) प्यारे मन! हे (मेरे) मित्र मन! परमात्मा का नाम (अपने अंदर) संभाल के रख। हे प्यारे मन! हे मित्र मन! ये हरि नाम (सदा) तेरे साथ निभेगा। (हे मन!) परमात्मा का नाम सिमर, (यही तेरे) साथ (रहेगा। जो भी मनुष्य यही हरि नाम सिमरता है) वह दुनिया से खाली (हाथ) नहीं जाता। (हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरणों में चिक्त जोड़, तू सारे मन इच्छित फल प्राप्त कर लेगा।

(हे मेरे मन!) जगत का मालिक प्रभू जल में धरती में हर जगह मौजूद है। वह हरेक शरीर में (व्यापक हो के मिहर की) निगाह से (हरेक को) देखता है। हे प्यारे मन! नानक (तुझे) शिक्षा देता है–साध-संगति में रह के अपनी भटकना का नाश कर।1।

मन पिआरिआ जी मित्रा हरि बिनु झूठु पसारे ॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा बिखु सागरु संसारे ॥ चरण कमल करि बोहिथु करते सहसा दूखु न बिआपै ॥ गुरु पूरा भेटै वडभागी आठ पहर प्रभु जापै ॥ आदि जुगादी सेवक सुआमी भगता नामु अधारे ॥ नानकु सिख देइ मन प्रीतम बिनु हरि झूठ पसारे ॥२॥ {पन्ना 79}

उच्चारण: मन पिआरिआ जी मित्रा हरि बिन झूठ पसारे॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा बिख सागर संसारे॥ चरण कमल करि बोहिथ करते सहसा दूख न बिआपै॥ गुर पूरा भेटै वडभागी आठ पहर प्रभ जापै॥ आदि जुगादी सेवक सुआमी भगता नाम अधारे॥ नानक सिख देय, मन प्रीतम, बिन हरि झूठ पसारे॥२॥

पद्अर्थ: झूठु = आखिर तक साथ ना निभाने वाला। पसारे = पसारा। बिखु = जहर। सागरु = समुंद्र। करि = बना। बोहिथ = जहाज। करते चरण कमल = करतार के चरण कमलों को। सहसा = सहम। न बिआपै = जोर नही डाल सकता। भेटै = मिलता है। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। जापै = प्रतीत होता है। आदि = शुरू से ही। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। सेवक स्वामी = सेवकों के मालिक। आधारे = आधरा, आसरा। झूठ पसारे = साथ ना निभने वाले पसारे।2।

अर्थ: हे मेरे प्यारे मन! परमात्मा के बिना (और कोई सदा साथ निभाने वाला नहीं है), ये सारा जगत पसारा सदा साथ निभाने वाला नहीं। हे मेरे प्यारे मन! ये संसार (एक) समुंद्र (है, जो) जहर (से भरा हुआ) है। (हे मन!) करतार के सुंदर चरणों को जहाज बना (इसकी बरकति से) कोई सहम कोई दुख अपना जोर नहीं डाल सकता। (पर जीव के वश की बात नहीं) जिस भाग्यशाली को पूरा गुरू मिलता है, वह प्रभू को आठों पहर सिमरता है।

आदि से ही, युगों के आरम्भ से ही, (परमात्मा अपने) सेवकों का रक्षक (चला आ रहा) है, (परमात्मा के) भगतों के लिए परमात्मा का नाम (सदा ही) जिंदगी का सहारा है। हे प्यारे मन! नानक (तुझे) शिक्षा देता है– परमात्मा के नाम के बिना बाकी सारे जगत खिलारे आखिर तक साथ निभाने वाले नहीं हैं।

मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि लदे खेप सवली ॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि दरु निहचलु मली ॥ हरि दरु सेवे अलख अभेवे निहचलु आसणु पाइआ ॥ तह जनम न मरणु न आवण जाणा संसा दूखु मिटाइआ ॥ चित्र गुपत का कागदु फारिआ जमदूता कछू न चली ॥ नानकु सिख देइ मन प्रीतम हरि लदे खेप सवली ॥३॥ {पन्ना 79}

उच्चारण: मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि लदे खेप सवली॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि दर निहचल मली॥ हरि दर सेवे अलख अभेवे निहचल आसण पायआ॥ तह जनम न मरण, न आवण जाणा, संसा दूख मिटायआ॥ चित्र गुपत का कागद फारिआ जमदूता कछू न चली॥ नानक सिख देय, मन प्रीतम, हरि लदे खेप सवली॥३॥

पद्अर्थ: लदे = लादना। खेप = सौदा। सवली = सफली, नफा देने वाली। निहचलु = अटल, कभी ना हिलने वाली। मली = मल, कब्जा। सेवे = सेवता है, संभालता है। अलख = अदृष्ट। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। तह = वहाँ, उस निहचल आसन पर (पहुँच के)। संसा = सहम। चित्र गुपत = धर्मराज के दोनों मुंशी माने गए हैं (शब्द ‘चित्र गुप्त’ का भाव है ‘गुप्त च़ित्र’ अर्थात छुपे हुए चित्र, वह चित्र जो मनुष्य की नजरों से गुप्त रहते हैं। च़ित्र = किए कर्मों के संस्कार। मनुष्य जो कर्म करता है उनके संस्कार उनके मन में बनते जाते हैं। शरीर त्यागने से संस्कार-मयी मन जीवात्मा के साथ जाता है।) कागतु = कागज, लेखा। कछू न चली = कोई पेश नही जाती। चली = चलती। नानकु देइ = नानक देता है।3।

अर्थ: हे प्यारे मन! हे मित्र! परमात्मा के नाम का सौदा कर, ये सौदा नफा देने वाला है। हे प्यारे मन! हे मित्र मन! परमात्मा के दरवाजे पर डटा रह, यही दरवाजा अटॅल है। जो मनुष्य परमात्मा के दर पर कब्जा करके रखता है, जो अदृष्ट है और जिसका भेद नहीं पाया जा सकता, वह मनुष्य ऐसा (आत्मिक) ठिकाना हासिल कर लेता है जो कभी डोलता नहीं। उस आत्मिक ठिकाने पर पहुँच के जनम मरन के चक्कर खत्म हो जाते हैं, मनुष्य हरेक किस्म के सहम व दुख मिटा लेता है। (उस आत्मिक ठिकाने पे पहुँचा मनुष्य धर्मराज के बनाये हुए) चित्र गुप्त का लेखा फाड़ देता है (भाव, कोई गलत कर्म करता ही नहीं जिसे चित्र गुप्त लिख सकें), यमदूतों का भी कोई जोर उस पर नहीं चलता।

(इस वास्ते) हे प्यारे मन! नानक (तुझे) शिक्षा देता है कि परमात्मा के नाम का सौदा कर, यही सौदा नफे वाला है।3।

मन पिआरिआ जीउ मित्रा करि संता संगि निवासो ॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि नामु जपत परगासो ॥ सिमरि सुआमी सुखह गामी इछ सगली पुंनीआ ॥ पुरबे कमाए स्रीरंग पाए हरि मिले चिरी विछुंनिआ ॥ अंतरि बाहरि सरबति रविआ मनि उपजिआ बिसुआसो ॥ नानकु सिख देइ मन प्रीतम करि संता संगि निवासो ॥४॥ {पन्ना 79-80}

उच्चारण: मन पिआरिआ जीउ मित्रा करि संता संगि निवासो॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि नाम जपत परगासो॥ सिमरि सुआमी सुखहगामी इछ सगली पुंनीआ॥ पुरबे कमाऐ श्री रंग पाऐ हरि मिले चिरी विछुनिआ॥ अंतरि बाहरि सरबति रविआ मनि उपजिआ बिसुआसो॥ नानक सिख देय, मन प्रीतम, करि संता संगि निवासो॥४॥

पद्अर्थ: संता संगि = संतों की संगति में। निवासो = निवास (कर)। जपत = जपने से। परगासो = आत्मिक प्रकाश। सिमरि = सिमर के। सुखहगामी = सुख+गामिन्, सुख देने वाला। सगली = सारी। पुंनीआ = पूरी हो जाती हैं। पूरबे कमाए = पहले जन्म में नेक कमाई अनुसार। श्री रंग = (श्री = लक्ष्मी) लक्ष्मी का पति, परमात्मा। सरबति = सर्वत्र, हर जगह। मनि = मन में। बिसुवासो = विश्वाश, श्रद्धा, यकीन।4।

अर्थ: हे प्यारे मन! हे मित्र मन! गुरमुखों की संगति में उठना बैठना बना। हे प्यारे मन! हे मित्र मन! (गुरमुखों की संगति में) परमात्मा का नाम जपने से अंदर आत्मिक प्रकाश हो जाता है। सुख पहुँचाने वाले मालिक प्रभू को सिमरने से सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, पहिले जन्म में की नेक कमाई के संस्कारों के अनुसार चिरों से विछुड़ा लक्ष्मी पति प्रभू (फिर) मिल पड़ता है। (हे भाई गुरमुखों की संगति करने से) मन में एक निश्चय बन जाता है कि परमात्मा (जीवों के) अंदर बाहर हर जगह व्यापक है।

हे प्रीतम मन! नानक (तुझे) शिक्षा देता है गुरमुखों की संगति में टिका कर।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh