श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 85 मः १ ॥ गलीं असी चंगीआ आचारी बुरीआह ॥ मनहु कुसुधा कालीआ बाहरि चिटवीआह ॥ रीसा करिह तिनाड़ीआ जो सेवहि दरु खड़ीआह ॥ नालि खसमै रतीआ माणहि सुखि रलीआह ॥ होदै ताणि निताणीआ रहहि निमानणीआह ॥ नानक जनमु सकारथा जे तिन कै संगि मिलाह ॥२॥ {पन्ना 85} उच्चारण: म: १॥ गलीं असी चंगीआं, आचारी बुरीआंह॥ मनहु कुसुधा कालीआं, बाहरि चिटविआह॥ रीसा करिह तिनाड़ीआं, जो सेवहि दरु खड़ीआह॥ नालि खसमै रतीआं, माणहि सुखि रलीआह॥ होंदे ताणि निताणीआं, रहिह निमानणीआंह॥ नानक जनम सकारथा, जे तिन कै संगि मिलाह॥२॥ पद्अर्थ: आचारी = चाल चलन में। मनहु = मन से। कुसुधा = खोटी। तिनाड़ीआ = उनकी। सेवहि दरु = दरवाजे पे बैठी हैं। सकारथा = सफल। अर्थ: हम बातों में सुचॅजी (है, पर) आचरन की बुरी हैं, मन से खोटी और काली (हैं, पर) बाहर से साफ सुथरी। (फिर भी) हम नकल उनकी करती हैं जो सावधान हो के पति के प्यार में भीगी हुई हैं और आनन्द, सुख माणती हैं, जो ताकत के होते हुए भी विनम्रता में रहती हैं। हे नानक! (हमारा) जनम सफल (तभी हो सकता है) यदि उनकी संगति में रहें।2। पउड़ी ॥ तूं आपे जलु मीना है आपे आपे ही आपि जालु ॥ तूं आपे जालु वताइदा आपे विचि सेबालु ॥ तूं आपे कमलु अलिपतु है सै हथा विचि गुलालु ॥ तूं आपे मुकति कराइदा इक निमख घड़ी करि खिआलु ॥ हरि तुधहु बाहरि किछु नही गुर सबदी वेखि निहालु ॥७॥ {पन्ना 85} उच्चारण:पउड़ी॥ तूं आपे जल मीना है आपे, आपे ही आप जाल॥ तूं आपे जाल वताइदा, आपे विचि सेबाल॥ तूं आपे कमल अलिपत है, सै हथां विच गुलाल॥ तूं आपे मुकति करायदा इक निमख घड़ी करि खिआल॥ हरि तुधहु बाहरि किछु नही, गुर सबदी वेखि निहाल॥७॥ पद्अर्थ: मीना = मछली। वताइदा = बिछाता। सैबालु = (संस्कृत:शैवाल) पानी में हरे रंग का जाला (भाव, दुनिया के पदार्थ)। अलिपतु = अलिप्त, निराला। सै हथा विचि = सैंकड़ों हाथ गहरे (पानी) में। गुलाल = सुंदर। निमख = पलक झपकने जितना समय। निहालु = प्रसन्न, चढ़ती कला में, खिला हुआ। अर्थ: (हे प्रभू!) तू स्वयं ही (मछली का जीवन-रूप) जल है, स्वयं ही (जल में) मछली है, और स्वयं ही जाल है। तू खुद ही जाल बिछाता है और खुद ही जल में जाला है, तू खुद ही गहरे जल में सुंदर निर्लिप कमल है। (हे हरी!) जो (जीव) एक पलक मात्र (तेरा) ध्यान धरे (उसे) तू स्वयं ही (इस जाल में से) छुड़ाता है। हे हरी! तुझसे परे और कुछ नही है, सतिगुरू के शबद से (तुझे हर जगह) देख के (कमल के फूल की तरह) प्रसन्न अवस्था में रह सकते हैं। सलोक मः ३ ॥ हुकमु न जाणै बहुता रोवै ॥ अंदरि धोखा नीद न सोवै ॥ जे धन खसमै चलै रजाई ॥ दरि घरि सोभा महलि बुलाई ॥ नानक करमी इह मति पाई ॥ गुर परसादी सचि समाई ॥१॥ {पन्ना 85} पद्अर्थ: रोवै = रोता है, कलपता है। धोखा = चिंता। धन = जीव स्त्री। दरि = (प्रभू के) दर पर। महिल = प्रभू के महल में, हजूरी में। करमी = मिहर से। अर्थ: (जिस मनुष्य को प्रभू के) भाणे की (रजा की, मर्जी की) समझ नहीं पड़ती, उसे बहुत रोना-धोना लगा रहता है, उसका मन चिंता में रहता है। (इस करके) सुख की नींद नहीं सो सकता। (भाव कभी शांति नही मिलती)। अगर (जीव) स्त्री (प्रभू) पति की रजा में चले तो दरगाह में और इस संसार में उसकी शोभा होती है और (प्रभू की) हजूरी में उसको आदर मिलता है। (पर, हे नानक!) प्रभू मेहर करे तो (रजा मानने वाली ये) समझ मिलती है, और गुरू की कृपा से (रजा के मालिक) सदा स्थिर सांई में जीव लीन हो जाता है।1। मः ३ ॥ मनमुख नाम विहूणिआ रंगु कसु्मभा देखि न भुलु ॥ इस का रंगु दिन थोड़िआ छोछा इस दा मुलु ॥ दूजै लगे पचि मुए मूरख अंध गवार ॥ बिसटा अंदरि कीट से पइ पचहि वारो वार ॥ नानक नाम रते से रंगुले गुर कै सहजि सुभाइ ॥ भगती रंगु न उतरै सहजे रहै समाइ ॥२॥ {पन्ना 85} उच्चारण: म: ३॥ मनमुख नाम विहूणिआं, रंग कसुंभा देखि न भुल॥ इस का रंग दिन थोड़िआ, छोछा इस दा मुल॥ दूजै लगे पचि मुऐ, मूरख अंध गवार॥ बिसटा अंदरि कीट से, पय पचहि वारो वार॥ नानक नाम रते से रंगले, गुर कै सहिज सुभाय॥ भगती रंग न उतरै, सहजे रहै समाय॥२॥ पद्अर्थ: छोछा = तुच्छ। पचि मुऐ = खुआर होते हैं। कीट = कीड़े। पइ = पड़ कर। वारो वार = बार बार। रंगुले = सुंदर। सहजि = सहज अवस्था में। सहजे = सहिज में। अर्थ: हे नाम से वंचित मनमुख! कुसंभ का (माया का) रंग देख के मोहित ना हो जा, इसका रंग (आनंद) थोड़े दिन ही रहता है, और इसका मुल्य भी तुच्छ सा ही होता है। जैसे बिष्ठा में पड़े हुए कीड़े करल-बरल करते हैं वैसे ही मूर्ख (अकल से) अंधे और मति हीन जीव माया के मोह में फंस के मुड़ मुड़ के दुखी होते हैं। हे नानक! जो जीव गुरू के ज्ञान और स्वाभाव में (अपनी मति और स्वाभाव लीन कर देते हैं), वे नाम में भीगे हुए और संदर हैं, सहज अवस्था में लीन रहने के कारण उनकी भक्ति का रंग कभी नहीं उतरता।2। पउड़ी ॥ सिसटि उपाई सभ तुधु आपे रिजकु स्मबाहिआ ॥ इकि वलु छलु करि कै खावदे मुहहु कूड़ु कुसतु तिनी ढाहिआ ॥ तुधु आपे भावै सो करहि तुधु ओतै कमि ओइ लाइआ ॥ इकना सचु बुझाइओनु तिना अतुट भंडार देवाइआ ॥ हरि चेति खाहि तिना सफलु है अचेता हथ तडाइआ ॥८॥ {पन्ना 85} उच्चारण: पउड़ी॥ सिसटि उपाई सभ तुध आपे रिजक संबाहिआ॥ इकि वल छल करि कै खावदे मुहहु कूड़ कुसत तिनी ढाहिआ॥ तुध आपे भावै सो करहि तुध उतै कंमि ओय लायआ॥ इकना सच बुझायओन तिना अतुट भंडार देवायआ॥ हरि चेति खाहि तिना सफल है अचेता हथ तडायआ॥८॥ पद्अर्थ: संबाहिआ = पहुँचाया। इकि = कई जीव। मुहहु = मुंह से। ढाहिआ = बोला। ओइ = वह सारे जीव। बुझाइओनु = बताया, ज्ञान दिया उस (हरी) ने। चेति = चेत के, सिमर के। अर्थ: (हे हरी!) तूने स्वयं (सारा) संसार रचा है, और सबको रिजक पहुँचा रहा है। (फिर भी) कई जीव (तूझे राजक नहीं समझते हुए) छल-कपट करके पेट भरते हैं, और मुंह से झूठ-तूफान बोलते हैं। (हे हरी!) जो तेरी रजा है सो ही वो करते हैं, तूने उन्हें वैसे ही कामों (छल-कपट) में ही लगा रखा है। जिन्हें हरी ने अपने सच्चे नाम की सूझ बख्शी है, उन्हें इतने खजाने (संतोष के) उसने दिए हैं कि कमी नहीं आती। (असल बात ये है कि) जो जीव प्रभू को याद करके माया का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें फलती है। (भाव, वे तृष्णातुर नहीं होते) और रॅब की याद से वंचित लोगों के हाथ (सदा) फैले रहते हैं (भाव, उनकी तृष्णा नहीं मिटती)।8। सलोक मः ३ ॥ पड़ि पड़ि पंडित बेद वखाणहि माइआ मोह सुआइ ॥ दूजै भाइ हरि नामु विसारिआ मन मूरख मिलै सजाइ ॥ जिनि जीउ पिंडु दिता तिसु कबहूं न चेतै जो देंदा रिजकु स्मबाहि ॥ जम का फाहा गलहु न कटीऐ फिरि फिरि आवै जाइ ॥ मनमुखि किछू न सूझै अंधुले पूरबि लिखिआ कमाइ ॥ पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखदाता नामु वसै मनि आइ ॥ सुखु माणहि सुखु पैनणा सुखे सुखि विहाइ ॥ नानक सो नाउ मनहु न विसारीऐ जितु दरि सचै सोभा पाइ ॥१॥ उच्चारण: सलोक म: ३॥ पढ़ पढ़ पंडित बेद वखाणहि मायआ मोह सुआय॥ दूजै भाय हरि नाम विसारिआ मन मूरख मिलै सजाय॥ जिनि जीउ पिंड दिता तिस कबहूँ न चेतै जो देंदा रिजक संबाहि॥ जम का फाहा गलहु न कटीअै फिर फिर आवै जाय॥ मनमुख किछू न सूझै अंधुले पूरब लिखिआ कमाय॥ पूरै भागि सतिगुर मिलै सुखदाता नाम वसै मन आय॥ सुख माणहि सुख पैनणा सुखे सुखि विहाय॥ नानक सो नाउ मनहु न विसारीअै जित दर सचै सोभा पाय॥१॥ पद्अर्थ: वखाणहि = व्याख्या करते हैं। सुआइ = स्वाद में। जिनि = जिस हरी ने। जीउ = जिंद। संबाहि देंदा = पहुँचाता है। मनि = मन में। माणहि = (नाम जपने वाले) माणते हैं। सुखि = सुख में। सुखे सुखि = सुख ही सुख में। जितु = जिस द्वारा। अर्थ: (जीभ से) पढ़ पढ़ के (पर) माया के मोह के स्वाद में पंडित लोग वेदों की व्याख्या करते हैं। (वेद पाठी होते हुए भी) जो मनुष्य माया के प्यार में हरी का नाम विसारता है, उस मन के मूर्ख को दण्ड मिलता है। (क्योंकि) जिस हरी ने जिंद और शरीर (भाव, मनुष्य जन्म) बख्शा है और जो रिजक पहॅुंचाता है उसे वह कभी याद भी नहीं करता, जम की फांसी उसके गले से कभी काटी नहीं जाती और मुड़ मुड़ के वह पैदा होता मरता है। अंधे मनमुख को कुछ समझ नहीं आती, और (पहले किए कर्मों के अनुसार जो संस्कार अपने हृदय से) लिखता रहा है, (उनके अनुसार ही अब भी) वैसे काम किए जाता है। (जिस मनुष्य को) सौभाग्यवश सुखदाता सतिगुरू मिल जाता है, नाम उसके मन में आ बसता है। (गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य) आत्मिक आनंद का सुख भोगते हैं। (दुनिया का खाना) माणना (उनके वास्ते) आत्मिक आनंद ही है, और (उनकी उम्र) पूरी तरह सुख में ही व्यतीत होती है। हे नानक! ऐसा (सुखदाई) नाम मन में से विसारना ठीक नहीं, जिस से सच्ची दरगाह में शोभा मिलती है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |