श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 102 माझ महला ५ ॥ सभ किछु घर महि बाहरि नाही ॥ बाहरि टोलै सो भरमि भुलाही ॥ गुर परसादी जिनी अंतरि पाइआ सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ॥१॥ झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा ॥ मनु पीवै सुनि सबदु बीचारा ॥ अनद बिनोद करे दिन राती सदा सदा हरि केला जीउ ॥२॥ जनम जनम का विछुड़िआ मिलिआ ॥ साध क्रिपा ते सूका हरिआ ॥ सुमति पाए नामु धिआए गुरमुखि होए मेला जीउ ॥३॥ जल तरंगु जिउ जलहि समाइआ ॥ तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ ॥ कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा बहुड़ि न होईऐ जउला जीउ ॥४॥१९॥२६॥ {पन्ना 102} पद्अर्थ: सभ किछु = सारा कुछ, सारा आत्मिक आनंद। घरि महि = हृदय घर में (टिके रहने से)। टोले = (सुख की) तलाश करता है। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाही = गलत राह पर भटके रहते हैं। परसादी = कृपा से। अंतरि = अंदर, हृदय में। अंतरि बाहरि = प्रभू चरणों में जुड़ा हुआ और जगत से प्रेम से रहता हुआ। सुहेला = सुखी।1। झिमि झिमि = मध्यम मध्यम सुर से। सुनि = सुन के। अनद बिनोद = आत्मिक सुख आनंद। केला = केल, खेल तमाशे, आनंद।2। साध = गुरू। ते = से, साथ। सूका = सूखा हुआ। सुमति = अच्छी अक्ल। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।3। तरंग = लहर। जलहि = जल ही, जल में ही। भ्रम किवाड़ा = भटकना के तख्ते। जउला = (फारसी शब्द ‘जउला’ = दौड़ता) दौड़ भाग करने वाला, भटकनेवाला।4। अर्थ: गुरू की कृपा से जिन मनुष्यों ने अपने हृदय मेंही टिक के परमात्मा को पा लिया है, वे अंतरात्मे सिमरन करते हुए भी जगत से प्रेम का इस्तेमाल करते हुए भी सदा सुखी रहते हैं। सारा आत्मिक सुख हृदय में टिके रहने में है, बाहर भटकने में नहीं। जो मनुष्य बाहर सुख की तलाश करता है वह सुख नहीं पा सकता। ऐसे लोग तो भटकना में पड़े रहके कुमार्ग पर पड़े रहते हैं।1। (जैसे मध्यॅम-मध्यॅम बरखा होती है और वह धरती को सींचती जाती है उसी तरह जब) आत्मिक अडोलता की हालत में नाम अमृत की धार सहजे सहजे बरसती है तब मनुष्य का मन गुरू का शबद सुन के (प्रभू के गुणों की) विचार सुन के उस अमृत धारा को पीता जाता है (अपने अंदर टिकाए जाता है) (उस अवस्था में मन) हर समय आत्मिक आनंद लेता रहता है, सदैव परमात्मा के मिलाप का सुख प्राप्त करता है।2। (सिफत सलाह की बरकति से) जन्मों जन्मांतरों का बिछुड़ा हुआ जीव प्रभू चरणों से मिलाप हासिल कर लेता है। मनुष्य का रूखा हो चुका मन गुरू की कृपा से प्यार रस से तर हो जाता है। गुरू से जब मनुष्य श्रेष्ठ मति लेता है, तब परमात्मा का नाम सिमरता है। गुरू की शरण पड़ने से जीव का परमात्मा से मिलाप हो जाता है।3। जैसे (नदी आदि के) पानी की लहिर (उस नदी में से उभर के फिर उस) नदी के पानी में ही समा जाती है वैसे ही (गुरू की शरण पड़ कर सिमरन करने से मनुष्य की) सुरति (जोति) प्रभू की जोति में मिली रहती है। हे नानक! कह– (गुरू के सन्मुख हो के सिमरन करने से मनुष्य के) भटकनों रूपी किवाड़ (दरवाजे) खुल जाते हैं, और फिर मनुष्य माया के पीछे दौड़-भाग करने वाले स्वभाव का नहीं रहता।4।19।26। माझ महला ५ ॥ तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ ॥ तिसु बलिहारी जिनि रसना भणिआ ॥ वारि वारि जाई तिसु विटहु जो मनि तनि तुधु आराधे जीउ ॥१॥ तिसु चरण पखाली जो तेरै मारगि चालै ॥ नैन निहाली तिसु पुरख दइआलै ॥ मनु देवा तिसु अपुने साजन जिनि गुर मिलि सो प्रभु लाधे जीउ ॥२॥ से वडभागी जिनि तुम जाणे ॥ सभ कै मधे अलिपत निरबाणे ॥ साध कै संगि उनि भउजलु तरिआ सगल दूत उनि साधे जीउ ॥३॥ तिन की सरणि परिआ मनु मेरा ॥ माणु ताणु तजि मोहु अंधेरा ॥ नामु दानु दीजै नानक कउ तिसु प्रभ अगम अगाधे जीउ ॥४॥२०॥२७॥ {पन्ना 102} पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तूं = तुझे, तेरी सिफत सलाह, तेरा नाम। रसना = जीभ (से)। भणिआ = उचारा। वारि वारि जाई = मैं सदके जाता हूँ। विटहुं = से।1। पखाली = मैं धोता हूं। मारगि = रास्ते पे। निहाली = मैं देखता हूं। गुर मिलि = गुरू को मिल के। लाधे = मिला।2। से = वह लोग। जिनि = जिस जिस ने (‘जिनि’ एकवचन है। ‘से’ बहुवचन है। ‘सो’ एकवचन है)। तुम = तुझे। अलिपत = निर्लिप। निरबाणे = वासना रहित। उनि = उस आदमी ने। भउजल = संसार समुंद्र।3। तजि = त्याग के। अगाधे = अथाह। अगम = अपहुँच।4। अर्थ: (हे प्रभू!) जिस मनुष्य ने तेरा नाम सुना है (जो सदा तेरी सिफत सलाह सुनता है), मैं उससे सदके जाता हूं। जिस मनुष्य ने अपनी जिहवा से तेरा नाम उचारा है (जो तेरी सिफत सलाह करता रहता है), उससे मैं वारने जाता हूँ। (हे प्रभू!) उस मनुष्य से (बार बार) कुर्बान जाता हूं, जो अपने मन से अपने शरीर से तुझे याद करता रहता है।1। (हे प्रभू!) जो मनुष्य तेरे मिलाप के राह पे चलता है, मैं उसके पैर धोता रहूँ। (हे भाई!) दया के श्रोत अकाल-पुरख को मैं अपनी आँखें से देखना चाहता हूँ (इस वास्ते) मैं अपना मन अपने उस सज्जन के हवाले करने को तैयार हूँ जिसने गुरू को मिल के उस प्रभू को पा लिया है।2। (हे प्रभू!) जिस जिस मनुष्य ने तेरे साथ सांझ डाली है, वे सब सौभाग्यशाली हैं। (हे भाई!) परमात्मा सब जीवों के अंदर बसता है (फिर भी वह) निर्लिप है और वासना रहित है। (जिस मनुष्य ने उसके साथ सांझ डाली है) साध-संगति में रह के उसने संसार समुंद्र तैर लिया है, उसने (कामादिक) सारे विकार अपने वश में कर लिए हैं।3। (हे भाई! दुनिया वाले) आदर मान छोड़ के (दुनिया वाली) ताकतें छोड़के (जीवन राह में) अंधकार (पैदा करने वाली माया का) मोह त्याग के मेरा मन उनकी शरण पड़ता है (जिन्होंने सारे दूत वश कर लिए हैं, और उनके आगे अरदास करते हैं कि) मुझ नानक को (भी) उस अपहुँच अथाह प्रभू का नाम दान के रूप में दो।4।20।27। माझ महला ५ ॥ तूं पेडु साख तेरी फूली ॥ तूं सूखमु होआ असथूली ॥ तूं जलनिधि तूं फेनु बुदबुदा तुधु बिनु अवरु न भालीऐ जीउ ॥१॥ तूं सूतु मणीए भी तूंहै ॥ तूं गंठी मेरु सिरि तूंहै ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई अवरु न कोइ दिखालीऐ जीउ ॥२॥ तूं निरगुणु सरगुणु सुखदाता ॥ तूं निरबाणु रसीआ रंगि राता ॥ अपणे करतब आपे जाणहि आपे तुधु समालीऐ जीउ ॥३॥ तूं ठाकुरु सेवकु फुनि आपे ॥ तूं गुपतु परगटु प्रभ आपे ॥ नानक दासु सदा गुण गावै इक भोरी नदरि निहालीऐ जीउ ॥४॥२१॥२८॥ {पन्ना 102} पद्अर्थ: पेडु = पेड़, वृक्ष। साख = शाखा, टाहणियां। फूली = फूटी हुई, स्फुटित हुई। सूखमु = सुक्ष्म (subtle, minute) अदृष्ट। असथूल = स्थूल (gross, course) दृष्टमान जगत। जलनिधि = समुंद्र। फेन = झाग। बुद बुदा = बुलबुला।1। सूतु = धागा, डोरी। मणीऐ = मणके। गंठी = गांठ। मेरु = सिरे का मणका। सिरि = (मणकों के) सिर पे। आदि = शुरू में। मधि = बीच में। अंति = आखिर में।2। निरगुण = माया के तीन गुणों से रहित। सरगुण = माया के तीन गुणों वाला। निरबाणु = वासना रहित। रसीआ = आनंद लेने वाला, भोगने वाला। रंगि = माया के रंग में। समालिये = संभालता है।3। फुनि = फिर, दुबारा। आपे = स्वयं ही। प्रभ = हे प्रभू! इक भोरी = रॅती भर समय। निहालीअै = देखें।4। अर्थ: हे प्रभू! तू (मानो, एक) वृक्ष है (ये संसार तेरे वृक्ष से) फूटी हुई (निकली) टहनियां हैं। हे प्रभू! तू अदृष्ट है (अपने अदृष्ट रूप से) दिखता जगत बना हैं। हे प्रभू! तू (मानों, एक) समुंद्र है (ये सारा जगत पसारा, जैसे) झाग और बुलबुला (भी) तू स्वयं ही है। तेरे बिना और कोई भी नहीं दिखता।1। (ये सारा जगत पसारा तुझसे बना तेरा ही स्वरूप, जैसे एक माला है। उस माला का) धागा तू खुद है, मणके भी तू ही है। (मणकों पर) गाँठ भी तू ही है, (सब मणकों के) सिर पर मेरू मणका भी तू ही है। (हे भाई!) (जगत रचना के) शुरू में, मध्य में और अंत में प्रभू स्वयं ही स्वयं है। उससे बगैर और कोई नहीं दिखता।2। हे प्रभू! तू (अपनी रची माया के) तीन गुणों से परे है। तीनों गुणों से बना जगत पसारा भी तू स्वयं ही है। सब जीवों को सुख देने वाला भी तू स्वयं ही है। तू वासना रहित है (सब जीवों में व्यापक हो के) रसों को भोगने वाला भी है और रसों के प्यार में मस्त भी है। हे प्रभू! अपने खेल तमाशे तू स्वयं ही जानता है। तू स्वयं ही सारी संभाल भी कर रहा है।3। हे प्रभू! मालिक भी तू है और सेवक भी तू स्वयं ही है। हे प्रभू! (सारे संसार में) तू छुपा हुआ भी है और (संसार रूप हो के) तू प्रत्यक्ष भी दिखायी दे रहा है। हे नानक! (कह– तेरा ये) दास सदा तेरे गुण गाता है। छण भर के लिए ही (इस दास की ओर) मेहर की निगाह से देख।4।21।28। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |