श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः १ ॥ कुदरति करि कै वसिआ सोइ ॥ वखतु वीचारे सु बंदा होइ ॥ कुदरति है कीमति नही पाइ ॥ जा कीमति पाइ त कही न जाइ ॥ सरै सरीअति करहि बीचारु ॥ बिनु बूझे कैसे पावहि पारु ॥ सिदकु करि सिजदा मनु करि मखसूदु ॥ जिह धिरि देखा तिह धिरि मउजूदु ॥१॥ {पन्ना 84}

उच्चारण: सलोक म:१॥ कुदरति करि कै वसिआ सोय॥ वखत वीचारे सु बंदा होय॥ कुदरति है कीमति नही पाय॥ जा कीमति पाय ता कही न जाय॥ सरै सरीअत करहि बीचार॥ बिन बूझै कैसे पावहि पार॥ सिदक करि सिजदा, मन करि मखसूद॥ जिह धिरि देखा, तिह धिरि मउजूद॥१॥

पद्अर्थ: करि कै = रच के, पैदा कर के। सोइ = वह स्वयं ही। वखतु = मनुष्य के जन्म का समय। कही न जाइ = बयान नहीं हो सकती। सरै = शरा का। पारु = अंत, परला छोर। सिजदा = रॅब के आगे झुकना। मखसूद = निशाना, मखसद, प्रयोजन। जिह धिरि = जिस तरफ। मउजूदु = मौजूद, हाजिर।

अर्थ: सृष्टि (पैदा करने वाला प्रभू) स्वयं ही (इस में) बस रहा है। यहाँ जो मनुष्य (मानस जनम) के समय को विचारता है (भाव, जो यह सोचता है कि इस जगत में मनुष्य का शरीर किस लिए मिला है) वह (उस प्रभू का) सेवक बन जाता है। प्रभू (अपनी रची) कुदरति में व्यापक है, उसका मूल्य नहीं पड़ सकता; जो कोई मुल्य डालने का यत्न भी करे, तो भी उसका मूल्य बताया नहीं जा सकता।

जो मनुष्य निरी शरा आदि (अर्थात, बाहरली धार्मिक रस्मों) की ही विचार करते हैं, वह (जीवन के सही मनोरथ को) समझे बिना (जीवन का) दूसरा छोर कैसे ढूँढ सकते हैं? (हे भाई!) ईश्वर पे भरोसा रख - ये है उसके आगे सिर झुकाना, अपने मन को ईश्वर में जोड़ना - इसको जिंदगी का निशाना बना। फिर जिस तरफ देखें, उस तरफ रॅब दिखता है।1।

मः ३ ॥ गुर सभा एव न पाईऐ ना नेड़ै ना दूरि ॥ नानक सतिगुरु तां मिलै जा मनु रहै हदूरि ॥२॥ {पन्ना 84}

पद्अर्थ: गुर सोभा = गुरू का संग। ऐव = इस तरह (निरा शारीरिक तौर पे)। हदूरि = हजूरी में, चरणों में, याद में।

अर्थ: (शरीर से) गुरू के नजदीक या दूर बैठने से गुरू का संग प्राप्त नहीं होता। हे नानक! सतिगुरू तभी मिलता है जब (सिख का) मन (गुरू की) हजूरी में रहता है।2।

पउड़ी ॥ सपत दीप सपत सागरा नव खंड चारि वेद दस असट पुराणा ॥ हरि सभना विचि तूं वरतदा हरि सभना भाणा ॥ सभि तुझै धिआवहि जीअ जंत हरि सारग पाणा ॥ जो गुरमुखि हरि आराधदे तिन हउ कुरबाणा ॥ तूं आपे आपि वरतदा करि चोज विडाणा ॥ ४॥ {पन्ना 84}

पद्अर्थ: दीप = (संस्कृत शब्द ‘द्वीप’) जिसके दोनों तरफ जल हो।

भारत के पुराने संस्कृत विद्वानों ने पृथ्वी को कई हिस्सों में बाँटा। कोई इसके चार हिस्से करते हैं, कोई सात, कोई नौ और कोइ तेरह। हरेक हिस्से का नाम ‘द्वीप’ रखा और ये प्राचीन ख्याल है कि ये हिस्से आपस में भारी समुंद्रों से अलग अलग हैं। संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि श्री हर्ष की रची हुई पुस्तक महाकाव्य नैश्धचरित के पहले सर्ग में 18 द्वीप बताए गए हैं। पर प्रसिद्ध गिनती सात ही है जैसा कि ‘रघुवंश’ व ‘शकुंतला’ नामक प्रसिद्ध पुस्तकों में दर्ज है। इन सातों में बीच के द्वीप का नाम ‘जंबूद्वीप’ है जिसमें हमारा देश भारत वर्ष शामिल है। दस असट पुराणा–अठारह पुराण।18 पुराण ये हैं;

ब्राहम पाहम वैष्णव च शैवं भागवं तथा॥
तथान्यन्नारदीयं च मार्कण्डेयं च सप्रमं॥
आग्नेयमष्टकं प्रोक्तं भविष्यन्नवमं तथा॥
दशमं ब्रहमवैवंर्त लिंगमेकादशं तथा॥
वाराहं द्वादशां प्रोक्तं स्कांद चात्र त्रयोदशं॥
चतुर्दशं वामनं च कौर्म पञचदशं तथा॥
माज्स्यं च गारुडं चैवब्रहम णाष्टादश तथा॥

ब्रह्म, पदम, विष्णु, शिव, भगवत, नारद, मार्कण्डे, अग्नि, भविष्यत, ब्रह्म विर्वत, लिंग, वराह, सकंद, वामन, कूरम, मत्स्य, गरुड़, ब्रह्माण्ड। नव खंड = धरती के नौ हिस्से। सारग = धनुष। पाणा = पाणि, हाथ। सारगपाण = जिसके हाथ में धनुष है। गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू के बताए हुए राह पे चल के। चोज = कौतक, लीला। विडाणा = आश्चर्य।

अर्थ: सात द्वीप, सात समुंद्र, नौ खण्ड, चार वेद; आठारह पुराण, इन सब में तू ही बस रहा है, और सभी को प्यारा लगता है। हे धर्नुधारी प्रभू! सारे जीव जंतु तेरा ही सिमरन करते हैं। मैं सदके हूँ उन पे से, जो गुरू के सन्मुख हो के तुझे जपते हैं (हलांकि) तू आश्चर्यजनक लीला रच के खुद ही खुद सब में व्यापक है।4।

सलोक मः ३ ॥ कलउ मसाजनी किआ सदाईऐ हिरदै ही लिखि लेहु ॥ सदा साहिब कै रंगि रहै कबहूं न तूटसि नेहु ॥ कलउ मसाजनी जाइसी लिखिआ भी नाले जाइ ॥ नानक सह प्रीति न जाइसी जो धुरि छोडी सचै पाइ ॥१॥ {पन्ना 84}

उच्चारण: सलोक म: ३॥ कलउ मसाजनी किआ सदाईअै, हिरदै ही लिखि लेहु॥ सदा साहिब कै रंगि रहै कबहू न तूटसि नेहु॥ कलउ मसाजनी जाइसी, लिखिआ भी नाले जाय॥ नानक सह प्रीति न जायसी, जो धुरि छोडी सचै पाय॥१॥

पद्अर्थ: कलउ = कलम। मसाजनी = दवात। रंगि = पिआर में। सह प्रीति = पति का प्यार। धुरि = धुर से, अपने दर से। सचै = सदा स्थिर प्रभू ने। पाइ छोडी = (हृदय में) डाल दी है।

अर्थ: कलम दवात मंगाने का क्या लाभ? (हे सज्जन!) हृदय में ही (हरि का नाम) लिख ले। (इस तरह यदि) मनुष्य सदा सांई के प्यार में (भीगा) रहे (तो) ये प्यार कभी नहीं टूटेगा। (वरना) कलम दवात तो नाश होने वाली (चीज) है और (इसका) लिखा (कागज) भी नाश हो जाना है। पर, हे नानक! जो प्यार सच्चे प्रभू ने अपने दर से (जीव के हृदय में) बीज दिया है उसका नाश नही होगा।1।

मः ३ ॥ नदरी आवदा नालि न चलई वेखहु को विउपाइ ॥ सतिगुरि सचु द्रिड़ाइआ सचि रहहु लिव लाइ ॥ नानक सबदी सचु है करमी पलै पाइ ॥२॥ {पन्ना 84}

उच्चारण: म: ३॥ नदरी आवदा नालि न चलई, वेखहु को विउपाय॥ सतिगुरि सचु द्रिढ़ायआ, सचि रहहु लिव लाय॥ नानक सबदी सचु है करमी पलै पाय॥२॥

पद्अर्थ: को = कोई भी मनुष्य। विउपाइ = निर्णय करके। सतिगुरि = गुरू ने। द्रिड़ाइआ = पक्का किया है। सबदी = गुरू के शबद द्वारा। करमी = मिहर से। पलै पाइ = मिलता है।

अर्थ: बेशक निर्णय करके देख लो, जो कुछ (इन आँखों से) दिखता है (जीव के) साथ नही जा सकता, (इस करके) सतिगुरू ने निश्चय कराया है (कि) सच्चा प्रभू (साथ निभने योग्य है), (इसलिए) प्रभू में बिरती जोड़ी रखो। हे नानक! जो प्रभू की मेहर हो तो गुरू के शबद से सच्चा हरी हृदय में बसता है।2।

पउड़ी ॥ हरि अंदरि बाहरि इकु तूं तूं जाणहि भेतु ॥ जो कीचै सो हरि जाणदा मेरे मन हरि चेतु ॥ सो डरै जि पाप कमावदा धरमी विगसेतु ॥ तूं सचा आपि निआउ सचु ता डरीऐ केतु ॥ जिना नानक सचु पछाणिआ से सचि रलेतु ॥५॥ {पन्ना 84}

पद्अर्थ: मन = हे मन। विगसेतु = खुश होता है। सचा = अटल। केतु = क्यूँ? सचि = सदा स्थिर रहने वाले हरी में।

अर्थ: हे हरी! तू हर जगह (अंदर-बाहर) (व्यापक) है, (इस करके जीवों के) हृदयों को तू ही जानता है। हे मेरे मन! जो कुछ करते हैं (सब जगह व्यापक होने के कारण) वह हरि जानता है, (इसलिए) उसका सिमरन कर। पाप करने वाले को (ईश्वर से) डर लगता है, और धर्मी (देख के) खुश होता है। हे हरी! डरें भी क्यूँ? (जब जैसा) तूं स्वयं सच्चा है (तैसे ही) तेरा न्याय भी सच्चा है। (डरना तो कहीं रहा), हे नानक! जिन्हें सच्चे हरी की समझ पड़ी है, वह उसमें ही घुल मिल जाते हैं (भाव, उसके साथ ही एक-मेक हो जाते हैं)।5।

सलोक मः ३ ॥ कलम जलउ सणु मसवाणीऐ कागदु भी जलि जाउ ॥ लिखण वाला जलि बलउ जिनि लिखिआ दूजा भाउ ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा अवरु न करणा जाइ ॥१॥ {पन्ना 84}

उच्चारण: सलोक म:३॥ कलम जलउ सण मसवाणीअै, कागद भी जलि जाउ॥ लिखण वाला जलि बलउ जिनि लिखिआ दूजा भाउ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा, अवर न करणा जाय॥१॥

पद्अर्थ: पूरबि लिखिआ = पहले से कमाया हुआ। मनुष्य जो जो कर्म करता है, उसके दो नतीजे निकलते हैं– = एक स्पष्ट दिखने वाले, माया के लाभ या हानि, और दूसरा, उस कर्म का असर जो मन पर पड़ता है, जिसके वास्ते ‘संस्कार’ शब्द बरता जा सकता है। अच्छे कर्मों के अच्छे संस्कार और बुरे के बुरे। किसी कर्म का अच्छा या बुरा होना भी कर्म की बाहरी दिखती विधि या तरीके से नहीं जांची जा सकती। ये भी मन की भावना के अधीन है। सो मनुष्य का मन क्या है? उसके पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समन्वय। मनुष्य सदैव इन संस्कारों के अधीन रहता है। अगर ये संस्कार ठीक हों, तो मन अच्छी ओर ले जाता है, जो बुरे हों तो बुरी ओर। इसी को ही ‘पूरबि लिखिआ’ कहा गया है। ये ‘पूरबि लिखे’ संस्कार मनुष्य के अपने यत्न से नहीं मिट सकते, क्योंकि अपना यत्न मनुष्य सदा अपने मन के द्वारा ही कर सकता है, और मन सदा उधर प्रेरता है जिधर के इस में संस्कार हैं। एक ही तरीका है इनको मिटाने का = भाव, मन के संस्कारों को सतिगुरू की रजा में लीन कर देना।

जलउ = जल जाए। सणु = समेत। जलि बलउ = जल बल जाए। जिनि = जिस ने। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = प्रभू को छोड़ के दूसरे का प्यार, माया का प्यार।

अर्थ: जल जाए वह कलम, समेत दवात के, और वह कागज भी जल जाए, लिखने वाला भी जल मरे, जिसने (निरा) माया के प्यार का लेखा लिखा है, (क्यूँकि) हे नानक! (जीव) वही कुछ कमाता है, जो (संस्कार अपने अच्छे-बुरे किए हुए कर्मों के अनुसार) पहिले से (अपने हृदय पर) लिखे जाता है; (जीव) इस के उलट कुछ नहीं कर सकता।1।

मः ३ ॥ होरु कूड़ु पड़णा कूड़ु बोलणा माइआ नालि पिआरु ॥ नानक विणु नावै को थिरु नही पड़ि पड़ि होइ खुआरु ॥२॥ {पन्ना 84}

उच्चारण: म: ३॥ होर कूड़ पढ़णा कूड़ बोलणा, मायआ नालि पिआर॥ नानक विण नावै को थिर नही, पढ़ि पढ़ि होय खुआर॥२॥

पद्अर्थ: कूड़ = नाशवंत, व्यर्थ।

अर्थ: और (माया संबंधी) पढ़ना व्यर्थ का उद्यम है, और बोलना (भी) व्यर्थ (क्योंकि ये उद्यम) माया के साथ प्यार (बढ़ाते हैं)। हे नानक! प्रभू के नाम के बिना कोई भी सदा नहीं रहेगा (भाव, सदा साथ नहीं निभेगा), (इस वास्ते) यदि कोई अन्य पढ़ाईआं ही पढ़ता है ख्वार होता है।2।

पउड़ी ॥ हरि की वडिआई वडी है हरि कीरतनु हरि का ॥ हरि की वडिआई वडी है जा निआउ है धरम का ॥ हरि की वडिआई वडी है जा फलु है जीअ का ॥ हरि की वडिआई वडी है जा न सुणई कहिआ चुगल का ॥ हरि की वडिआई वडी है अपुछिआ दानु देवका ॥६॥ {पन्ना 84}

पद्अर्थ: वडी = बड़ी करनी, सब से अच्छा काम। जीअ का फल = जिंद का फल, जीवन का मनोरथ। अपुछिआ = किसी की सलाह लेने के बिना, किसी को पूछे बिना।

अर्थ: जिस हरी का धर्म का न्याय है, उसकी सिफत सलाह और उसका कीरतन करना - यही (जीव के लिए) बड़़ी (उक्तम करनी) है। हरी की उपमा करनी सबसे अच्छा काम है (क्योंकि) जीव का (असली) फल (यह ही) है (भाव, जीवन का उद्देश्य ही यही है)। जो प्रभू चुगली की बात पर कान नहीं धरता, उस (प्रभू की) सिफत करनी बड़ा कर्म है। जो प्रभू किसी को पूछ के दान नही देता उसकी उपमा उक्तम काम है।6।

सलोक मः ३ ॥ हउ हउ करती सभ मुई स्मपउ किसै न नालि ॥ दूजै भाइ दुखु पाइआ सभ जोही जमकालि ॥ नानक गुरमुखि उबरे साचा नामु समालि ॥१॥ {पन्ना 84}

उच्चारण: सलोक म:३॥ हउ हउ करती सभ मुई, संपउ किसै न नालि॥ दूजै भाय दुख पायआ, सभ जोही जमकालि॥ नानक गुरमुखि उबरे, साचा नाम समालि॥१॥

पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि। मुई = दुखी हुई। हउ हउ करती = अहंकार कर कर के। संपउ = धन। दूजै भाइ = माया के प्यार में। जोही = देखी,घूरा। कालि = काल ने। समालि = संभाल के।

अर्थ: धन किसी के साथ नही (निभता, परंतु धन की टेक रखने वाले सारे जीव अहंकारी हो हो के खपते हैं, आत्मिक मौत मरे रहते हैं। माया के प्यार में सब ने दुख ही पाया है (क्योंकि) जमकाल ने (ऐसे) सभी को घूरा है (भाव, माया के मोह में फंसे जीव मौत से थर थर काँपते हैं, मानों, उन्हें जमकाल घूर रहा है)। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभू का नाम हृदय में संभाल के आत्मिक मौत से बचे रहते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh