श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 101 माझ महला ५ ॥ अम्रित नामु सदा निरमलीआ ॥ सुखदाई दूख बिडारन हरीआ ॥ अवरि साद चखि सगले देखे मन हरि रसु सभ ते मीठा जीउ ॥१॥ जो जो पीवै सो त्रिपतावै ॥ अमरु होवै जो नाम रसु पावै ॥ नाम निधान तिसहि परापति जिसु सबदु गुरू मनि वूठा जीउ ॥२॥ जिनि हरि रसु पाइआ सो त्रिपति अघाना ॥ जिनि हरि सादु पाइआ सो नाहि डुलाना ॥ तिसहि परापति हरि हरि नामा जिसु मसतकि भागीठा जीउ ॥३॥ हरि इकसु हथि आइआ वरसाणे बहुतेरे ॥ तिसु लगि मुकतु भए घणेरे ॥ नामु निधाना गुरमुखि पाईऐ कहु नानक विरली डीठा जीउ ॥४॥१५॥२२॥ {पन्ना 101} उच्चारण:नामु, रसु, जिसु आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ु’ की मात्रा लगी है में ‘ु’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। इसी तरह अवरि,मनि, लगि आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ि’ की मात्रा लगी है में ‘ि’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। ‘पाइआ’ का उच्चारण ‘पायआ’ व ‘पाया’ करना है। ‘इआ’ का उच्चारण ‘य’ और ‘अ’ के बीच –‘यआ’ किया जाता है। पद्अर्थ: निरमलीआ = निर्मल, साफ, पवित्र। दूख बिडारन = दुख दूर करने योग्य। हरिआ = हरी। अवरि = (‘अवर’ का बहुवचन) और। साद = स्वाद। चखि = चख के। सगले = सारे। मन = हे मन!।1। त्रिपतावै = तृप्त हो जाता है। अमरु = मौत रहित, जिसे आत्मिक मौत ना आए। निधान = खजाने। जिसु मनि = जिस के मन में।2। जिनि = जिस ने। अघाना = तृप्त हो गया। साद = स्वाद (‘सादु’ एक वचन; ‘साद’ बहुवचन)। तिसहि = उस को ही (शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा, क्रिया विशेषण ‘हि’ के कारण नहीं लगी है)। मसतकि = माथे पे। भागीठा = सौभाग्य।3। इकसु हथि = एक के हाथ में। वरसाणे = लाभ उठाते हैं। मुकतु = माया के बंधनों से आजाद। घणेरे = अनेकों। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।4। अर्थ: हे मन! जो परमात्मा (जीवों को) सुख देने वाला है और (जीवों के) दुख दूर करने की स्मर्था रखता है, उसका नाम आत्मिक जीवन देने वाला ऐसा जल है जो सदा ही साफ रहता है। हे मन! (दुनिया के पदार्थों के) सार स्वाद चख के मैंने देख लिए हैं, परमात्मा के नाम का स्वाद और सभी से मीठा है।1। (हे भाई!) जो जो परमात्मा के नाम का रस पीता है, नाम का रस प्राप्त करता है, वह (दुनिया के पदार्थों की ओर से) तृप्त हो जाता है, उसे आत्मिक मौत कभी भी छूह नहीं सकती। (पर प्रभू-) नाम के खजाने सिर्फ उसे मिलते हैं, जिसके मन में गुरू का शबद आ बसता है।2। जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का रस चखा है, वह पूर्ण तौर पे तृप्त हो गया है (उसकी माया वाली प्यास व भूख मिट चुकी है)। जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है, वह (माया के हमलों, विकारों के हमलों के सन्मुख) कभी डोलता नहीं। (पर) परमात्मा का यह नाम सिर्फ उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे के अच्छे भाग्य (जाग जाएं)।3। हे नानक! कह– जब यह हरि नाम एक (गुरू) के हाथ में आ जाता है तो (उस गुरू के पास से) अनेकों लोग लाभ उठाते हैं। उस (गुरू के) चरणों में लग के अनेकों ही मनुष्य (माया के बंधनों से) आजाद हो जाते हैं। ये नाम खजाना गुरू की शरण पड़ने से ही मिलता है। विरलों (किसी किसी) ने ही (इस नाम खजाने के) दर्शन किए हैं।4।15।22। माझ महला ५ ॥ निधि सिधि रिधि हरि हरि हरि मेरै ॥ जनमु पदारथु गहिर ग्मभीरै ॥ लाख कोट खुसीआ रंग रावै जो गुर लागा पाई जीउ ॥१॥ दरसनु पेखत भए पुनीता ॥ सगल उधारे भाई मीता ॥ अगम अगोचरु सुआमी अपुना गुर किरपा ते सचु धिआई जीउ ॥२॥ जा कउ खोजहि सरब उपाए ॥ वडभागी दरसनु को विरला पाए ॥ ऊच अपार अगोचर थाना ओहु महलु गुरू देखाई जीउ ॥३॥ गहिर ग्मभीर अम्रित नामु तेरा ॥ मुकति भइआ जिसु रिदै वसेरा ॥ गुरि बंधन तिन के सगले काटे जन नानक सहजि समाई जीउ ॥४॥१६॥२३॥ {पन्ना 101} पद्अर्थ: निधि = नौ निधियां, दुनिया के नौ खजाने। सिध = आत्मिक ताकतें (जो आम तौर पे अठारह माने गए हैं)। रिधि = उन की बहुलता। मेरै = मेरे हृदय में, मेरे वास्ते। पदारथु = कीमती चीज। गंभीरै = बड़े जिगरे वाले प्रभू की मेहर से। कोटि = करोड़ों। गुर पाई = गुरू की चरनीं।1। पेखत = देखते हुए। सगले = सारे। उधारे = (विकारों से) बचा ले। अगम = अपहुँच। अगोचर = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ते = से।2। जा कउ = जिस को। उपाऐ = पैदा किए हुये जीव। महलु = टिकाना।3। गंभीर = हे बड़े जिगरे वाले! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। आत्मिक मौत से बचाने वाला। मुकति = विकारों से खलासी। जिसु रिदै = जिसके हृदय में। गुरि = गुरू ने। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता।4। अर्थ: (हे भाई!) मेरे वास्ते तो परमात्मा का नाम ही दुनिया के नौ खजाने हैं। प्रभू नाम ही आत्मिक ताकतें हैं। गहरे और बड़े जिगरे वाले परमात्मा की मेहर से मुझे मनुष्य जनम (दुर्लभ) पदार्थ (दिखाई दे रहा) है। (पर ये नाम गुरू की कृपा से ही मिलता है) जो मनुष्य गुरू की चरणीं लगता है, वह लाखों करोड़ों खुशियों का आनंद लेता है।1। (गुरू का) दीदार करके (मेरा तन मन) पवित्र हो गया है। मेरे सारे भाई और मित्र (ज्ञानेंद्रियों को गुरू ने विकारों से) बचा लिये हैं। मैं गुरू की कृपा सेअपने उस मालिक को सिमर रहा हूँ, जो अपहुँच है। जिस तक ज्ञान इंद्रियों की पहुँच नहीं है और जो सदा कायम रहने वाला है।2। जिस परमात्मा को उसके पैदा किए सारे जीव ढूँढते रहते हैं, उसका दर्शन कोई बिरला ही भाग्यशाली मनुष्य प्राप्त करता है। जो प्रभू सबसे ऊँची हस्ती वाला है, जिसके गुणों का दूसरा छोर नहीं मिल सकता, जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, उसका वह ऊँचा स्थान ठिकाना गुरू (ही) दिखाता है।3। हे गहरे प्रभू! हे बड़े जिगरे वाले प्रभू! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जिस मनुष्य के दिल में तेरा नाम बस जाता है, वह विकारों से मुक्त हो जाता है। हे नानक! (जिनके हृदय में प्रभू नाम बसा है) गुरू ने उनके सारे माया के फाहे काट दिए हैं वे सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।4।16।23। माझ महला ५ ॥ प्रभ किरपा ते हरि हरि धिआवउ ॥ प्रभू दइआ ते मंगलु गावउ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत हरि धिआईऐ सगल अवरदा जीउ ॥१॥ नामु अउखधु मो कउ साधू दीआ ॥ किलबिख काटे निरमलु थीआ ॥ अनदु भइआ निकसी सभ पीरा सगल बिनासे दरदा जीउ ॥२॥ जिस का अंगु करे मेरा पिआरा ॥ सो मुकता सागर संसारा ॥ सति करे जिनि गुरू पछाता सो काहे कउ डरदा जीउ ॥३॥ जब ते साधू संगति पाए ॥ गुर भेटत हउ गई बलाए ॥ सासि सासि हरि गावै नानकु सतिगुर ढाकि लीआ मेरा पड़दा जीउ ॥४॥१७॥२४॥ {पन्ना 101} पद्अर्थ: ते = से। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ। मंगलु = सिफत सलाह का गीत। गावउ = मैं गाता हूँ। अवरदा = उम्र।1। अउखधु = दवा। मो कउ = मुझे। साधू = गुरू ने। किलबिख = पाप, किलविष। पीरा = पीड़ा। सगल = सारे।2। मुकता = विकारों से आजाद। सति करे = सति कर, ठीक जान के, निश्चय धार के। जिनि = जिस ने। काहे कउ = किस लिए?3। जिस का: शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ । साधू = गुरू। गुर भेटत = गुरू के मिलने से। हउ बलाए = हउमे की बला। गावै नानकु = नानक गाता है। सतिगुरि = सतिगुरू ने। पड़दा ढाकि लीआ = इज्जत रख ली, विकारों के हमलों से बचा के इज्जत रख ली।4। अर्थ: परमात्मा की मेहर से मैं परमातमा का नाम सिमरता हूँ, परमात्मा की ही कृपा से मैं परमातमा के सिफत सलाह के गीत गाता हूँ। (हे भाई!) उठते बैठते सोते जागते सारी (ही) उम्र परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए।1। परमातमा का नाम दारू (है, जब) मुझे गुरू ने दिया (इस की बरकति से मेरे सारे) पाप कट गए और मैं पवित्र हो गया। (मेरे अंदर आत्मिक) सुख पैदा हो गया। (मेरे अंदर से अहंकार की) सारी पीड़ा निकल गई। मेरे सारे दुख-दर्द दूर हो गए।2। (हे भाई!) मेरा प्यारा (गुरू परमात्मा) जिस मनुष्य की सहायता करता है, वह इस संसार समुंद्र (के विकारों) से मुक्त हो जाता है। जिस मनुष्य ने श्रद्धा धार के गुरू के साथ सांझ डाल ली, उसे (इस समुंद्र से) डरने की जरूरत नहीं रह जाती।3। (हे भाई!) जब से मुझे गुरू की संगति मिली है, गुरू को मिलने से (मेरे अंदर से) अहंकार की बला दूर हो गई। सतिगुरू ने (अहंकार आदि विकारों से बचा के) मेरी इज्जत रख ली है। अब नानक हरेक स्वास के साथ परमात्मा के गुण गाता है।4।17।24। माझ महला ५ ॥ ओति पोति सेवक संगि राता ॥ प्रभ प्रतिपाले सेवक सुखदाता ॥ पाणी पखा पीसउ सेवक कै ठाकुर ही का आहरु जीउ ॥१॥ काटि सिलक प्रभि सेवा लाइआ ॥ हुकमु साहिब का सेवक मनि भाइआ ॥ सोई कमावै जो साहिब भावै सेवकु अंतरि बाहरि माहरु जीउ ॥२॥ तूं दाना ठाकुरु सभ बिधि जानहि ॥ ठाकुर के सेवक हरि रंग माणहि ॥ जो किछु ठाकुर का सो सेवक का सेवकु ठाकुर ही संगि जाहरु जीउ ॥३॥ अपुनै ठाकुरि जो पहिराइआ ॥ बहुरि न लेखा पुछि बुलाइआ ॥ तिसु सेवक कै नानक कुरबाणी सो गहिर गभीरा गउहरु जीउ ॥४॥१८॥२५॥ {पन्ना 101-102} पद्अर्थ: ओतिपोति = परोया, ओत प्रोत, sewn crosswise and lengthwise। संगि = साथ। प्रतिपाले = रक्षा करता है। सुखदाता = सुख देने वाला। पीसउ = मैं पीसता हूँ। सेवक कै = सेवक के दर पर। आहरु = उद्यम।1। सिलक = फाही। प्रभि = प्रभू ने। काटि = काट के। सेवक मनि = सेवक के मन में। साहिब भावै = साहिब को ठीक लगता है। अंतरि बाहरि = नाम जपने में और जगत के साथ प्यार से पेश आने पर। माहरु = माहिर।2। सभ बिधि = सारी हालातें। दाना = माहिर, सियाणा, जानने वाला। जाहरु = प्रगट।3। ठाकुरि = ठाकुर ने। जो = जिस को। पहिराइआ = सिरोपा दिया, आदर दिया। बहुरि = मुड़, फिर। पुछि = पूछ के। कै = से।4। अर्थ: (जैसे कपड़े का सूत) ओत प्रोत हो के परोया होता है (वैसे ही परमात्मा अपने) सेवक के साथ मिला रहता है। (जीवों को) सुख देने वाला प्रभू अपने सेवकों की रक्षा करता है। (मेरी चाहत है कि) मैं प्रभू के सेवकों के दर पे पानी ढोऊँ, पंखा फेरूँ और चक्की पीसूँ। (क्योंकि सेवकों को) पालणहार प्रभू (के सिमरन) का ही उद्यम रहता है।1। प्रभू ने (जिसे उसकी माया की मोह की) फाही काट के अपनी सेवा भक्ति में जोड़ा है उस सेवक के मन में मालिक प्रभू का हुकम प्यारा लगने लगता है। वह सेवक वही कमाई करता है, जो मालिक प्रभू को ठीक लगती है। वह सेवक नाम सिमरन में और जगत से प्रेम के साथ पेश आने में माहिर हो जाता है।2। हे प्रभू! (अपने सेवकों के दिल की) तू जानता है।, तू (अपने सेवकों का) पालणहार है, तू (सेवकों को माया के मोह से बचाने के) सब तरीके जानता है। (हे भाई!) पालनहार प्रभू के सेवक प्रभू के मिलाप का आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। पालणहार प्रभू का स्वै उसके सेवक का स्वै बन जाता है। (ठाकुर और उसके सेवक के आत्मिक जीवन में कोई फर्क नहीं रह जाता)। ठाकुर के चरणों में जुड़ा रह के सेवक (लोक परलोक में) प्रगट हो जाता है।3। जिस (सेवक) को प्यारे ठाकुर प्रभू ने (सेवा भक्ति का) सिरोपा (सम्मान) बख्शा है, उसे फिर (उसके कर्मों का) लेखा नहीं पूछा। (लेखा पूछने के लिए) नहीं बुलाया (भाव, वह सेवक बुरे कर्मों की तरफ जाता ही नहीं)। हे नानक! (कह–) मैं उस सेवक से सदके जाता हूँ। वह सेवक गहरे स्वभाव वाला, बड़े जिगरे वाला और ऊँचे स्वाभाव वाला और उच्च अमोलक जीवन वाला हो जाता है।4।18।25। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |