श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 90 मः ३ ॥ सबदि रती सोहागणी सतिगुर कै भाइ पिआरि ॥ सदा रावे पिरु आपणा सचै प्रेमि पिआरि ॥ अति सुआलिउ सुंदरी सोभावंती नारि ॥ नानक नामि सोहागणी मेली मेलणहारि ॥२॥ {पन्ना 90} उच्चारण: सबदि–सबद। भाइ–भाय। पिआरि–पिआर। पिरु–पिर। प्रेमि–प्रेम। पिआरि–पिआर। नामि–नाम। मेलणहारि–मेलणहार। पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। सुआलिओ = सुंदर रूप वाली। (शब्द ‘सुआलिओ’ का अर्थ है ‘सुंदर रूप वाला’। दोनों में अंदर ध्यान देने वाला है)। मेलणहारि = मेलणहार ने। अर्थ: जीवित पति वाली (गुरमुख जीव) स्त्री (वह है जो) गुरू के शबद द्वारा सतिगुरू के प्रेम प्यार में सदा अपने हरी पति (की याद) का आनन्द लेती है। वह सुंदर नारी बहुत सुहाने रूप वाली व शोभा वाली है। हे नानक! नाम में (जुड़ी होने करके) (गुरमुख) सुहागन को मेलणहार हरी ने (अपने में) मिला लिया है।2। पउड़ी ॥ हरि तेरी सभ करहि उसतति जिनि फाथे काढिआ ॥ हरि तुधनो करहि सभ नमसकारु जिनि पापै ते राखिआ ॥ हरि निमाणिआ तूं माणु हरि डाढी हूं तूं डाढिआ ॥ हरि अहंकारीआ मारि निवाए मनमुख मूड़ साधिआ ॥ हरि भगता देइ वडिआई गरीब अनाथिआ ॥१७॥ {पन्ना 90} उच्चारण: सभि–सभ। नमसकारु–नमसकार। निमाणिआ–निमाणिआं। अहंकारीआ–अहंकारीआं। देइ–देय। पद्अर्थ: साधिआ = सीधे राह पर डालता है। अनाथ = जिनका और कोई सहारा नहीं है। अर्थ: हे प्रभू! सब जीव तेरी (ही) सिफत सलाह करते हैं, जिनको तूने (उन्हें माया में) फंसे हुओं को निकाला है। हे हरी! सब जीव तेरे आगे सिर निवाते हैं, जिसे तूने (उनको) पापों से बचाया है। हे हरी! जिन्हें कहीं आदर नहीं मिलता, तू उनका मान बनता है। हे हरी! तू सर्वश्रेष्ठ है। (हे भाई!) प्रभू अहंकारियों को मार के (भाव, विपता में डाल के) झुकाता है, और मूर्ख मनमुखों को सीधे राह डालता है। प्रभू गरीब व अनाथ भगतों को आदर बख्शता है।17। सलोक मः ३ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिसु वडिआई वडी होइ ॥ हरि का नामु उतमु मनि वसै मेटि न सकै कोइ ॥ किरपा करे जिसु आपणी तिसु करमि परापति होइ ॥ नानक कारणु करते वसि है गुरमुखि बूझै कोइ ॥१॥ {पन्ना 90} उच्चारण: तिसु–तिस। होइ–होय। नामु–नाम। उतमु–उत्तम। मनि–मन। कोइ–कोय। जिसु–जिस। तिसु–तिस। करमि–करम। परापति–परापत। होइ–होय। कारणु–कारण। कोइ–कोय। पद्अर्थ: भाणै = हुकम में। वडिआई = आदर। मनि = मन में। करमि = बख्शिश से। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू के भाणे में जीवन व्यतीत करता है, उसका (हरी की दरगाह में) बड़ा आदर होता है, प्रभू का उत्तम नाम उस के मन में घर करता है (टिकता है)। और कोई (मायावी पदार्थ उत्तम ‘नाम’ के संस्कारों को उसके हृदय में से) दूर नहीं कर सकता। (पर नाम प्राप्ति का कारण, भाव भाणा मानने का उद्यम, मनुष्य के अपने वश में नहीं), कोई गुरमुख जीव ही समझता है, कि जिस पे (हरी खुद) अपनी मेहर करे, उस को उस मेहर सदका (उत्तम नाम) प्राप्त होता है, (क्योंकि) हे नानक! कारण सृजनहार के बस में है।1। मः ३ ॥ नानक हरि नामु जिनी आराधिआ अनदिनु हरि लिव तार ॥ माइआ बंदी खसम की तिन अगै कमावै कार ॥ पूरै पूरा करि छोडिआ हुकमि सवारणहार ॥ गुर परसादी जिनि बुझिआ तिनि पाइआ मोख दुआरु ॥ मनमुख हुकमु न जाणनी तिन मारे जम जंदारु ॥ गुरमुखि जिनी अराधिआ तिनी तरिआ भउजलु संसारु ॥ सभि अउगण गुणी मिटाइआ गुरु आपे बखसणहारु ॥२॥ {पन्ना 90} उच्चारण: नामु–नाम। अनदिनु–अनदिन। माइआ–मायआ। हुकमि हुकम। पाइआ–पायआ। दुआरु–दुआर। हुकमु–हुकम। जंदारु–जंदार। भउजलु–भउजल। संसारु–संसार। मिटाइआ–मिटायआ। गुरु–गुर। बखशणहारु–बखशणहार। पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। लिव तार = एक रस। बंदी = दासी। पूरै = पूरे (गुरू) ने। हुकमि सवारणहार = सवाँरनहार के हुकम में। मोख = मोक्ष माया के बंधनों से खलासी। जंदारु = जंदाल, जालिम। गुणी = गुणों से। अर्थ: हे नानक! जिन्होंने हर रोज एक रस प्रभू के नाम का सिमरन किया है, पति प्रभू की दासी माया उनकी सेवा में रहती है (भाव, वे लोग माया के पीछे नही घूमते, माया उनकी सेवक बनती है), (क्योंकि) सवाँरनेवाले (प्रभू) के हुकम में पूरे (गुरू) ने उन्हें पूर्ण कर दिया है (और वे माया के पीछे डोलते नहीं) सतिगुरू की कृपा से जिसने (ये भेद) समझ लिया है, उसने मुक्ति का दर ढूँढ लिया है। मनमुख लोग (प्रभू का) हुकम नहीं पहचानते, (इस करके) उन्हें जालिम जम दंड देता है। गुरू के सन्मुख हो के जिन्होंने सिमरन किया, वे संसार सागर से तर गए हैं, (क्योंकि सतिगुरू ने) गुणों से (अर्थात, उनके हृदय में गुण प्रगट करके उनके) सारे अवगुण मिटा दिये हैं। गुरू बड़ा बख्शिंद है।2। पउड़ी ॥ हरि की भगता परतीति हरि सभ किछु जाणदा ॥ हरि जेवडु नाही कोई जाणु हरि धरमु बीचारदा ॥ काड़ा अंदेसा किउ कीजै जा नाही अधरमि मारदा ॥ सचा साहिबु सचु निआउ पापी नरु हारदा ॥ सालाहिहु भगतहु कर जोड़ि हरि भगत जन तारदा ॥१८॥ {पन्ना 90} उच्चारण: परतीति–परतीत। सभु–सभ। किछु–किछ। जेवडु–जेवड। जाणु–जाण। धरमु–धर्म। अधरमि–अधर्म। साहिबु–साहिब। सचु–सच। नरु–नर। पद्अर्थ: परतीति = भरोसा। जेवडु = जितना, बराबर का। जाणु = जानकार, जानने वाला। धरमु = न्याय की बात। काढ़ा = फिक्र, चिंता। अंदेसा = डर। अधरमि = अन्याय के साथ। सचा = सदा स्थिर, अटॅल, अभुल। कर जोड़ि = हाथ जोड़ के, विनम्रता से। अर्थ: भगत जनों को प्रभू पे (ये) भरोसा है कि प्रभू अंतरजामी है, उसके बराबर और कोई (दिलों की) जानने वाला नहीं, (और इसलिए) प्रभू न्याय की विचार करता है। यदि (ये भरोसा हो कि) प्रभू अन्याय से नहीं मारता, तो कोई फिक्र डर नहीं रहता। प्रभू खुद अभॅुल है और उसका न्याय भी अभॅुल है, (इस ‘मार’ के सदके ही) पापी मनुष्य (पापों से) तौबा करता है। हे भगत जनों! विनम्र हो के प्रभू की सिफत सलाह करो, प्रभू अपने भक्तों को विकारों से बचा लेता है।18। सलोक मः ३ ॥ आपणे प्रीतम मिलि रहा अंतरि रखा उरि धारि ॥ सालाही सो प्रभ सदा सदा गुर कै हेति पिआरि ॥ नानक जिसु नदरि करे तिसु मेलि लए साई सुहागणि नारि ॥१॥ {पन्ना 90} उच्चारण: अंतरि–अंतर। उरि–उर। धारि–धार। पिआरि–पिआर। जिसु–जिस। तिसु–तिस। पद्अर्थ: उरि = हृदय में। सालाही = मैं सिफत करूँ। गुर कै हेति = गुरू के (पैदा किये) प्यार से। सुहागणि = जीवित पति वाली। अर्थ: (मन चाहता है कि) अपने प्यारे को (सदा) मिली रहूँ, अंदर दिल में परो के रखूँ और सतिगुरू के लगाए प्रेम में सदा उस प्रभू की सिफत सलाह करती रहूँ। (पर) हे नानक! जिस तरफ (वह प्यारा प्यार से) देखता है, उस को (ही अपने साथ) मेलता है, और वही स्त्री सुहागन (जीवित पति वाली) कहलाती है।1। मः ३ ॥ गुर सेवा ते हरि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥ माणस ते देवते भए धिआइआ नामु हरे ॥ हउमै मारि मिलाइअनु गुर कै सबदि तरे ॥ नानक सहजि समाइअनु हरि आपणी क्रिपा करे ॥२॥ {पन्ना 90} उच्चारण: नदरि–नदर। करेइ–करेय। धिआइआ–धिआयआ। नामु–नाम। मिलाइअनु–मिलायन। समाइअनु–समायन। पद्अर्थ: मिलाइअनु = मिलाए हैं उस प्रभू ने। सहिज = अडोलता में। समाइअनु = लीन किए हैं उस प्रभू ने। क्रिपा करे = कृपा करके। करे = कर के। अर्थ: प्रभू जिस (जीव) पर मेहर की नजर करता है, वह (जीव) सतिगुरू की बतायी कृत करके प्रभू से मिल जाता है। हरी नाम का सिमरन करके जीव मनुष्य (-स्वभाव) से देवताबन जाते हैं। जिनका अहम् दूर करके उस प्रभू ने अपने साथ मिलाया है, वह गुरू के शबदों के द्वारा विकारों से बच जाते हैं। हे नानक! प्रभू ने अपनी मेहर करके उन्हें अडोल अवस्था में टिका दिया।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |