श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ५ ॥ सफल सु बाणी जितु नामु वखाणी ॥ गुर परसादि किनै विरलै जाणी ॥ धंनु सु वेला जितु हरि गावत सुनणा आए ते परवाना जीउ ॥१॥ से नेत्र परवाणु जिनी दरसनु पेखा ॥ से कर भले जिनी हरि जसु लेखा ॥ से चरण सुहावे जो हरि मारगि चले हउ बलि तिन संगि पछाणा जीउ ॥२॥ सुणि साजन मेरे मीत पिआरे ॥ साधसंगि खिन माहि उधारे ॥ किलविख काटि होआ मनु निरमलु मिटि गए आवण जाणा जीउ ॥३॥ दुइ कर जोड़ि इकु बिनउ करीजै ॥ करि किरपा डुबदा पथरु लीजै ॥ नानक कउ प्रभ भए क्रिपाला प्रभ नानक मनि भाणा जीउ ॥४॥२२॥२९॥ {पन्ना 103}

पद्अर्थ: सफलु = फल देने वाला, लाभदायक। जितु = जिस (बाणी) द्वारा। वखाणी = बखान किया, उच्चारा। परसादि = कृपा से। किनै = किसी ने। जाणी = सांझ पाई। धनु = धन्य। जितु = जिस (समय) में। परवाना = कबूल। आऐ = जगत में जन्में। ते = वह लोग।1।

से नेत्र = वे आँखें (बहुवचन)। परवाणु = (प्रमाण, authority) जाना माना मियार। पेखा = देखा। कर = हाथ (बहुवचन)। करु = हाथ (एकवचन)। जसु = सिफत सलाह। लेखा = लिखी। मारगि = रास्ते पर। हउ = मैं। बलि = कुर्बान।2।

साजन = हे सजॅण! खिन माहि = एक छिन में, पल, a moment। किलविख = पाप।3।

दुइ कर = दानों हाथ। बिनउ = विनती (विनय। पुलिंग)। पथरु = कठोर चिक्त। प्रभ = प्रभू जी!।4।

अर्थ: (हे भाई!) उस बाणी को पढ़ना लाभदायक उद्यम है, जिस बाणी से कोई मनुष्य परमात्मा का नाम उचारता है। (पर) गुरू की कृपा से किसी विरले मनुष्य ने (ऐसी बाणी के साथ) सांझ डाली है। (हे भाई!) वह समय भाग्य भरा जानों, जिस वक्त परमात्मा के गुण गाए जाएं और सुने जाएं। जगत में जन्में वो मनुष्य, मनुष्य मियार में पूरे गिने जाते हैं (जो प्रभू की सिफत सलाह करते हैं और सुनते हैं)।1।

वही आँखें इन्सानी आँखें कहलाने के योग्य हैं, जिन्होंने परमात्मा का दर्शन किया है। वे हाथ अच्छे हैं, जिन्होंने परमात्मा की सिफत सलाह लिखी है। वह पैर सुख देने वाले हैं, जो परमात्मा के (मिलाप के) राह पर चलते हैं। मैं उन (आॅखें, हाथों, पैरों) से सदके जाता हूँ। इनकी संगति में परमात्मा के साथ सांझ पड़ सकती है।2।

हे मेरे प्यारे मित्र प्रभू! सज्जन प्रभू! (मेरी विनती) सुन (मुझे साध-संगति दे) साध-संगति में रहने से एक पल में ही (पापों विकारों से) बच जाते हैं। (जो मनुष्य साध-संगति में रहता है) सारे पाप कट के उसका मन पवित्र हो जाता है। उसके जनम मरन के चक्कर मिट जाते हैं।3।

(हे भाई!) दोनों हाथ जोड़ के (परमात्मा के दर पे) एक (ये) अरदास करनी चाहिए (कि हे प्रभू!) मेहर कर के (विकारों के समुंद्र में) डूब रहे मुझ कठोर चिक्त को बचा ले। (हे भाई! ये अरदास सुन के) प्रभू जी मुझ नानक पर दयावान हो गए हैं, और प्रभू जी नानक के मन में प्यारे लगने लग पड़े हैं।4।22।29।

माझ महला ५ ॥ अम्रित बाणी हरि हरि तेरी ॥ सुणि सुणि होवै परम गति मेरी ॥ जलनि बुझी सीतलु होइ मनूआ सतिगुर का दरसनु पाए जीउ ॥१॥ सूखु भइआ दुखु दूरि पराना ॥ संत रसन हरि नामु वखाना ॥ जल थल नीरि भरे सर सुभर बिरथा कोइ न जाए जीउ ॥२॥ दइआ धारी तिनि सिरजनहारे ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपारे ॥ मिहरवान किरपाल दइआला सगले त्रिपति अघाए जीउ ॥३॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु कीतोनु हरिआ ॥ करणहारि खिन भीतरि करिआ ॥ गुरमुखि नानक तिसै अराधे मन की आस पुजाए जीउ ॥४॥२३॥३०॥ {पन्ना 103}

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। हरि = हे हरी! सुणि = सुन के। सुणि सुणि के = बारंबार सुन के। परम गति = सबसे ऊूंची आत्मिक अवस्था। जलनि = जलन। सीतलु = ठंडा, शांत। पाऐ = पा के।1।

पराना = पलायन, दौड़ गया। रसन = जीभ। संत रसन = गुरू की जीभ ने। वखाना = उचारा। नीरि = पानी के साथ। जल थल = टोए टिब्बे। सर = तालाब। सुभर = नाको नाक भरा हुआ। बिरथा = खाली, व्यर्थ।

तिनि = उस ने। सिरजनहारे = सृजनहार ने। प्रतिपारे = रक्षा की। सगले = सारे। त्रिपत अघाए = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।3।

वणु = जंगल। त्रिणु = घास का तीला। कीतोनु = उसने कर दिया। करणहारि = करनहार ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। तिसै = उस प्रभू ने।4।

अर्थ: हे हरी!तेरी सिफत सलाह की बाणी आत्मिक जीवन देने वाली है (आत्मिक मौत से बचाने वाली है), (गुरू की उचारी हुई ये बाणी) बार बार सुन के मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बनती जा रही है। गुरू का दर्शन करके (तृष्णा, ईश्या आदि की) जलन बुझ जाती है और मन ठंडा ठार हो जाता है।1।

गुरू की जीभ ने (जब) परमात्मा का नाम उचारा (जिसने उसको सुना उस के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा हो गया (उस का) दुख दूर भाग गया। (जैसे बरखा होने से) गड्ढे (टोए टिब्बे) तालाब सब पानी से नाको नाक भर जाते हैं (वैसे ही गुरू के दर पे प्रभू नाम की बरखा होती है तब जो भाग्यशाली मनुष्य गुरू की शरण में आते हैं उनका मन, उनकी ज्ञानेंद्रियां सब नाम जल से नाको नाक भर जाती है। गुरू के दर पे आया कोई मनुष्य (नाम अमृत) से वंचित नहीं रह जाता।2।

उस सृजनहार प्रभू ने मेहर की (और गुरू को भेजा इस तरह उसने सृष्टि के) सारे जीवों की (विकारों से) रक्षा (की तरकीब) की। मेहरवान, कृपाल, दयावान (परमात्मा की मेहर से गुरू की शरण आए) सारे जीव (माया की प्यास भूख की ओर से) पूर्ण तौर पे तृप्त हो गए।3।

(जैसे जब) जगत के पैदा करने वाले प्रभू ने (बरखा की तो) एक पल में ही जंगल, घास और सारा त्रिवनी जगत हरा कर दिया (उसी तरह उसका भेजा हुआ गुरू, नाम की बरखा करता है, गुरू दर पे आए लोगों के हृदय नाम जल से आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं)। हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य उस परमात्मा को सिमरता है, परमात्मा उसके मन की आस पूरी कर देता है (दुनिया की आसा तृष्णा में भटकने से उसको बचा लेता है)।4।23।30।

माझ महला ५ ॥ तूं मेरा पिता तूंहै मेरा माता ॥ तूं मेरा बंधपु तूं मेरा भ्राता ॥ तूं मेरा राखा सभनी थाई ता भउ केहा काड़ा जीउ ॥१॥ तुमरी क्रिपा ते तुधु पछाणा ॥ तूं मेरी ओट तूंहै मेरा माणा ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई सभु तेरा खेलु अखाड़ा जीउ ॥२॥ जीअ जंत सभि तुधु उपाए ॥ जितु जितु भाणा तितु तितु लाए ॥ सभ किछु कीता तेरा होवै नाही किछु असाड़ा जीउ ॥३॥ नामु धिआइ महा सुखु पाइआ ॥ हरि गुण गाइ मेरा मनु सीतलाइआ ॥ गुरि पूरै वजी वाधाई नानक जिता बिखाड़ा जीउ ॥४॥२४॥३१॥ {पन्ना 103}

पद्अर्थ: बंधपु = सन्बंधी, रिश्तेदार। थाई = जगहों पे। काड़ा = चिंता।1।

ते = से। तुधु = तुझे। पछाणा = मैं पहचानता हूं, मैं सांझ डालता हूं। ओट = आसरा। अवरु = और, अन्य। अखाड़ा = वह स्थान जहाँ पहलवान कुश्तियां करते हैं।2।

सभि = सारे। तुधु = तू ही। उपाऐ = पैदा किए हैं। जितु = जिस तरफ, जिस काम में। भाणा = तुझे ठीक लगे। तितु = उस काम में। असाड़ा = हमारा।3।

धिआइ = सिमर के। सीतलाइआ = ठण्डा हो गया। गुरि पूरै = पूरे गुरू द्वारा। वाधाई = आत्मिक तौर पे बढ़ने फूलने की अवस्था, उत्साह। वजी वाधाई = उत्साह की हालत प्रबल हो रही है (जैसे जब ढोल बजता है तब अन्य छोटी मोटी आवाजें सुनाई नही देतीं)। बिखाड़ा = विषम अखाड़ा, मुश्किल कुश्ती।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू मेरा पिता (की जगह) है तू ही मेरी माँ (की जगह) है। तू मेरा रिश्तेदार है, तू ही मेरा भाई है। (हे प्रभू! जब) तू ही सब जगहों पे मेरा रक्षक है, तो कोई डर मुझे पोह भी नहीं सकता, कोई चिंता मुझपर जोर नहीं डाल सकती।1।

(हे प्रभू!) तेरी मेहर से मैं तेरे साथ गहरी सांझ डाल सकता हूँ। तू ही मेरा आसरा है, तू ही मेरे गौरव की जगह है। तेरे बगैर तेरे जैसा और कोई नहीं। ये जगत तमाशा ये जगत अखाड़ा तेरा ही बनाया हुआ है।2।

(हे प्रभू!) जगत के सारे जीव जन्तु तूने ही पैदा किये हैं। जिस जिस काम में तेरी रजा होती है तूने उस उस काम में (सारे जीव जन्तु) लगाए हुए हैं। (जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा किया ही हो रहा है। हम जीवों का कोई जोर नहीं चल सकता।3।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमर के मैंने बड़ा आत्मिक आनंद हासिल किया है। परमात्मा के गुण गा के मेरा मन ठण्डा ठार हो गया है। हे नानक! (कह–) पूरे गुरू के द्वारा (मेरे अंदर) आत्मिक उत्साह का (जैसे) ढोल बज रहा है और मैंने (विकारों के साथ हो रही) मुश्किल कुश्ती को जीत लिया है।4।24।31।

माझ महला ५ ॥ जीअ प्राण प्रभ मनहि अधारा ॥ भगत जीवहि गुण गाइ अपारा ॥ गुण निधान अम्रितु हरि नामा हरि धिआइ धिआइ सुखु पाइआ जीउ ॥१॥ मनसा धारि जो घर ते आवै ॥ साधसंगि जनमु मरणु मिटावै ॥ आस मनोरथु पूरनु होवै भेटत गुर दरसाइआ जीउ ॥२॥ अगम अगोचर किछु मिति नही जानी ॥ साधिक सिध धिआवहि गिआनी ॥ खुदी मिटी चूका भोलावा गुरि मन ही महि प्रगटाइआ जीउ ॥३॥ अनद मंगल कलिआण निधाना ॥ सूख सहज हरि नामु वखाना ॥ होइ क्रिपालु सुआमी अपना नाउ नानक घर महि आइआ जीउ ॥४॥२५॥३२॥ {पन्ना 103-104}

पद्अर्थ: जीअ = जिंद का (जीउ = जिंद)। मनहि = मन का। अधारा = आसरा। जीवहि = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। गाइ = गा के। अपारा = बेअंत प्रभू के गुण। निधानु = गुणों का खजाना। अंम्रितु = आत्मिक मौत से बचाने वाला।

मनसा = (मनीषा) तांघ, तमन्ना। धारि = धार के, कर के। ते = से। साधसंगि = साध-संगति में। भेटत = मिलने से।2।

मिति = (मा = माप, नापना), अंदाजा, बड़ेपन का अंदाजा। साधिक = साधन करने वाले। सिध = योग साधना में लगे हुए जोगी। खुदी = अहम्। चूका = खत्म हो गया। भोलावा = भुलेखा। गुरि = गुरू ने। महि = में।3।

कलिआण = खुशी, सौभाग्यता। वखाना = उचारा। घरि महि = हृदय में।4।

अर्थ: परमात्मा (भगत जनों की) जिंद का, प्राणों का, मन का आसरा है। भगत बेअंत प्रभू के गुण गा के आत्मिक जिंदगी हासिल करते हैं। परमात्मा नाम के गुणों का खजाना है। परमात्मा का नाम आत्मिक मौत से बचाने वाला है। भगत, परमात्मा का नाम सिमर सिमर के आत्मिक आनंद लेते हैं।1।

जो मनुष्य (परमात्मा के मिलाप की) तमन्ना करके घर से चलता है वह साध-संगति में आ के (प्रभू नाम की बरकति से) अपने जनम मरन का चक्कर खत्म कर लेता है। (साध-संगति में) गुरू के दर्शन करके उसकी ये आस पूरी हो जाती है, उसका ये मनोरथ सफल हो जाता है।2।

योग साधना करने वाले जोगी, योग साधना में माहिर हुए जोगी, ज्ञानवान लोग समाधियां लगाते हैं। पर कोई मनुष्य ये पता नहीं कर सका कि वह अपहुँच प्रभू, वहज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे प्रभू कितना बड़ा है। (गुरू की शरण पड़ कर) जिस मनुष्य का अहंकार दूर हो जाता है, जिस मनुष्य को (अपनी शक्ति आदिक का) भुलेखा समाप्त हो जाता है, गुरू ने उस के मन में (उस बेअंत प्रभू का) प्रकाश कर दिया है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम सिमरा है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद खुशियों के खजाने प्रगट हो पड़ते हैं। उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है। जिस मनुष्य पर अपना मालिक प्रभू दयावान हो जाता है, उसके हृदय-घर में उस का नाम बस जाता है।4।25।32।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh