श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सिरीरागु
कबीर जीउ का ॥ एकु सुआनु कै घरि गावणा    

जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥ मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥ ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥ कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ ॥ कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥ रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥ जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥ भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥ उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥ गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥ इतु संगति नाही मरणा ॥ हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥ {पन्ना 92}

उच्चारण: ऐकु–एक। सुआनु–सुआन। घरि–घर। होतु–होत। घटतु–घट्त। लाडु–लाड। लाइआ–लायआ। माइआ–मायआ। सागरु–सागर। लाडु–लाड। भरमु–भरम। जाइ–जाय। सहजु–सहज। इतु–इत।

नोट: ‘ऐक सुआन’ कै घरि गावणा– कबीर जी का यह शबद उस ‘घर’ में गाना है जिस घर में वह शबद गाना है जिसकी पहली तुक है ‘ऐक सुआनु दुइ सुआनी नालि’। ये शबद गुरू नानक देव जी का है सिरी राग में दर्ज है नंबर 29।

कै घरि–केघर में। अगर संबोधक ‘कै’ का संबंध शब्द ‘सुआन’ के साथ होता, तो इस शब्द के आखिर में मात्रा ‘ु’ ना होती। इससे ये सिद्ध होता है कि ‘ऐकु सुआनु’ से भाव है वह सारा शबद जिसके शुरू में ये लफ्ज हैं।

‘जननी जानत’ शबद कबीर जी का है, पर इसे गाने के लिए जिस शबद की तरफ इशारा है वह गुरू नानक देव जी का है। सो, यह शीर्षक ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा॥’ कबीर जी का नहीं हो सकता।

इस शबद के शीर्षक के साथ लफ्ज ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा॥’ क्यूँ बरते गए हैं? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने के वास्ते सतिगुरू नानक देव जी का वह शबद पढ़ के देखें, जिसके आरम्भ के शब्द हैं “ऐकु सुआनु”।

सिरी रागु महला १ घरु ४॥ ऐकु सुआनु दुइ सुआनी नालि॥ भलके भउकहि सदा बइआलि॥ कूड़ु छुरा मुठा मुरदारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥१॥ मै पति की पंदि न करणी की कार॥ हउ बिगड़ै रूपि रहा बिकराल॥ तेरा ऐकु नामु तारे संसारु॥ मै ऐहा आस ऐहो आधारु॥१॥ रहाउ॥ मुखि निंदा आखा दिन राति॥ पर घरु जोही नीच सनाति॥ कामु क्रोधु तनि वसहि चंडाल॥ धाणक रूपि रहा करतार॥२॥ फाही सुरति मलूकी वेसु॥ हउ ठगवाड़ा ठगी देसु॥ खरा सिआणा बहुता भारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥३॥ मै कीता न जाता हरामखोरु॥ हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु॥ नानकु नाचु कहै बीचारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥४॥२९॥ (पन्ना२४)

कबीर जी ने अपने शबद में लिखा है “इतु संगति निहचउ मरणा॥ ” अर्थात, वह कौन सी ‘संगति’ है जिस करके ‘निहचउ मरणा’ होता है?कबीर जी ने इसके उत्तर में सिर्फ शब्द ‘माया’ या ‘बिखिआ रस’ बरते हैं। ‘माया’ का क्या स्वरूप है? वे ‘बिखिआ रस’ कौन से हैं? इसका खुलासा कबीर जी ने नहीं किया। अब पढ़ेंगुरू नानक देव जी का ये उपरोक्त शबद – सुआन, सुआनी, कूड़, मुरदारु, निंदा, पर घरु, कामु, क्रोधु आदि ये सारे ‘बिखिया’ के ‘रस’ हैं जिनकी संगति में ‘निहचउ मरणा’ है। क्योंकि, ये इन रसों के वश में पड़ा जीव ‘धाणक रूप” रहता है। जो बात कबीर जी ने मात्र इशारे से ‘बिखिआ रस’ के संदर्भ दे के की है, गुरू नानक देव जी ने विस्तार से एक सुंदर ढंग में इस सारे शबद के द्वारा खोल के बतायी है।

‘शीर्षक’ की सांझ और मजमून की सांझ हमें इस नतीजे पर पहुँचाती है कि गुरू नानक देव जी ने अपना ये शबद कबीर जी के शबद की व्याख्या में उचारा है। कबीर जी का ये शबद सतिगुरू जी के पास मौजूद था।

ये शीर्षक ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा॥’ भी गुरू नानक देव जी का भी हो सकता है, या गुरू अरजन साहिब जी का। कबीर जी का किसी हालत में नहीं है।

नोट: शब्द ‘घर’ का संबंध ‘गाने’ से है, इसमें रागियों के लिए हिदायत है, इसका संबंध शब्द ‘महला’ के साथ नहीं है। इसलिए शब्द ‘घर’ का संबंध शब्द ‘महला’ के साथ समझ के उसका उच्चारण ‘महल्ला’ करना गलत है।

पद्अर्थ: जननी = मां। सुतु = पुत्र। इतना कु = इतनी बात। अवध = उम्र। दिन दिन = हर रोज, ज्यों ज्यों दिन बीतते हैं। मोर = मेरा। करि = करे, करती है। अधिक = बहुत। धरि = धरती है, करती है। पेखत ही = जैसे जैसे देखता है।1।

तैं = तू (हे प्रभू!)। भरमि = भुलेखे में। रहाउ।

बिखिआ रस = माया के स्वाद। इतु संगति = इस कुसंगत में, माया के रसों की संगत में। निहचउ = जरूर। मरणा = आत्मिक मौत। रमईआ = राम को। अनत = अनंत, अटॅल। अनत जीवण = अटॅल जिंदगी देने वाली। भव सागरु = संसार समुंद्र।2।

तिसु भावै = उस प्रभू को ठीक लगे। भाउ = प्रेम। भुलावा = भुलेखा। विचहु = मन में से। सहजु = वह अवस्था जिस में भटकन ना रहे, अडोलता। गिआन मति = गिआन वाली बुद्धि। अंतरि = हृदय में।3।

इतु संगति = इस संगति में, प्रभू के साथ जुड़ने वाली हालत में। मिलणा = मिलाप। रहाउ दूजा।

अर्थ: मां समझती है कि मेरा पुत्र बड़ा हो रहा है, पर वह इतनी बात नहीं समझती कि ज्यों ज्यों दिन बीत रहे हैं इसकी उम्र घट रही है। वह ये कहती है “ये मेरा पुत्र है, ये मेरा पुत्र है” (और उसके साथ) बहुत लाड करती है। (मां की इस ममता को) देख देख के यमराज हसता है।1।

(हे प्रभू!) इस तरह तूने जगत को भुलेखे में डाला हुआ है। माया द्वारा ठगे हुए जीव को ये समझ नहीं आता (कि मैं भुलावे में फंसा हुआ हूँ)।1।

कबीर कहता है– हे प्राणी! माया के चस्के छोड़ दे, इन रसों के साथ लगने से जरूर आत्मिक मौत होती है (भाव, आत्मा मुर्दा हो जाती है); (प्रभू के भजन वाली ये) बाणी (मनुष्य को) अटॅल जीवन बख्शती है। इस तरह संसार समुंद्र को तैर जाते हैं।2।

(पर) यदि उस प्रभू को ठीक लगे तब ही (जीव का) प्यार उससे पड़ता है और (इस के) मन में से भरम और भुलेखा दूर होता है। (जीव के अंदर) अडोलता की हालत पैदा होती है। ज्ञान वाली बुद्धि प्रगट हो जाती है और गुरू की मेहर से इसके हृदय में प्रभू के साथ जोड़ जुड़ जाता है।3।

प्रभू के साथ चिक्त जोड़ने से आत्मिक मौत नहीं होती, (क्योंकि, ज्यों ज्यों जीव प्रभू के) हुकम को पहिचानता है, तो प्रभू के साथ इसका मिलाप हो जाता है।1। रहाउ दूजा।

शबद का भाव: जीव के भी क्या वश? प्रभू ने स्वयं ही जीवों को माया के मोह में फंसाया हुआ है, इस मोह में पड़े मनुष्य की आत्मा मुर्दा हो रही है।

पर अगर करतार मेहर करे, गुरू से मिला दे, तो माया का मोह अंदर से दूर हो जाता है, प्रभू के साथ डोर जुड़ जाती है, मन अडोल हो जाता है, दाते की रजा की समझ पड़ जाती है और आत्मा गिरावट रूपी मौत के चुंगल से बच निकलती है।

नोट: आम तौर पे हरेक शबद में ‘रहाउ’ एक ही होता है, उसी में सारे शबद का केन्द्रिय भाव होता है। पर इस शबद में दो ‘रहाउ’ हैं पहिले में प्रश्न किया गया है कि जीव को कैसे समझ आये कि मै भटक रहा हूँ? इसका उक्तर दूसरे ‘रहाउ’ में दिया गया है कि रजा को समझ के रजा वाले में मिल जाना है।

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सिरीरागु त्रिलोचन का ॥ माइआ मोहु मनि आगलड़ा प्राणी जरा मरणु भउ विसरि गइआ ॥ कुट्मबु देखि बिगसहि कमला जिउ पर घरि जोहहि कपट नरा ॥१॥ दूड़ा आइओहि जमहि तणा ॥ तिन आगलड़ै मै रहणु न जाइ ॥ कोई कोई साजणु आइ कहै ॥ मिलु मेरे बीठुला लै बाहड़ी वलाइ ॥ मिलु मेरे रमईआ मै लेहि छडाइ ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक अनिक भोग राज बिसरे प्राणी संसार सागर पै अमरु भइआ ॥ माइआ मूठा चेतसि नाही जनमु गवाइओ आलसीआ ॥२॥ बिखम घोर पंथि चालणा प्राणी रवि ससि तह न प्रवेसं ॥ माइआ मोहु तब बिसरि गइआ जां तजीअले संसारं ॥३॥ आजु मेरै मनि प्रगटु भइआ है पेखीअले धरमराओ ॥ तह कर दल करनि महाबली तिन आगलड़ै मै रहणु न जाइ ॥४॥ जे को मूं उपदेसु करतु है ता वणि त्रिणि रतड़ा नाराइणा ॥ ऐ जी तूं आपे सभ किछु जाणदा बदति त्रिलोचनु रामईआ ॥५॥२॥ {पन्ना 92}

उच्चारण:माइआ–मायआ। मोहु–मोह। मनि–मन। मरणु–मरण। गइआ–गयआ। कुटंबु–कुटंब। आइओहि–आयोहि। रहणु–रहण। जाइ–जाय। साजणु–साजण। आइ–आय। मिलु–मिल। वलाइ–वलाय। छडाइ–छडाय। अमरु–अमर। भइआ–भयआ। माइआ–माया। गइआ–गया। प्रगटु–प्रगट। भइआ–भया। जाइ–जाय।

पद्अर्थ: मनि = मन में। आगलड़ा = बहुता। जरा = बुढ़ापा। बिगसहि = तू प्रसन्न होता है। कमला जीउ = कमल के फूल की तरह। पर घरि = पराए घर में। जोहहि = तू तोलता है, जांचता है, ताड़ता है। कपट नरा = हे खोटे मनुष्य!।1।

दूड़ा आइओहि = दौड़े आ रहे हैं। जमहि तणा = यम के पुत्र, जमदूत। तिन आगलड़ै = उन (जमदूतों) के सामने। कोई कोई = गिने चुने। साजणु = संत जन। बाहड़ी वलाइ = बांहें वल के, गले लगा के। बीठलु = हे बीठल! हे प्रभू! हे माया रहित प्रभू! (वि+स्थल)। मै = मुझसे।1। रहाउ।

पै = में। अमरु = ना मरने वाला। मुठा = ठगा हुआ। चेतसि नाही = तू याद नहीं करता (हरी को)।2।

बिखम घोर पंथि = बहुत अंधकार भरे रास्ते पर। रवि = सूर्य। ससि = चंद्रमा। प्रवेसं = दखल। तजीअले = छोड़ा।3।

पेखीअले = देखा है। तह = वहां, धर्मराज की हजूरी में। कर = हाथों से। दल करनि = दलन कर देते हैं, दल देते हैं।4।

जे को = जब कोई। मूं = मुझे। वणि = बन में। त्रिणि = तिनके में। वणि त्रिणि = सब जगह। रतड़ा = रविआ हुआ, व्यापक है। अै जी रमईआ = हे सुंदर राम जी! बदति = कहता है।5।

अर्थ: हे प्राणी! तेरे मन में माया का मोह बहुत (जोरों में) है। तुझे ये डर नहीं रहा कि बुढ़ापा आना है, मौत आनी है। हे खोटे मनुष्य! तू अपने परिवार को देख के ऐसे खुश होता है जैसे कमल का फूल (सूरज को देख के), तू पराए घर में ताकता फिरता है।1।

कोई विरला संत जन (जगत में) आ के इस तरह विनती करता है– हे प्रभू! मुझे मिल, गले लगा के मिल। हे मेरे राम! मुझे मिल, मुझे (माया के मोह से) छुड़ा ले। जमदूत तेजी से आ रहे हैं, उनके सामने मुझसे (पल मात्र भी) अटका नहीं जा सकेगा।1। रहाउ।

हे प्राणी! माया के अनेकों भोगों व प्रताप के कारण तू (प्रभू को) भुला बैठा है, (तू समझता है कि) इस संसार समुंदर में (मैं) सदा कायम रहूँगा। माया का ठॅगा हुआ तू (प्रभू को) नहीं सिमरता। हे आलसी मनुष्य! तूने अपना जन्म बेकार गवा लिया है।2।

हे प्राणी! तू (माया के मोह के) ऐसे गहरे अंधकार भरे रास्ते पर चल रहा है, जहाँ ना सूरज का दखल है ना चंद्रमा का (अर्थात, जहाँ तुझे ना दिन में सुरति आती है ना ही रात को)। जब (मरने के वक्त) संसार को छोड़ने लगो, तब तो माया का ये मोह (भाव, संबंध अवश्य) छोड़ेगा ही (तो फिर अभी क्यों नहीं?)।3।

(कोई बिरला संतजन कहता है–) मेरे मन में ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि (माया में फंसे रहने से) धर्मराज (का मुंह) देखना पड़ेगा। वहां तो बड़े बड़े बलवानों को भी जमदूत हाथों से दल देते हैं, मेरी तो उनके आगे कोई पेश नहीं चल सकेगी।4।

(वैसे तो) हे नारायण! (तू कभी याद नहीं आता, पर) जब कोई (गुरमुखि) मुझे शिक्षा देता है, तो तू सब जगह व्यापक दिखाई देने लग पड़ता है। हे राम जी! तेरीआं तू ही जाने - मेरी त्रिलोचन की यही बिनती है।5।2।

शबद का भाव: जीव माया के मोह में पूरी तरह फंसे हुए हैं, किसी को ना मौत चेते है ना ही परमात्मा। पदार्थों के रसों मे लिप्त हुए समझते हैं, हमने कभी मरना नहीं और मानस जनम बेकार गवां रहे हैं। ये ख्याल नहीं आता कि एक दिन ये जगत छोड़ना ही पड़ेगा और इस बद्-मस्ती के कारण जमों का दण्ड सहना ही पड़ेगा।

पर हां, कोई गिने चुने भाग्यशाली हैं जो इस अंत समय को याद रख के प्रभू के दर पर अरजोई करते हैं और उसे मिलने की तमन्ना करते हैं।

नोट: त्रिलोचन जी ने शब्द ‘बीठला’ बरता है, उसी को वे ‘वणि त्रिणि रतड़ा नारायणा” और “रामईआ” कहते हैं। शब्द ‘बीठल’ संस्कृत के शब्द ‘विष्ठल’ का प्राक्रित रूप है। वि+स्थल। वि–परे, माया से परे। स्थल–टिका हुआ है। इसी तरह ‘विष्ठल’ या ‘वीठला’ – वह प्रभू जो माया के प्रभाव से दूर परे टिका हुआ है। ये शब्द सतिगुरू जी ने भी कई बार बरता है, और सर्व–व्यापक परमात्मा के वास्ते ही बरता है।

भगत–बाणी को गुरमति के विरुद्ध समझने वाले एक सज्जन ने त्रिलोचन जी के बारे में यूँ लिखा है – ‘भगत त्रिलोचन जी बारसी नामी नगर (जिला शैलापुर) महाराष्ट्र के रहने वाले थे। आप का जन्म संवत् 1267 बिक्रमी के इर्द गिर्द हुआ है। साबित होता है कि भगत नाम देव जी के साथ इनका मिलाप हुआ रहा है। भगत–मार्ग का ज्ञान भी इन्होंने नामदेव जी से ही प्राप्त किया था।

“आप जी के पाँच शबद भगत बाणी के रूप में छापे वाली बीड़ के अंदर पढ़ने में आते हैं, जो दो गूजरी राग में, एक सिरी राग के अंदर और एक धनासरी राग में है। भगत जी के श्लोक भी हैं। आप भी नामदेव जी की तरह बीठल मूर्ती के ही पुजारी थे।.....भगत जी के पाँचों शबद गुरमति के किसी भी आशय का प्रचार नहीं करते। भगत जी के कई सिद्धांत गुरमति से उलट हैं। भगत जी जिस कृष्ण भक्ति के श्रद्धालू थे, उस कृष्ण जी का गुरमति के अंदर पूर्ण खण्डन है।”

पाठकों के सामने शबद और शबद के अर्थ मौजूद हैं। शबद का भाव भी दिया गया है। लफ्ज ‘बीठल’ बारे नोट भी पेश किया गया है। जहाँ तक इस शबद का संबंध पड़ता है, पाठक सज्जन स्वयं ही निर्णय कर लें कि यहां कहीं कोई बात गुरमति के उलट है। भगत जी का ‘बीठल’ वह है जो ‘नारायण’ है और ‘वणि त्रिणि रतड़ा’ है। किसी भी खींच–घसीट से इसे मूर्ती नहीं कहा जा सकता।

स्रीरागु भगत कबीर जीउ का ॥ अचरज एकु सुनहु रे पंडीआ अब किछु कहनु न जाई ॥ सुरि नर गण गंध्रब जिनि मोहे त्रिभवण मेखुली लाई ॥१॥ राजा राम अनहद किंगुरी बाजै ॥ जा की दिसटि नाद लिव लागै ॥१॥ रहाउ ॥ भाठी गगनु सिंङिआ अरु चुंङिआ कनक कलस इकु पाइआ ॥ तिसु महि धार चुऐ अति निरमल रस महि रसन चुआइआ ॥२॥ एक जु बात अनूप बनी है पवन पिआला साजिआ ॥ तीनि भवन महि एको जोगी कहहु कवनु है राजा ॥३॥ ऐसे गिआन प्रगटिआ पुरखोतम कहु कबीर रंगि राता ॥ अउर दुनी सभ भरमि भुलानी मनु राम रसाइन माता ॥४॥३॥ {पन्ना 92}

उच्चारण:अचरजु–अचरज। कहनु–कहन। गगनु–गगन। अरु–अर। पाइआ–पाया। चुआइआ–चुआयआ। गिआनु–ज्ञान। मनु–मन।

पद्अर्थ: पंडीआ = हे पंडित! सुरि = देवते। गण = शिव के खास निजी सेवक। गंधर्व = देवतों के रागी। त्रिभवण = तीनों भवनों को, सारे जगत को। मेखुली = (माया की) तगाड़ी।1।

अनहद = एक रस, बिना यत्न करने के, बजाने के बिना। किंगुरी बाजै = किंगुरी बज रही है, राग हो रहा है। जा की = जिस (प्रभू) की। दिसटि = (कृपा की) दृष्टि। नाद लिव = शबद की लिव, शबद की ओर रुचि। रहाउ।

भाठी = भट्ठी, जहां शराब, अर्क आदि निकाला जाता है। गगनु = आकाश, दसवां द्वार, चिदाकाश, चिक्त+आकाश, दिमाग, जिस द्वारा प्रभू में सुरति जोड़ी जा सकती है। सिंञिआ चुंञिआ = दो नालियां जो अर्क या शराब निकालने के लिए बरती जाती हैं, एक नाली से अर्क निकलता है और दूसरी से फालतू पानी। कनक = सोना। कलसु = मटॅका, जिसमें अर्क या शराब टपक टपक के पड़ती जाती है। इकु = एक प्रभू। कनक कलसु = सोने का मटका, शुद्ध हृदय। तिसु महि = उस (सुनहरी) कलश में, शुद्ध हृदय में। धार = (नाम अमृत की) धारा। चुअै = टपक टपक के पड़ती है। रस महि रसन = सभी रसों से स्वादिष्ट रस, नाम अमृत। सिंञिआ चुंञिआ = भाव, बुरे कर्मों को त्यागना व अच्छे कर्मों को ग्रहण करना।2।

अनूप = अचरज, अनोखी। पवन = हवा, प्राण, स्वाश। साजिआ = मैने बनाया है। जोगी = मिला हुआ, व्यापक। तीनि भवन = सारे जगत में। राजा = ब्ड़ा।3।

अैसे = इस प्रकार जैसे ऊपर बताया है। पुरखोतम गिआनु = प्रभू का ज्ञान, रॅब की पहिचान। कहु = कह। कबीर = हे कबीर! रंगि = (प्रभू के) प्रेम में। राता = रंगा हुआ। अउर दुनी = बाकी के लोग। भरमि = भुलेखे में। मनु = (मेरा) मन। रसाइन = रस+आयन, रसों का घर। माता = मस्त।4।

अर्थ: हे पण्डित! उस अचरज प्रभू का एक चमत्कार सुनो! (जो मेरे साथ घटित हुआ है और जो) इस वक्त (ज्यूँ का त्यूँ ) कहा नहीं जा सकता। उस प्रभू ने सारे जगत को (माया की) तगाड़ी डाल के देवते, मनुष्य, गण और गंधर्वों को मोह के रखा है।1।

(वह आश्चर्यजनक चमत्कार ये है कि) जिस प्रकाश-रूपी प्रभू के मेहर की नजर से शबद में लिव लगती है, उस प्रभू की (मेरे अंदर) एक रस तार बज रही है1। रहाउ।

मेरा दिमाग भट्ठी बना हुआ है (भाव, सुरति प्रभू में जुड़ी हुई है), बुरे कामों से संकोच जैसे, फालतू पानी को बहाने की नाली है; और सद्गुणों का ग्रहण करना जैसे, (नाम रूपी) शराब निकालने वाली नाली (पाइप) है। और शुद्ध हृदय जैसे, सोने का मटका है। अब मैंने एक प्रभू को प्राप्त कर लिया है। मेरे शुद्ध हृदय में (नाम अमृत की) बड़ी साफ धारा टपक टपक के पड़ रही है, और सर्वोक्तम स्वादिष्ट (नाम का) रस खिंचा जा रहा है।2।

एक और मजेदार बात बन गयी है (वह ये कि) मैंने स्वाशों को (नाम अमृत पीने वाला) प्याला बना लिया है (भाव, उस प्रभू के नाम को मैं स्वास-स्वास जप रहा हूँ)। (इस स्वास-स्वास जपने के कारण मुझे) सारे जगत में एक प्रभू ही व्यापक (दिख रहा है)। बताओ, (हे पण्डित! मुझे) उससे और कौन बड़ा (हो सकता) है?।3।

(जैसे ऊपर बताया है) इस प्रकार उस प्रभू की पहचान (मेरे अंदर) प्रगट हो गयी है। प्रभू के प्रेम में रंगे हुए, हे कबीर! (अब) कह कि और सारा जगत तो भुलेखे में भूला हुआ है (पर, प्रभू की मेहर से) मेरा मन रसों के श्रोत प्रभू में मस्त हुआ हुआ है।4।3।

नोट: ‘रहाउ’ की तुकों में शबद का मुख्य भाव केन्द्रिय भाव हुआ करता है। इस शबद की रहाउ की तुक को गहु से विचारो। प्रभू के मिलाप की बज रही जिस तार का यहां जिक्र है, सारे शबद में उसी की ही व्याख्या है।

शबद् का भाव: गुरू के शबद में जुड़ने से मन में प्रभू के मिलाप की तार बजने लग पड़ती है। उस स्वाद का असल स्वरूप बताया नहीं जा सकता। पर, दिमाग और हृदय उसी के सिमरन और प्यार में भीगे रहते हैं। स्वास स्वास याद में बीतता है। सारे जगत में प्रभू ही सबसे बड़ा दिखता है, केवल उसके प्यार में ही मन मस्त रहता है।

नोट: योग–अभ्यास, प्रणायाम की सराहना करने वाले किसी ‘पंडीआ’ को कबीर जी परमात्मा के सिमरन की बुर्जुगी बताते हैं। चुँकि, योगाभ्यासी जोगी लोग शराब पी के सुरति जोड़ने की कोशिश करते हैं, कबीर जी उस मस्ती का जिक्र करते हैं जो स्वास–स्वास के सिमरन से पैदा होता है। कबीर जी ‘नाम’ की शराब के वास्ते (‘पवन’) स्वास–स्वास को ‘प्याला’ बनाते हैं।

कई सज्जन यहां कबीर जी को योगाभ्यासी समझ रहे हैं, पर कबीर जी खुले लफ्जों में ‘आसन पवन’ को, योगभ्यास, प्राणायाम को ‘कपट’ कहते हैं–

“आसनु पवनु दूरि करि बवरे॥ छाडि कपटु नित हरि भजु बवरे॥”

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh