श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरी राग की वार का भाव

पउड़ी - वार:

(1) जीवों को पैदा करने वाला प्रभू ही जीवों का आसरा है, वही हरेक का हर जगह में रक्षक है, हर जगह उसी की हुकम चल रहा है, इस वास्ते किसी और से डर नहीं होना चाहिए। प्रभू की याद से और सारे डर दूर हो जाते हैं।

(2) परमात्मा स्वयं ही हर जगह मौजूद है, वह स्वयं ही हरेक जीव को काम काज में लगा रहा है, और ये तमाशा देख के खुश हो रहा है।

(3) जीव यहां व्यापार (वणज) करने के लिए आया है। ये जगत इसके व्यापार करने के लिए हाट है। गुरू की शरण पड़ के इसके ‘नाम’ के व्यापारी को ‘जमकाल’ का डर नहीं रहता।

(4) प्रभू हर जगह हरेक जीव में मौजूद है, इस तरह सारे जीव, मानों, उसे याद कर रहे हैं पर बंदगी की कमाई उनकी ही सफल है, जो सत्गुरू के राह पर चल के सिमरन करते हैं।

(5) जीव अपने किए किसी विकार को परमात्मा से छुपा के नहीं रख सकता, कि अंदर बाहर हर जगह व्यापक होने के कारण हरेक का भेद जानता है। इसी लिए पाप करने वाला सोए हुए ही पाप के कारण डरता है। पर सिमरन करने वाला मनुष्य प्रभू में लीन हो जाता है, उसे कोई डर नहीं व्याप्ता।

(6) प्रभू की सिफत सलाह करना, प्रभू का सिमरन करना- यही मानस जन्म का असल मनोरथ है, यही मनुष्य के लिए करने योग्य कार्य है।

(7) ये जगत जैसे, एक गहरा समुंद्र है, जिस में जीव, मानो, मछलियां है जो मायावी पदार्थों की भिक्ति की लालच में आ के जमकाल के जाल में फंस रही हैं। जो ‘नाम’ सिमरते हैं, वे इस गहरे समुंद्र में कमल के फूल की तरह अछोह रहते हैं।

(8) ये जानते हुए भी कि राजक परमात्मा है जीव रोजी की खातिर छल-कपट करते हैं, और तृष्णा अधीन हो के खुआर होते हैं। पर जो जीव सिमरन करते हैं, उन्हें संतोष के जैसेना खत्म होने वाले खजाने मिल जाते हैं।

(9) परमात्मा सभ जीवों को रिजक देने वाला है। और कोई राजक नहीं, जिसके आगे जीव अरजोई कर सके, सारे जीव उसी दर के सवाली हैं। पर, मुबारिक वो हैंजो गुरू के बताए हुए राह पर चल के प्रभू की सिफत सलाह करते हैं।

(10) जीवन का असल मनोरथ है ‘बंदगी’। पर, ये दाति सत्गुरू के द्वारा ही मिल सकती है।

(11) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, उसको जगत में हर जगह इज्जत मिलती है, उसकी शोभा सदा के लिए कायम हो जाती है, उसका दीदार करके विकारी लोग भी विकारों से हट जाते हैं।

(12) जैसे सूर्य की किरण रात के अंधेरे को दूर करती है, वैसे ही जो भाग्यशाली मनुष्य गुरू की शिक्षा से प्रभू की जीवन रश्मि बख्शने वाली सिफत सलाह करता है, उसके अंदर ज्ञान का प्रकाश होता है, और अंदर से माया का अंधकार दूर हो जाता है।

(13) कोई भाग्यशली ही नाम सिमरता है। नाम की बरकति से जीवन सुखी हो जाता है, क्योंकि नाम सिमरने से सारे पाप और पापों से पैदा होने वाले सारे दुख दूर हो जाते हैं।

(14) परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य सत्गुरू की शरण पड़ते हैं, उनकी नित्य की परेशानियां मिट जाती हैं, क्योंकि उनका मन माया की ओर से तृप्त हो जाता है (और माया की तृष्णा ही रोजाना के तौखलों का मूल कारण है)। इस तरह वे मनुष्य लोक और परलोक दोनों जगह आनन्दित रहते हैं।

(15) माया से मोह हो जाने के कारण मायाधारी को मौत का बड़ा सहम होता है। पर, नाम सिमरने वालों का ये सहम खत्म हो जाता है, क्योंकि बंदगी की बरकति से माया की तृष्ना ही मिट जाती है, जितना चिर यहां जीते हैं, कोई निंदक बखील भी उनपे दबाव नहीं डाल सकता।

(16) जो मनुष्य माया के मोह में फंस के विकारों में लगे रहते हैं, उन्हें प्रभू अपने चरणों से विछोड़ देता है, और प्रभू चरणों से विछुड़ना जीव के लिए एक कड़ी सजा है। क्योंकि ये विछोड़ा ही दुखों का मूल है। नाम जपने वालों को प्रभू आदर देता है, अपने नजदीक रखता है।

(17) माया के मोह में फंसे हुओं को और विकारों में बिलकते हुओं को इस घोर दुख से परमात्मा स्वयं ही बचाता है। मनमुख मूर्ख अहंकारियों को वह स्वयं ही रास्ते पर लाता है। ये दुख-संताप उनको इस आत्मिक मौत से बचाने के लिए ही प्रभू भेजता है।

(18) विकारियों को दुख कलेश देने वाला परमात्मा कोई अन्याय नहीं करता, कर्तव्यपरायणता के उलट नहीं करता कि जीवों को फिक्र-अंदेशा करना पड़े। विकारों में फंसा मनुष्य विकारों से इतना चिपका हुआ है, कि प्रभू द्वारा इस ‘मार’ के कारण ही आखिरवह विकारों से थकता है।

(19) विकारियों का मन सदा भटकता रहता है; वे जैसे, घोर नर्क में पड़े रहते हैं। बंदगी करने वालों का मन टिका रहता है और प्रसन्न रहता है क्योंकि उनको परमात्मा पे पूरा भरोसा होता है।

(20) गुरू के बताए हुए रास्ते पे चल के, अगर दुनियावी जरूरतों की खातिर भी परमात्मा के दर पे अरजोई करते रहें, तो एक तो दुनिया वाले काम सँवर जाते हैं, दूसरे सत्संग में अरजोई करते करते प्रभू चरणों से प्यार बन के ‘नाम’ की दाति भी मिल जाती है, और प्रभू का दीदार हो जाता है।

(21) ज्यों ज्यों मनुष्य परमात्मा की सिफत सलाह करता है, त्यों त्यों उसकी आत्मा उसके नजदीक नजदीक आती जाती है, ‘नाम’ की बख्शिश होती है और शाबाश मिलती है।

समूचा भाव:

(1) परमात्मा हरेक जीव का रक्षक है, हरेक जीव में मौजूद हैऔर हरेक जीव को स्वयं ही काम काज में लगा रहा है। फिर भी, जीव को कोई न कोई डर सहम पड़ा रहता है, क्योंकि जगत रूपी बाजार में अपने असल काम नाम व्यापार को छोड़ बैठता है, और उस घट घट वासी प्रभू को कहीं दूर जान के भूलें कर बैठता है। (१ से ५ तक)

(2) मानस जीवन का असल मनोरथ है ‘बंदगी’। जो जीव सिमरन करते हैं वे इस संसार समुंदर में कमल के फूल की तरह अछोह रहते हैं। सिमरन हीन जीव माया के पदार्थों में इस तरह फंसते हैं जैसे मछली जाल में, परमात्मा को राजक जानते हुए भी तृष्णा-अधीन हो केरोजी की खातिर छल कपट करते हैं और खुआर होते हैं।

चाहिए तो ये कि मनुष्य प्रभू के राज़क होने में श्रद्धा धार के, इस तौखले को छोड़ के, गुरू के बताए हुए राह पे चल के, सिफत सलाह करे। यही सब से ऊँचा करने योग्य कार्य है। (६ से १० तक)

(3) माया की तृष्णा ही तौखलों (परेशानियों) का मूल कारण है, माया का मोह ही मौत का सहम पैदा करता है। सिमरन की बरकति से माया का अंधेरा मन में से दूर हो जाता है, इस लिए झल्लाहट और सहम भी मिट जाते हैं, जीवन सुखी हो जाते हैं क्योंकि मोह से पैदा होने वाले पाप और दुख रोग दूर हो जाते हैं। पर, सिमरता कोई भाग्यशाली ही है।

(4) माया का मोह और दुनिया के विकार मनुष्य को परमात्मा से विछोड़ते हैं।, विकारी का मन भटकता है, मानो, घोर नर्क में पड़ा है। पर, ये ‘मार’, ये सजा, उस पर कोई कहर नहीं हो रहा, बल्कि उसको आत्मिक मौत से बचाने के लिए दारू है। विकारों के साथ चिपका हुआ मनमुख आखिर इस ‘मार’ के कारण ही विकारों से परे हटता है; और पुनः प्रभू चरणों में जुड़ने की तमन्ना उसके अंदर पैदा होती है। (११ से १९ तक)

(5) चाहे दुनियावी जरूरतों की खातिर ही सही, ज्यों ज्यों मनुष्य प्रभू की सिफत सलाह करता है, त्यों त्यों उसके नजदीक पहुँचता है, दुनिया भी सँवरती है और ‘नाम’ की बख्शिश भी होती है। (२० से २१ तक)

मुख्य भाव:

मनुष्य के जीवन का असल मनोरथ /उद्देश्य है घट घट वासी प्रभू का सिमरन। पर, मनुष्य तृष्णा अधीन हो के प्रभू का विसार देता है, और दुखी होता है। ये दुख: कलेश कोई सजा नही है, यह दारू है जो मनुष्य को तृष्णा के रोग से बचा के पुनः प्रभू चरणों में जोड़ने की तमन्ना इसके अंदर पैदा करता है। दुनियावी जरूरतों की खातिर सिमरा हुआ नाम भी मनुष्य को आखिर प्रभू के नजदीकतर ही लाता है।

बनतर:

इस वार में 21 पउड़ियां हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो–दो श्लोक हैं, पर पौड़ी नंबर 14 के साथ 3 श्लोक हैं। श्लोकों की कुल गिनती 43 है। हरेक पौड़ी की पाँच पाँच तुकें हैं। श्लोकों का वेरवा इस प्रकार है;

सलोक महला १ ---------------7
सलोक महला २ ---------------2
सलोक महला ३ -------------33
सलोक महला ५ -------------01
कुल:---------------------------43

‘वार’ गुरू रामदास जी की लिखी हुई है, पर उनका अपना सलोक एक भी नही है। इससे सिद्ध होता है कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज होने से पहले ये ‘वार’ सिर्फ पौड़ियां ही थीं, इसके साथ दर्ज हुए श्लोक गुरू अरजन साहिब जी ने दर्ज किए।

यहां एक और अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि 42 श्लोक उन गुर–व्यक्तियों के हैं जो श्री गुरू रामदास जी ने स्वयं ही गुरू नानक, गुरू अंगद और गुरू अमरदास जी के सलोक दर्ज किए हों? वैसे तो यहां एक और रोचक निर्णय निकल आता है कि गुरू राम दास जी के पास पहिले गुरू साहिबान की सारी बाणी मौजूद थी। पर, जहाँ तक इस ‘वार’ का संबंध है, ये सलोक गुरू रामदास जी ने स्वयं दर्ज नहीं किए। हरेक पौड़ी में एक जितनी तुकें देख के, ये मानना पड़ेगा कि काव्य दृष्टिकोण से सतिगुरू जी जैसे पउड़ियों की तुकों की गिनती एक जैसी रखने का ख्याल रखते रहे, वैसे वो इन पउड़ियों के साथ दर्ज किये गए सलोकों की गिनती भी एक सार ही रखते, पउड़ी नंबर 15 के साथ एक ही सलोक दर्ज ना करते। यहाँ ये सलोक गुरू अरजन साहिब जी का है। सो, ये सारे श्लोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए थे।

ये भी नहीं हो सकता कि एक ‘वार’ तो श्लोकों के बिना ही लिखी गई हो, और ‘वारें’ श्लोकों समेत हों; और बाकी की ‘वारों’ के साथ एक सुर रखने के लिए इसमें बाद में सलोक दर्ज किये गए हों। सारी ही ‘वारें’ निरी पउड़ियां ही थीं। श्लोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीराग की वार महला ४ सलोका नालि ॥ सलोक मः ३ ॥ रागा विचि स्रीरागु है जे सचि धरे पिआरु ॥ सदा हरि सचु मनि वसै निहचल मति अपारु ॥ रतनु अमोलकु पाइआ गुर का सबदु बीचारु ॥ जिहवा सची मनु सचा सचा सरीर अकारु ॥ नानक सचै सतिगुरि सेविऐ सदा सचु वापारु ॥१॥ {पन्ना 83}

उच्चारण: (ੴ ) एक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ सिरी राग की वार महला ४ सलोका नालि॥ सलोक म:३॥ रागां विचि श्री राग है जे सचि धरे पिआर॥ सदा हरि सच मन वसै निहचल मति अपार॥ रतन अमोलक पायआ गुर का सबद बीचार॥ जिहवा सची मन सचा सचा सरीर अकार॥ नानक सचै सतिगुरि सेविअै सदा सच वापार॥१॥

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। मनि = मन में। आकारु = स्वरूप। सरीरु अकारु = (भाव,) मानस शरीर। सचा = (भाव,) सफल। नानक = हे नानक! सतिगुरि सेविअै = यदि गुरू की सेवा करें, अगर गुरू के हुकम में चलें।

अर्थ: (सभ) रागों में से श्री राग (तभी श्रेष्ठ) है, यदि (इससे जीव) सदा स्थिर नाम में प्यार (लिव) जोड़े, हरी सदा मन में बसे और अपार प्रभू (को याद करने वाली) बुद्धि अचॅल हो जाए। (इसका नतीजा ये होता है कि) गुरबाणी की विचार रूपी अमोलक रत्न प्राप्त होता है, जीभ सच्ची, मन सच्चा और मानस जनम ही सफल हो जाता है। पर, हे नानक! ये सच्चा व्यापार तब ही किया जा सकता है अगर सदा स्थिर प्रभू के रूप गुरू के हुकम में चलें।1।

मः ३ ॥ होरु बिरहा सभ धातु है जब लगु साहिब प्रीति न होइ ॥ इहु मनु माइआ मोहिआ वेखणु सुनणु न होइ ॥ सह देखे बिनु प्रीति न ऊपजै अंधा किआ करेइ ॥ नानक जिनि अखी लीतीआ सोई सचा देइ ॥२॥ {पन्ना 83}

म: ३॥ होरु बिरहा सभ धात है जब लग साहिब प्रीति न होय॥ इह मन मायआ मोहिआ वेखण सुनण न होय॥ सह देखे बिन प्रीति न ऊपजै अंधा किआ करेय॥ नानक जिनि अखी लीतीआ सोई सचा देय॥२॥

पद्अर्थ: बिरहा = प्यार। धातु = माया। साहिब प्रीति = मालिक का प्यार। सह = खसम। जिनि = जिस (प्रभू) ने। सचा = सदा स्थिर रहने वाला, सच्चा।

अर्थ: जब तक मालिक के साथ प्रीति (उत्पन्न) नहीं होती, और प्यार सब माया (का प्यार) है, और माया में मोहा ये मन (प्रभू को) देख और सुन नहीं सकता। अंधा (मन) करे भी क्या? (प्रभू) पति को देखे बगैर प्रीति पैदा नहीं हो सकती। हे नानक! (माया में फंसा के) जिस प्रभू ने अंधा किया है, वही सदा स्थिर प्रभू फिर आँखें देता है।2

पउड़ी ॥ हरि इको करता इकु इको दीबाणु हरि ॥ हरि इकसै दा है अमरु इको हरि चिति धरि ॥ हरि तिसु बिनु कोई नाहि डरु भ्रमु भउ दूरि करि ॥ हरि तिसै नो सालाहि जि तुधु रखै बाहरि घरि ॥ हरि जिस नो होइ दइआलु सो हरि जपि भउ बिखमु तरि ॥१॥ {पन्ना 83}

पउड़ी॥ हरि इको करता इक, इको दीबाण हरि॥ हरि इकसै दा है अमर, इको हरि चिति धरि॥ हरि तिस बिन कोई नाहि, डरु भ्रम भउ दूरि करि॥ हरि तिसै नो सालाहि जि तुध रखै बाहरि घरि॥ हरि जिस नो होय दयआल सो हरि जपि भउ बिखमु तरि॥१॥

पद्अर्थ: दीबाणु = आसरा। अमरु = हुकम। चिति = चिक्त में। जि = अगर। घरि = घर में। घरि = बाहरि = घर में बाहर भी, (भाव,) हर जगह। सो = वह मनुष्य। जपि = जप के। बिखमु = मुश्किल। तरि = तैरता है।

अर्थ: हे भाई! एक ही प्रभू (सबका) करणहार व आसरा है, एक प्रभू का हुकम (चल रहा है), (इसलिए) उसको हृदय में संभाल। उस परमात्मा का कोई शरीक नहीं, (इस वास्ते) किसी और का डर व भरम दूर कर दे। (हे जीव!) उसी हरी की उस्तति कर जो तेरी सभ जगह रक्षा करता है। जिस पर परमात्मा दयाल होता है, वह जीव उस को सिमर के मुश्किल (संसार के) डर से पार होता है।

सलोक मः १ ॥ दाती साहिब संदीआ किआ चलै तिसु नालि ॥ इक जागंदे ना लहंनि इकना सुतिआ देइ उठालि ॥१॥ {पन्ना 83}

अर्थ: (सारी) दातें मालिक की हैं, उससे कोई जोर नहीं चल सकता। कई जागते जीवों को भी नहीं मिली, और कई सोये हुओं को भी उठा के (दातें) दे देता है।1।

मः १ ॥ सिदकु सबूरी सादिका सबरु तोसा मलाइकां ॥ दीदारु पूरे पाइसा थाउ नाही खाइका ॥२॥ {पन्ना 83}

पद्अर्थ: सादिक = सिदक वाला, भरोसे वाला। सबूरी = शुक्र, एहसान मानना। तोसा = राह का खर्च। मलाइक = देवते, देव स्वभाव वाले मनुष्य। पाइसा = पाते हैं। खाइक = निरी बातें करने वाले।

अर्थ: सिदक वालों के पास भरोसे और शुक्र की, और गुरमुखों के पास सब्र (संतोष) की राशि होती है। (इस करके) वे पूरे प्रभू के दर्शन कर लेते हैं। (पर) निरी बातें करने वालों को जगह भी नहीं मिलती।2।

पउड़ी ॥ सभ आपे तुधु उपाइ कै आपि कारै लाई ॥ तूं आपे वेखि विगसदा आपणी वडिआई ॥ हरि तुधहु बाहरि किछु नाही तूं सचा साई ॥ तूं आपे आपि वरतदा सभनी ही थाई ॥ हरि तिसै धिआवहु संत जनहु जो लए छडाई ॥२॥ {पन्ना 83}

अर्थ: (हे हरि!) तूने स्वयं ही सारी (सृष्टि) रच के स्वयं ही काम-धंधों में लगा दी है, अपनी ये बुर्जुगी देख के भी तू स्वयं ही प्रसन्न हो रहा है, तू सदा कायम रहने वाला प्रभू है तुझसे परे कुछ भी नहीं। सभ जगह तू खुद ही व्याप रहा है। हे गुरमुखो! उस प्रभू का सिमरन करो जो (विकारों से) छुड़ा लेता है।

सलोक मः १ ॥ फकड़ जाती फकड़ु नाउ ॥ सभना जीआ इका छाउ ॥ आपहु जे को भला कहाए ॥ नानक ता परु जापै जा पति लेखै पाए ॥१॥ {पन्ना 83}

उच्चारण: सलोक म:१॥ फकड़ जाती फकड़ नाउ॥ सभना जीआ इका छाउ॥ आपहु जे को भला कहाए॥ नानक ता पर जापै जा पति लेखै पाऐ॥१॥

पद्अर्थ: फकड़ = व्यर्थ। छाउ = सादृष्टिता, नुहार। परु = अच्छी तरह। परु जापै = अच्छी तरह प्रगट होता है। नाउ = नाम, मशहूरी, वडिआई।1।

अर्थ: जाति (का अहंकार) के नाम (बड़प्पन का अहंकार) वयर्थ हैं, (असल में) सारे जीवों की एक ही नुहार होती है (भाव, सबकी आत्मा एक ही है)। (जाति या बड़प्पन के आसरे) यदि कोई जीव अपने आप को अच्छा कहलवाए (तो वह अच्छा नहीं बन जाता)। हे नानक! (जीव) तो ही अच्छा जाना जाता है, यदि लेखे में (भाव सच्ची दरगाह के लेखे के समय) आदर हासिल करे।1।

मः २ ॥ जिसु पिआरे सिउ नेहु तिसु आगै मरि चलीऐ ॥ ध्रिगु जीवणु संसारि ता कै पाछै जीवणा ॥२॥ {पन्ना 83}

पद्अर्थ: आगै = साहमणे, दर पे। मरि चलीअै = स्वैभाव मिटा दे। ता कै पाछै = उस की तरफ से मुंह मोड़ के।

अर्थ: जिस प्यारे के साथ प्यार (हो), (जाति आदि का) अहंकार छोड़ के उसके सन्मुख रहना चाहिए। संसार में उससे बेमुख हो के जीना- इस जीवन को धिक्कार है।2।

नोट: ‘बाणी’ मनुष्य के जीवन की अगवाई के लिए है। ‘प्यारे’ से पहिले ही मर जाना – अमली जीवन में ये अनहोनी सी बात है। ‘मरने’ से भाव है स्वै भाव को मिटाना, स्वै वारना, अहम् को दूर करना। पिछले श्लोक से ये ख्याल ही मिल सकता है।

पउड़ी ॥ तुधु आपे धरती साजीऐ चंदु सूरजु दुइ दीवे ॥ दस चारि हट तुधु साजिआ वापारु करीवे ॥ इकना नो हरि लाभु देइ जो गुरमुखि थीवे ॥ तिन जमकालु न विआपई जिन सचु अम्रितु पीवे ॥ ओइ आपि छुटे परवार सिउ तिन पिछै सभु जगतु छुटीवे ॥३॥ {पन्ना 83}

उच्चारण: पउड़ी॥ तुध आपे धरती साजीअै, चंद सूरज दुय दीवे॥ दस चारि हट तुध साजिआ, वापार करीवे॥ इकना नो हरि लाभ देय जो गुरमुखि थीवे॥ तिन जमकाल न विआपई जिन सच अंम्रित पीवे॥ ओय आपि छुटे परवार सिउ तिन पिछै सभ जगत छुटीवे॥३॥

अर्थ: (हे परमात्मा!) तूने स्वयं ही धरती रची है और (इसके वास्ते) चंद्रमा व सूरज (जैसे) दो दिऐ (बनाए हैं), (जीवों के सच्चा) व्यापार करने के लिए चौदह (लोक जैसे) दुकानें बना दी हैं। जो जीव गुरू के सन्मुख हो गए हैं, और जिन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला सदा स्थिर नाम जल पीया है, उन्हें हरि लाभ प्रदान करता है (भाव, उनका जन्म सफल करता है) और जमकाल उनपे प्रभाव नहीं डाल सकता। वे (जमकाल से) बच जाते हैं, और उनके पद्चिन्हों पे चल के सारा संसार बच जाता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh