श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ हरि आपणी भगति कराइ वडिआई वेखालीअनु ॥ आपणी आपि करे परतीति आपे सेव घालीअनु ॥ हरि भगता नो देइ अनंदु थिरु घरी बहालिअनु ॥ पापीआ नो न देई थिरु रहणि चुणि नरक घोरि चालिअनु ॥ हरि भगता नो देइ पिआरु करि अंगु निसतारिअनु ॥१९॥ {पन्ना 91}

उच्चारण: भगति–भगत। कराइ–कराय। वेखालीअनु–वेखालीअन। आपि–आप। घालीअनु–घालीअन। देइ–देय। अनंदु–अनंद। थिरु–थिर। बहालीअनु–बहालीअन। चुणि–चुण। घोरि–घोर। चालीअनु–चालीअन। पिआरु–पिआर। अंगु–अंग। निसतारीअनु–निसतारीअन।

पद्अर्थ: वेखालीअनु = दिखाई है उसने। घालीअनु = मेहनत कराई है उसने। बहालीअनु = बैठाए हैं उसने। चालीअनु = चलाए हैं उसने। निसतारीअनु = निस्तारा किया, पार उतारे हैं उसने। (देखें: ‘गुरबाणी व्याकरण’)

अर्थ: प्रभू ने (भगत जनों से) स्वयं ही अपनी भक्ति कराके (भगती की बरकति से उनको अपनी) वडिआई दिखाई है। प्रभू (भगतों के दिल में) अपना भरोसा स्वयं (उत्पन्न) करता है तथा उनसे स्वयं ही सेवा उसने कराई है। (भगतों को अपने भजन का) आनंद (भी) स्वयं ही बख्शता है (और इस तरह उनको) हृदय में अडोल बैठा रखा है। (पर) पापियों को अडोल चिक्त नहीं रहने देता, चुन के (उनको) घोर नर्क में डाल दिया है। भगत जनों को प्यार करता है, (उनका) पक्ष करके उसने खुद उनको (विकारों से) बचाया है।19।

सलोक मः १ ॥ कुबुधि डूमणी कुदइआ कसाइणि पर निंदा घट चूहड़ी मुठी क्रोधि चंडालि ॥ कारी कढी किआ थीऐ जां चारे बैठीआ नालि ॥ सचु संजमु करणी कारां नावणु नाउ जपेही ॥ नानक अगै ऊतम सेई जि पापां पंदि न देही ॥१॥ {पन्ना 91}

उच्चारण: कुदइआ–कुदयआ। चंडालि–चंडाल। नालि–नाल। सचु–सच। संजम–संजम। नावणु–नावण।

अर्थ: कुबुद्धि (मनुष्य के अंदर की) मरासणि (डूमणी) है। बे-तरस कसाइण है। पर निंदा अंदर की चूहड़ी (गंदगी) है, और क्रोध चण्डालण (है जिस) ने (जीव के शांत स्वभाव को) ठॅग रखा है। यदि ये चारों भीतर ही बैठी हों, तो (बाहर चौका स्वच्छ रखने के लिए) लकीरें खींचने का क्या लाभ? हे नानक! जो मनुष्य ‘सच’ को (चौका स्वच्छ करने की) जुगति बनाते हैं, उच्च आचरण को (चौके की) लकीरें बनाते हैं, जो नाम जपते हैं और इसको (तीर्थ) स्नान समझते हैं, जो औरों को भी पापों वाली शिक्षा नहीं देते, वह मनुष्य प्रभू की हजूरी में अच्छे गिने जाते हैं।1।

मः १ ॥ किआ हंसु किआ बगुला जा कउ नदरि करेइ ॥ जो तिसु भावै नानका कागहु हंसु करेइ ॥२॥ {पन्ना 91}

अर्थ: जिस ओर (प्रभू) प्यार से देखे उसका बगुला (-पन, भाव, पाखण्ड दूर होना) क्या मुश्किल है और उसका हंस (भाव, उज्जवल मति) बनना क्या (मुश्किल है) ? हे नानक! अगर प्रभू चाहे (तो वह बाहर से अच्छे दिखने वाले की तो क्या बात) कौए को भी ( अर्थात, अंदर से गंदे आचरण वाले को भी उज्जवल बुद्धि) हंस बना देता है।2।

पउड़ी ॥ कीता लोड़ीऐ कमु सु हरि पहि आखीऐ ॥ कारजु देइ सवारि सतिगुर सचु साखीऐ ॥ संता संगि निधानु अम्रितु चाखीऐ ॥ भै भंजन मिहरवान दास की राखीऐ ॥ नानक हरि गुण गाइ अलखु प्रभु लाखीऐ ॥२०॥ {पन्ना 91}

उच्चारण: कंमु–कंम। कारजु–कारज। देइ–देय। सवारि–सवार। सचु–सच। संगि–संग। निधानु–निधान। अंम्रितु–अंम्रित। गाइ–गाए।

पद्अर्थ: सतिगुर साखीअै = गुरू की शिक्षा से। संगि = संगति में। निधानु = खजाना। मिहरवान = हे मेहरवान। गुण गाइ = गुण गा के। लाखीअै = समझ लेते हैं। सचु = सदा स्थिर प्रभू।

अर्थ: जिस काम को सिरे चढ़ाने की इच्छा हो, उसकी (पूर्णता के लिए) प्रभू के पास विनती करनी चाहिए, (इस तरह) सतिगुरू की शिक्षा से सदा स्थिर प्रभू कार्य सवार देता है। संतों की संगति में नाम खजाना मिलता है, और आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल चख सकते हैं। (सो यह बिनती करनी चाहिए कि) हे डर नाश करने वाले और दया करने वाले हरी! दास की लाज रख! दास की लाज रख लो! हे नानक! (इस तरह) प्रभू की सिफत सलाह करने से अलॅख प्रभू के साथ सांझ डाल लेते हैं।20।

सलोक मः ३ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का सभसै देइ अधारु ॥ नानक गुरमुखि सेवीऐ सदा सदा दातारु ॥ हउ बलिहारी तिन कउ जिनि धिआइआ हरि निरंकारु ॥ ओना के मुख सद उजले ओना नो सभु जगतु करे नमसकारु ॥१॥ {पन्ना 91}

उच्चारण: सभु–सभ। देइ–देय। अधारु–अधार। दातारु–दातार। धिआइआ–धिआयआ। निरंकारु–निरंकार। जगतु–जगत। नमसकारु–नमसकार।

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।

अर्थ: जो हरी सब जीवों को धरवासा देता है, ये जिंद और शरीर सब कुछ उसी का (दिया हुआ) है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रह के (ऐसे) दातार की नित्य सेवा करनी चाहिए। सदके हूँ उनसे, जिन्होंने निरंकार हरी का सिमरन किया है। उनके मुख सदा खिले रहते हैं और सारा संसार उनके आगे सिर निवाता है।1।

मः ३ ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई नव निधि खरचिउ खाउ ॥ अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरनि निज घरि वसै निज थाइ ॥ अनहद धुनी सद वजदे उनमनि हरि लिव लाइ ॥ नानक हरि भगति तिना कै मनि वसै जिन मसतकि लिखिआ धुरि पाइ ॥२॥ {पन्ना 91}

उच्चारण: थाइ–थाय। लाइ–लाय। मनि–मन। पाइ–पाय।

पद्अर्थ: नउनिधि = पुरातन संस्कृत पुस्तकों में धन का देवता कुबेर माना गया है. उसका ठिकाना कैलाश पर्वत बताया गया है. उसके खजानों का गिनती 9 बताई गई है, जो इस प्रकार है: (महापद्यश्च पद्यश्च शंखोमकरकच्छपौ। मुकुन्द कुन्द नीलाश्च खर्वश्च निधयो नव) अर्थात, महा पद्म, पद्म,शंख, मकर, कश्यप, मुकुंद, कुंद, नील, खरव। अनहद = एक रस। धुनी = सुर, सिमरन की रौंअ। अनहद धुनी वजदे = (उसके अंदर) एक रस टिके रहने वाली सुर वाले बाजे बजते हैं।

अर्थ: अगर गुरू मिल जाए, तो मनुष्य की सुरति माया की ओर से हट जाती है। (ऐसे मनुष्य को) खाने-खरचने के लिए जैसे सारी ही माया मिल जाती है। अठारह (ही) सिद्धियां (भाव, आत्मिक शक्तियां) उसके पीछे लगी फिरती हैं (पर वह परवाह नहीं करता और) अपने हृदय में अडोल रहता है। सहज स्वभाव एक रस उसके अंदर सिमरन की रौंअ चलती रहती है और प्यार की तांघ मेंवह हरी के साथ बिरती जोड़े रखता है। हे नानक! हरी की (ऐसी) भगती उनके हृदय में बसती है जिनके मस्तक पे (पिछली भक्ति वाले किए कामों के संस्कारों के अनुसार) धुर से ही (भक्ति वाले संस्कार) लिखे पड़े हैं।2।

पउड़ी ॥ हउ ढाढी हरि प्रभ खसम का हरि कै दरि आइआ ॥ हरि अंदरि सुणी पूकार ढाढी मुखि लाइआ ॥ हरि पुछिआ ढाढी सदि कै कितु अरथि तूं आइआ ॥ नित देवहु दानु दइआल प्रभ हरि नामु धिआइआ ॥ हरि दातै हरि नामु जपाइआ नानकु पैनाइआ ॥२१॥१॥ सुधु {पन्ना 91}

उच्चारण: आइआ–आयआ। लाइआ–लायआ। दानु–दान। दइआल–दयआल। धिआइआ–धिआयआ। नाम–नाम। जपाइआ–जपायआ। पैनाइआ–पैनायआ।

पद्अर्थ: पैनाइआ = आदर मिलना।

अर्थ: मैं प्रभू पति का ढाढी प्रभू के दर पर पहुँचा, प्रभू के दरबार में मुझढाढी की पुकार सुनी गयीऔर मुझे दर्शन हुए। मुझढाढी को हरी ने बुला के, पूछा, हे ढाढी! तू किस काम के लिए आया है? (मैंने बेनती की) ‘हे दयालू प्रभू सदा (यही दान बख्शो कि) तेरे नाम का सिमरन करूँ’। (विनती सुन के) दातार हरी ने अपना नाम मुझसे जपाया और मुझे नानक को आदर (भी) दी।21।1। सुधु।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh