श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 100 माझ महला ५ ॥ विसरु नाही एवड दाते ॥ करि किरपा भगतन संगि राते ॥ दिनसु रैणि जिउ तुधु धिआई एहु दानु मोहि करणा जीउ ॥१॥ माटी अंधी सुरति समाई ॥ सभ किछु दीआ भलीआ जाई ॥ अनद बिनोद चोज तमासे तुधु भावै सो होणा जीउ ॥२॥ जिस दा दिता सभु किछु लैणा ॥ छतीह अम्रित भोजनु खाणा ॥ सेज सुखाली सीतलु पवणा सहज केल रंग करणा जीउ ॥३॥ सा बुधि दीजै जितु विसरहि नाही ॥ सा मति दीजै जितु तुधु धिआई ॥ सास सास तेरे गुण गावा ओट नानक गुर चरणा जीउ ॥४॥१२॥१९॥ {पन्ना 100} उच्चारण: विसरु, दिनसु, तुधु, ऐहु, दानु आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ु’ की मात्रा लगी है में ‘ु’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। इसी तरह करि, रैणि, मोहि आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ि’ की मात्रा लगी है में ‘ि’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। पद्अर्थ: दाते = हे दातार! स्ंगि = साथ। राते = हे रंगे हुए! रैणि = रात। धिआइ = मैं ध्याऊं। मोहि = मुझे।1। माटी = शरीर। सुरति = जोति, समझ, सोचने की ताकत। समाई = लीन कर दी। भलीयां = अच्छियां। जाई = जगहें।2। छतीह अंम्रित भोजनु = कई किस्मों का बढ़िया भोजन। सुखाली = सुखदायी। पवणा = हवा। सहज केल = बेफिक्री के कलोल।3। जितु = जिस (बुद्धि) के द्वारा।4। अर्थ: हे इतने बड़े दातार! (हे बेअंत दातें देने वाले प्रभू!) हे भक्तों से प्यार करने वाले प्रभू! (मेरे पर) कृपा कर, मैं तुझे कभी ना भुलाऊं। मुझे ये दान दे कि जैसे हो सके मैं दिन रात तेरे चरणों का ध्यान धरता रहूँ।1। हे प्रभू! (हमारे इस) जड़ शरीर में तूने चेतनंता डाल दी है, तूने (हम जीवों को) सब कुछ दिया हुआ है, अच्छी जगहें दी हुईं हैं। हे प्रभू! (तेरे पैदा किए जीव कई तरह की) खुशियां खेल तमाशे कर रहे हैं। ये सब कुछ जो हो रहा है तेरी रजा के मुताबिक हो रहा है।2। (हे भाई!) जिस परमात्मा का दिया हुआ सब कुछ हमें मिल रहा है (जिसकी मेहर से) अनेकों किस्मों का खना हम खा रहे हैं। (आराम करने के लिए) सुखदायक चारपाई बिस्तरे हमें मिले हुए है। ठण्डी हवा हम ले रहे हैं, और बेफिक्री के कई खेल तमाशे हम करते हैं (उसे कभी विसारना नहीं चाहिए)।3। हे प्रभू! मुझे ऐसी बुद्धि दे, जिसकी बरकति से मैं तुझे कभी ना भुलाऊँ। मुझे वही मति दे, ता कि मैं तूझे सिमरता रहूँ। हे नानक! (कह–) मुझे गुरू के चरणों का आसरा दे, ता कि मैं हरेक सांस के साथ तेरे गुण गाता रहूँ।4।12।19। माझ महला ५ ॥ सिफति सालाहणु तेरा हुकमु रजाई ॥ सो गिआनु धिआनु जो तुधु भाई ॥ सोई जपु जो प्रभ जीउ भावै भाणै पूर गिआना जीउ ॥१॥ अम्रितु नामु तेरा सोई गावै ॥ जो साहिब तेरै मनि भावै ॥ तूं संतन का संत तुमारे संत साहिब मनु माना जीउ ॥२॥ तूं संतन की करहि प्रतिपाला ॥ संत खेलहि तुम संगि गोपाला ॥ अपुने संत तुधु खरे पिआरे तू संतन के प्राना जीउ ॥३॥ उन संतन कै मेरा मनु कुरबाने ॥ जिन तूं जाता जो तुधु मनि भाने ॥ तिन कै संगि सदा सुखु पाइआ हरि रस नानक त्रिपति अघाना जीउ ॥४॥१३॥२०॥ {पन्ना 100} उच्चारण: सलाहणु, हुकमु, गिआनु, धिआनु आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ु’ की मात्रा लगी है में ‘ु’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। इसी तरह सिफति, करहि, मनि आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ि’ की मात्रा लगी है में ‘ि’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। पद्अर्थ: रजाई = हे रजा के मालिक। जो तुधु भाई = जो तुझे ठीक लगे। सोई = वही। भाणै = रजा में राजी रहना। पूर = पूर्ण, ठीक।1। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। साहिब = हे साहिब! मनि = मन। भावै = प्यारा लगता है। माना = पतीजता है।2। प्रतिपाला = पालना। खेलहि = आत्मिक आनंद लेते हैं। तुम संगि = तेरी संगति में रह के। खरो = बहुत। प्राना = जिंद जान, असल सहारा।3। कै = से। तूं = तूझे। जाता = पहचाना है। तुधु मनि = तेरे मन में। त्रिपति अघाना = (माया की तृष्णा की तरफ से) बिल्कुल तृप्त हो गए हैं।4। अर्थ: हे रजा के मालिक प्रभू! तेरा हुकम (सिर माथे पर मानना) तेरी सिफत-सालाह ही है। जो तुझे ठीक लगता है (उसमें अपनी भलाई जानना) यही असल ज्ञान है असल समाधि है। (हे भाई!) जो कुछ प्रभू जी को भाता है (उसे परवान करना ही) असल जप है। परमात्मा के भाणे में चलना ही असल ज्ञान है।1। हे मालिक प्रभू! आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम वही मनुष्य गा सकता है, जो तेरे मन में (तुझे) प्यारा लगता है। हे साहिब! तू ही संतों का (सहारा) है। संत तेरे आसरे जीते हैं। तेरे संतों का मन सदा तेरे (चरणों में) जुड़ा रहता है।2। हे गोपाल प्रभू! हे सृष्टि के पालणहार! तू अपने संतों की सदा रक्षा करता है। तेरे चरणों में जुड़े रह के संत आत्मिक आनंद का सुख लेते हैं। तुझे अपने संत बहुत प्यारे लेगते हैं, तू संतों की जिंद जान है।3। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) मेरा मन तेरे उन संतों से सदा सदके है, जिन्होंने तुझे पहचाना है (तेरे साथ गहरी सांझ डाली है), जो तुझे तेरे मन में प्यारे लगते हैं। (जो भाग्यशाली) उनकी संगति में रहते हैं, वे सदा आत्मिक आनंद का सुख पाप्त करते हैं। वे परमात्मा का नाम रस पी के (माया की तृष्णा की ओर से) सदैव तृप्त रहते हैं।4।13।20। माझ महला ५ ॥ तूं जलनिधि हम मीन तुमारे ॥ तेरा नामु बूंद हम चात्रिक तिखहारे ॥ तुमरी आस पिआसा तुमरी तुम ही संगि मनु लीना जीउ ॥१॥ जिउ बारिकु पी खीरु अघावै ॥ जिउ निरधनु धनु देखि सुखु पावै ॥ त्रिखावंत जलु पीवत ठंढा तिउ हरि संगि इहु मनु भीना जीउ ॥२॥ जिउ अंधिआरै दीपकु परगासा ॥ भरता चितवत पूरन आसा ॥ मिलि प्रीतम जिउ होत अनंदा तिउ हरि रंगि मनु रंगीना जीउ ॥३॥ संतन मो कउ हरि मारगि पाइआ ॥ साध क्रिपालि हरि संगि गिझाइआ ॥ हरि हमरा हम हरि के दासे नानक सबदु गुरू सचु दीना जीउ ॥४॥१४॥२१॥ {पन्ना 100} उच्चारण: मनु, बारिकु, खीरु, धनु आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ु’ की मात्रा लगी है में ‘ु’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। इसी तरह संगि, देखि, रंगि आदि जिन शब्दों के बाद में ‘ि’ की मात्रा लगी है में ‘ि’ की मात्रा को मधम करके या ना के बराबर उच्चारित करना है। ‘पाइआ’ का उच्चारण ‘पायआ’ व ‘पाया’ करना है ‘इआ’ का उच्चारण ‘य’ और ‘अ’ के बीच –‘यआ’ किया जाता है। पद्अर्थ: निधि = खजाना। जल निधि = समुंद्र। मीन = मछलियां। चात्रिक = पपीहे। तिखहारे = प्यास से घबराए हुए। तुम ही संगि = तेरे ही साथ।1। पी = पी के। खीर = क्षीर, दूध। अघावे = तृप्त होना, पेट भर जाना। देखि = देख के। त्रिखावंत = प्यासा। भीना = भीगा हुआ।2। अंधिआरै = अंधेरे में। दीपकु = दीया। चितवत = याद करते हुए। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के। रंगि = रंग में। प्रेम रंग मे।3। मो कउ = मुझे। कउ = को। मारगि = रास्ते पर। क्रिपालि = कृपाल ने। साध क्रिपालि = कृपालु गुरू ने। गिझाइआ = आदत डाल दी। सचु = सदा स्थिर।4। अर्थ: (हे प्रभू!) तू (जैसे) समुंद्र है और हम (जीव) तेरी मछलियां हैं। हे प्रभू! तेरा नाम (जैसे, स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद है, और हम (जीव, जैसे) प्यासे पपीहे हैं। हे प्रभू! मुझे तेरे मिलाप की आस है मुझे तेरे नाम जल की प्यास है (जो तेरी मेहर हो तो मेरा) मन तेरे ही चरणों में जुड़ा रहे।1। जैसे अंजान नादान बालक (अपनी माँ का) दूध पी के तृप्त हो जाता है, जैसे (कोई) कंगाल मनुष्य (प्राप्त हुआ) धन देख के सुख महिसूस करता है, जैसे कोई प्यासा ठण्डा पानी पी के (खुश होता है), वैसे ही (हे प्रभू! अगर तेरी कृपा हो तो) मेरा ये मन तेरे चरणों में (तेरे नाम जल से) भीग जीए (तो मुझे खुशी हो)।2। जिस प्रकार अंधेरे में दीपक प्रकाश करता है, जिस प्रकार पति से मिलाप की तमन्ना करते करते स्त्री की आस पूरी होती है, और अपने प्रीतम को मिल के उसके हृदय में आनंद पैदा होता है, ठीक उसी प्रकार (जिस पे प्रभू की मेहर हो उसका) मन प्रभू के प्रेम रंग में रंगा जाता है।3। हे नानक! (कह–) संतों ने मुझे परमातमा के (मिलाप के) रास्ते परडाल दिया है। कृपालु गुरू ने मुझे परमात्मा के चरणों में रहने की आदत डाल दी है। अब परमात्मा मेरा (आसरा बन गया है), मैं परमात्मा का (ही) सेवक (बन चुका) हूँ। गुरू ने मुझे सदा स्थिर रहने वाला सिफत-सालाह का शबद बख्श दिया है।4।14।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |