श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 99 माझ महला ५ ॥ दुखु तदे जा विसरि जावै ॥ भुख विआपै बहु बिधि धावै ॥ सिमरत नामु सदा सुहेला जिसु देवै दीन दइआला जीउ ॥१॥ सतिगुरु मेरा वड समरथा ॥ जीइ समाली ता सभु दुखु लथा ॥ चिंता रोगु गई हउ पीड़ा आपि करे प्रतिपाला जीउ ॥२॥ बारिक वांगी हउ सभ किछु मंगा ॥ देदे तोटि नाही प्रभ रंगा ॥ पैरी पै पै बहुतु मनाई दीन दइआल गोपाला जीउ ॥३॥ हउ बलिहारी सतिगुर पूरे ॥ जिनि बंधन काटे सगले मेरे ॥ हिरदै नामु दे निरमल कीए नानक रंगि रसाला जीउ ॥४॥८॥१५॥ {पन्ना 99} उच्चारण: नामु–नाम। जिसु–जिस। दइआला–दयआला। सतिगुरु–सतिगुर। सुखु दुखु–सुख दुख। रोगु–रोग। बहुतु–बहुत। रंगि–रंग। पद्अर्थ: तदे = तब ही। भुख = माया की तृष्णा। विआपै = जोर डाल देती है। बहु बिधि = कई तरीकों से। सुहेला = सुखी।1। स्मर्था = ताकत वाला। जीइ = जीउ में (‘जीउ’ का अधिकरण कारक एकवचन ‘जीइ’ है) समाली = मैं संभाला हूं। हउ पीड़ा = अहंकार का दुख।2। हउ = मैं। मंगा = मांगू। तोटि = घाटा। प्रभ रंगा = प्रभ के पदार्थों में। पै = पड़ कर। मनाई = मैं मनाता हूं। बलिहारी = कुर्बान। जिनि = जिस (गुरू) ने। सगले = सारे। दे = दे के। रंगि = (अपने) प्रेम में (जोड़ के)। रसाला = रस का घर।4। अर्थ: (जीव को) दुख तभी होता है जब उसे (परमात्मा का नाम) बिसर जाता है। (नाम से वंचित जीव पे) माया की तृष्णा जोर डाल लेती है, और जीव कई ढंगों से (माया की खातिर) भटकता फिरता है। दीनों पे दया करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य को (नाम की दात) देता है वह सिमर सिमर के सदा सुखी रहता है।1। (पर ये नाम की दात गुरू से ही मिलती है) मेरा सतिगुरू बड़ी ताकत वाला है, (उसकी मेहर से) जब मैं (परमात्मा का नाम अपने) हृदय में बसाता हूँ तो मेरा सारा दुख दूर हो जाता है। (मेरे अंदर से) चिंता का रोग दूर हो जाता है, मेरा अहंकार रूपी दुख दूर हो जाता है। (चिंता, अहं आदि से) परमात्मा स्वयं ही मेरी रक्षा करता है।2। (गुरू की मति ले के परमात्मा के दर से) मैं नादान बालक की तरह हरेक चीज मांगता हूँ। वह सदा मुझे (मेरी मुंह मांगी चीजें) देता रहता है, और प्रभू की दी हुई चीजों से मुझे कभी कोई कमी नहीं आती। वह परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है। सृष्टि के जीवों की पालना करने वाला है, मैं उसके चरणों में गिर गिर के सदा उसको मनाता रहता हूँ।3। मैं पूरे सतिगुरू से कुर्बान जाता हूँ, उसने मेरे सारे माया के बंधन तोड़ दिए हैं। हे नानक! गुरू ने जिनके हृदय में परमात्मा का नाम दे के, पवित्र जीवन वाला बना दिया है, वह प्रभू के प्रेम में लीन हो के आत्मिक आनंद का घर बन जाते हैं।4।8।15। माझ महला ५ ॥ लाल गोपाल दइआल रंगीले ॥ गहिर ग्मभीर बेअंत गोविंदे ॥ ऊच अथाह बेअंत सुआमी सिमरि सिमरि हउ जीवां जीउ ॥१॥ दुख भंजन निधान अमोले ॥ निरभउ निरवैर अथाह अतोले ॥ अकाल मूरति अजूनी स्मभौ मन सिमरत ठंढा थीवां जीउ ॥२॥ सदा संगी हरि रंग गोपाला ॥ ऊच नीच करे प्रतिपाला ॥ नामु रसाइणु मनु त्रिपताइणु गुरमुखि अम्रितु पीवां जीउ ॥३॥ दुखि सुखि पिआरे तुधु धिआई ॥ एह सुमति गुरू ते पाई ॥ नानक की धर तूंहै ठाकुर हरि रंगि पारि परीवां जीउ ॥४॥९॥१६॥ {पन्ना 99} उच्चारण: दइआल–दयआल। सिमरि–सिमर। नामु–नाम। रसाइणु–रसायणु। मनु–मन। त्रिपताइणु–त्रिपतायण। अंम्रितु–अमृत। दुखि–दुख। सुखि–सुख। तुधु–तुध। सुमति–सुमत। पद्अर्थ: लाल = हे लाल! हे प्यारे! श्रंगीले = हे रंगीले!, रंग+आलय, हे आनंद के श्रोत! गंभीर = हे बड़े जिगरे वाले! हउ = मैं। जीवां = आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूं। दुख भंजन = हे दुखों के नाश करने वाले! निधान = हे खजाने! संभौ = स्वयंभू, अपने आप से प्रगट होने वाला। मनि = मन में। ठंडा = शांत।2। रसाइणु = रसों के घर। त्रिपताइणु = तृप्त करने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।3। दुखि = दुख में। पिआरे = हे प्यारे! तुधु = तूझे। सुमति = अच्छी अक्ल। ते = से। धर = आसरा। ठाकुर = हे ठाकुर! रंगि = प्रेम में।4। अर्थ: हे प्यारे प्रभू! हे सृष्टि के रखवाले! हे दया के घर! हे आनंद के श्रोत! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले! हे बेअंत गोबिंद! हे सबसे ऊँचे अथाह औरबेअंत प्रभू! हे स्वामी! (तेरी मेहर से तेरा नाम) सिमर सिमर के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।11 हे (जीवों के) दुखों के नाश करने वाले! हे कीमती पदार्थों के खजाने! हे निडर निर्वैर अथाह और अतोल प्रभू! तेरी हस्ती मौत से रहित है, तू योनियों में नहीं आता, और अपने आप से ही प्रगट होता है। (तेरा नाम) मन में सिमर सिमर के मैं शांत चिक्त हो जाता हूँ।2। परमात्मा (अपनी) सृष्टि की पालणा करने वाला है, सदा सभ जीवों के अंग-संग रहता है और सब सुख देने वाला है। (जगत में) उच्च कहलाने वाले और नीच कहलाने वाले सभी जीवों की पालना करता है। परमात्मा का नाम सब रसों का श्रोत है (जीवों के) मन को (माया की तृष्णा से) तृप्त करने वाला है। गुरू की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाले उस नाम रस को मैं पीता रहता हूँ।3। हे प्यारे प्रभू! दुख में (फंसा होऊँ, चाहे) सुख में (बस रहा होऊं), मैं सदा तुझे ही ध्याता हूँ (तेरा ही ध्यान धरता हूँ) - ये अच्छी अक्ल मैंने (अपने) गुरू से ली है। हे सबके पालणहार! नानक का आसरा तू ही है। (हे भाई!) परमात्मा के प्रेम रंग में (लीन हो के ही) मैं (संसार समुंदर से) पार लांघ सकता हूँ।4।9।16। माझ महला ५ ॥ धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ ॥ सफलु दरसनु नेत्र पेखत तरिआ ॥ धंनु मूरत चसे पल घड़ीआ धंनि सु ओइ संजोगा जीउ ॥१॥ उदमु करत मनु निरमलु होआ ॥ हरि मारगि चलत भ्रमु सगला खोइआ ॥ नामु निधानु सतिगुरू सुणाइआ मिटि गए सगले रोगा जीउ ॥२॥ अंतरि बाहरि तेरी बाणी ॥ तुधु आपि कथी तै आपि वखाणी ॥ गुरि कहिआ सभु एको एको अवरु न कोई होइगा जीउ ॥३॥ अम्रित रसु हरि गुर ते पीआ ॥ हरि पैनणु नामु भोजनु थीआ ॥ नामि रंग नामि चोज तमासे नाउ नानक कीने भोगा जीउ ॥४॥१०॥१७॥ {पन्ना 99} उच्चारण: धंनु–धंन। जितु–जित। सफलु–सफल। दरसनु–दरसन। धनि–धन। ओइ–ओय। उदमु–उदम। मनु–मन। निरमलु–निरमल। मारगि–मारग। भ्रमु–भ्रम। खोइआ–खोयआ। सुणाइआ–सुणायआ। अंतरि–अंतर। बाहरि–बाहर। तुधु–तुध। अवरु–अवर। होइगा–होयगा। रसु–रस। पद्अर्थ: धंनु = धन्य, भाग्योंवाले। जितु = जिस (समय) में। मैं = मुझे। सफलु = फल देने वाला। नेत्र = आँखों से। मूरत = महूरत, दो घड़ियों का समय। चसा = एक पल का तीसवां हिस्सा। ओइ = ‘ओह’या ‘वो’ का बहुवचन। संजोगा = मिलाप के समय।1। करत = करते हुए। होआ = हो गया। मारगि = रास्ते पे। भ्रमु = भटकना।2। वखाणी = बयान की। कथी = कही। तै = तूने। गुरि = गुरू ने। सभु = हर जगह।3। अम्रित रसु = नाम अमृत का स्वाद। ते = से। थीआ = हो गया। नामि = नाम में (जुड़े रहना)। भोगा = दुनिया के पदार्थ भोगने।4। अर्थ: (मेरी किस्मत से ) वह समय भाग्यशाली (साबित हुआ) जिस समय मुझे सतिगुरू मिल गए, (गुरू का) दर्शन (मेरे वास्ते) फल दायक हो गया (क्योंकि इन) आँखों से (गुरू के) दर्शन करते ही मैं (विकारों के समुंदर से) पार लांघ गया। (सो मेरे वास्ते) वह महूरत, वह चसे, वह पल, वह घड़ीयां- वह (गुरू) मिलाप के समय सारे ही सौभाग्यशाली हैं।1। (गुरू द्वारा बताएकर्म सिमरन के वास्ते) उद्यम करते (मेरा) मन पवित्र हो गया है, (गुरू के द्वारा) प्रभू केरास्ते पर चलते हुए मेरी सारी भटकना समाप्त हो गयी है। गुरू ने मुझे (सारे गुणों का) खजाना प्रभू का नाम सुना दिया है (उसकी बरकति से) मेरे सारे (मानसिक) रोग दूर हो गए हैं। (हे प्रभू!) गुरू ने मुझे बताया है कि हर जगह एक तू ही तू है, तेरे बराबर का और कोई भी (ना हुआ है ना है और) ना ही होगा। (इस वास्ते अब मुझे) अंदर बाहर (सब जीवों में) तेरी ही बाणी सुनाई दे रही है (हरेक में तू ही बोलता प्रतीत हो रहा है। मुझे ये दृढ़ हो गया है कि हरेक जीव में) तू स्वयं ही कथन कर रहा है, तू स्वयं ही व्याख्यान कर रहा है।3। हे नानक! (कह–) परमात्मा के नाम रस का स्वाद मुझे गुरू के पास से प्राप्त हुआ है। अब परमात्मा का नाम ही मेरा खाना पीना है और नाम ही मेरा हंडाना है। प्रभू नाम में जुड़े रहना ही मेरे वास्ते दुनिया की सारी खुशियां हैं। नाम में जुड़े रहना ही मेरे वास्ते दुनिया के रंग तमाशे हैं। प्रभू नाम में ही मेरे वास्ते दुनिया के भोग विलास हैं।4।10।17। माझ महला ५ ॥ सगल संतन पहि वसतु इक मांगउ ॥ करउ बिनंती मानु तिआगउ ॥ वारि वारि जाई लख वरीआ देहु संतन की धूरा जीउ ॥१॥ तुम दाते तुम पुरख बिधाते ॥ तुम समरथ सदा सुखदाते ॥ सभ को तुम ही ते वरसावै अउसरु करहु हमारा पूरा जीउ ॥२॥ दरसनि तेरै भवन पुनीता ॥ आतम गड़ु बिखमु तिना ही जीता ॥ तुम दाते तुम पुरख बिधाते तुधु जेवडु अवरु न सूरा जीउ ॥३॥ रेनु संतन की मेरै मुखि लागी ॥ दुरमति बिनसी कुबुधि अभागी ॥ सच घरि बैसि रहे गुण गाए नानक बिनसे कूरा जीउ ॥४॥११॥१८॥ {पन्ना 99} उच्चारण: वसतु–वसत। मानु–मान। इसी तरह तुधु, अउसरु, करहु, बिखमु, गढ़ु (गढ़), जेवडु व अवरु में ‘ु’ की मात्रा को मधम या ना के बराबर उच्चारित करना है। और, वारि, दरसनि, मुखि, कुबुधि, बैसि की ‘ि’ की मात्रा को मद्यम करके या ना के बराबर उच्चारित करना है। पद्अर्थ: सगल = सारे। पहि = पास से। मांगउ = मैं मांगता हूं। वसतु = अच्छी चीज। करउ = मैं करता हूं। मानु = अहंकार। तिआगउ = मैं त्याग दूं। वारि वारि = सदके, कुर्बान। जाई = मै जाऊं। वरीआ = वारी। धूरा = चरण धूड़।1। पुरख = सर्व व्यापक। बिधाता = पैदा करने वाला, सृजनहार। ते = से। वरसावै = फलित होता है। अउसरु = अवसर, समय, मनुष्य जनम रूपी समय। पूरा = सफल, कामयाब। दरसनि = दर्शन से। भवन = (बहुवचन) शहर, सरीर शहर। पुनीता = पवित्र। गढ़ = किला। बिखमु = मुश्किल। जिसको जीतना मुश्किल है। सूरा = सूरमा।3। रेनु = चरण धूड़। मुखि = मुंह पर, माथे पर। दुरमति = बुरी मति। कुबुधि = बुरी अकल। अभागी = भाग गई। सच घरि = सदा स्थिर प्रभू के घर में। कूरा = कूड़ा, माया के मोह के झूठे संस्कार।4। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरा भजन करने वाले सारे लोगों से मैं तेरा नाम पदार्थ ही मांगता हूँ। और (उनके आगे) बिनती करता हूं (कि किसी तरह) मैं (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर सकूँ। हे प्रभू! मैं लाखों बार (संतों के) सदके कुर्बान जाता हूँ, मुझे अपने संतों की धूड़ बख्श।1। हे प्रभू! तू सब जीवों को पैदा करने वाला है। तू ही सब में व्यापक है। और, तू ही सब जीवों को दातें देने वाला है। हे प्रभू! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू ही सारे सुख देने वाला है। हरेक जीव तुझसे ही मुरादें पाता है (मैं भी तुझसे ये मांग मांगता हूँ कि अपने नाम की दाति दे के) मेरा मानस जन्म का समय कामयाब कर।2। हे प्रभू! (जिन लोगों ने) तेरे दर्शन (की बरकति) से अपने शरीर रूपी नगर को पवित्र कर लिया है, उन्होंने इस मुश्किल मन रूपी किले पर विजय प्राप्त की है। हे प्रभू! तू ही सबको दातें देने वाला है। तू ही सबमें व्यापक है। तू ही सबको पैदा करने वाला है। तेरे बराबर का और कोई सूरमा नहीं है।3। (जब से) तेरे संत जनों की धूड़ मेरे माथे पे लगी है, मेरी दुर-मति का नाश हो गया है। मेरी कुमति दूर हो चुकी है। हे नानक! (कह–) जो लोग सदा स्थिर प्रभू के चरणों में टिके रहते हैं और प्रभू के गुण गाते हैं, उनके (अंदर से माया के मोह वाले) झूठे संस्कार नाश हो जाते हैं।4।11।18। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |