श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 98 माझ महला ५ ॥ खोजत खोजत दरसन चाहे ॥ भाति भाति बन बन अवगाहे ॥ निरगुणु सरगुणु हरि हरि मेरा कोई है जीउ आणि मिलावै जीउ ॥१॥ खटु सासत बिचरत मुखि गिआना ॥ पूजा तिलकु तीरथ इसनाना ॥ निवली करम आसन चउरासीह इन महि सांति न आवै जीउ ॥२॥ अनिक बरख कीए जप तापा ॥ गवनु कीआ धरती भरमाता ॥ इकु खिनु हिरदै सांति न आवै जोगी बहुड़ि बहुड़ि उठि धावै जीउ ॥३॥ करि किरपा मोहि साधु मिलाइआ ॥ मनु तनु सीतलु धीरजु पाइआ ॥ प्रभु अबिनासी बसिआ घट भीतरि हरि मंगलु नानकु गावै जीउ ॥४॥५॥१२॥ {पन्ना 98} उच्चारण: निरगुणु–निरगुण। सरगुणु–सरगुण। खटु–खट। तिलकु–तिलक। गवनु–गवन। इकु–इक। खिनु–खिन। बहुड़ि–बहुड़। मिलाइआ–मिलायआ। मनु–मन। तनु–तन। (इसी प्रकार) सीतलु, धीरजु का उच्चारण सीतल व धीरज करना है। पाइआ का पायआ। पद्अर्थ: खोजत = ढूंढते हुए। दरसन चाहे = दर्शनों की चाह करने से। भाति भाति = भांति भांति, कई किस्म के। बन जंगल। अवगाहे = गाह मारे, ढूंढ डाले, तलाशे। निरगुण = माया के तीनों गुणों से ऊपर। सरगुण = रचे हुए जगत के स्वरूप वाला, माया के तीन गुण रच के अपना जगत रूपी स्वरूप दिखाने वाला। आणि = ला के।2। खटु = छे। खटु सासत = छे शास्त्र (सांख, न्याय, विशैषिक, मीमांसा, योग और वेदांत)। मुखि = मुंह से। निवली कर्म-आँतों की वर्जिश (हाथ घुटनों पे रख के और आगे झुक के खड़े हो के पहले जोर से स्वाश अंदर को खींचते हैं, फिर सास स्वाश बाहर निकाल के आँतों को खींच लिया जाता है और चक्र में घुमाते हैं। इस साधन को निवली कर्म कहते हैं। ये साधन सवेरे शौच के बाद खाली पेट ही करते हैं)।2। बरख = वर्ष,साल। गवनु = चलना फिरना, भ्रमण। भरमाता = चला फिरा। बहुड़ि बहुड़ि = बारंबार, मुड़ मुड़ के।3। मोहि = मुझे। साधु = गुरू। घट = हृदय। मंगलु = सिफति सलाह के गीत।4। अर्थ: अनेकों लोग (जंगलों पहाड़ों में) तलाशते तलाशते (परमात्मा के) दर्शन की तमन्ना करते हैं। कई किस्म के जंगल गाह मारते हैं। (पर इस तरह परमात्मा के दर्शन नही होते)। वह परमात्मा माया के तीन गुणों से अलग भी है और तीन गुणी संसार में व्यापक भी है।2। कई ऐसे हैं जो छह शास्त्रों को विचारते हैं और उनका उपदेश मुंह से (सुनाते हैं)। देव पूजा करते हैं और तिलक लगाते हैं, तीर्थों का स्नान करते हैं। कई ऐसे भी हैं जो निवली कर्म आदिक योगियों वाले चौरासी आसन करते हैं। पर इन उद्यमों से (मन में) शांति नहीं मिलती।2। जोगी लोग अनेकों साल जप करते हैं, तप साधते हैं। सारी धरती पे भ्रमण भी करते हैं। (इस तरह भी) हृदय में एक छिन के लिए भी शांति नहीं आती। फिर भी जोगी इन जपों-तपों के पीछे ही मुड़ मुड़ के ही दौड़ता है।3। परमात्मा ने कृपा करके मुझे गुरू मिला दिया है। गुरू से मुझे धैर्य मिला है। मेरा मन शीतल हो गया है (मेरे मन और ज्ञानेंद्रियों में से विकारों की तपस समाप्त हो चुकी है)। (गुरू की मेहर से) अविनाशी प्रभू मेरे हृदय में आ बसा है। अब (ये दास) नानक परमात्मा की सिफत-सालाह का गीत ही गाता है (ये सिफत सलाह प्रभू चरणों में जोड़ के रखती है)।4।5।12। माझ महला ५ ॥ पारब्रहम अपर्मपर देवा ॥ अगम अगोचर अलख अभेवा ॥ दीन दइआल गोपाल गोबिंदा हरि धिआवहु गुरमुखि गाती जीउ ॥१॥ गुरमुखि मधुसूदनु निसतारे ॥ गुरमुखि संगी क्रिसन मुरारे ॥ दइआल दमोदरु गुरमुखि पाईऐ होरतु कितै न भाती जीउ ॥२॥ निरहारी केसव निरवैरा ॥ कोटि जना जा के पूजहि पैरा ॥ गुरमुखि हिरदै जा कै हरि हरि सोई भगतु इकाती जीउ ॥३॥ अमोघ दरसन बेअंत अपारा ॥ वड समरथु सदा दातारा ॥ गुरमुखि नामु जपीऐ तितु तरीऐ गति नानक विरली जाती जीउ ॥४॥६॥१३॥ {पन्ना 98} उच्चारण: दइआल में ‘इ’ का उच्चारण ‘य’ करते हुए दयआल। इसी प्रकार मधुसूदनु, दमोदरु, होरतु, भगतु, समरथु, नामु व तितु के उच्चारण करते समय शब्द के आखिर में आयी ‘ु’ की मात्रा की ध्वनि को बिल्कुल मध्यम रखना है। दरअसल ‘ु’ की मात्रा लगने या हटने से इन शब्दों के अर्थों में फर्क आ जाता है इसलिए इन मात्राओं की अहमियत है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। पद्अर्थ: पारब्रहम = परमात्मा। अपरंपर = (अपर: नास्ति परो यस्य, जिससे परे कोई और नहीं), जो सबसे परे है। देव = प्रकाश रूप (दिव = चमकना)। अलख = (अलक्ष्य) जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सके। दइआल = दया का घर। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। गाती = गति देने वाला, उच्च आत्मिक अवस्था देने वाला। मधुसूदन = (‘मधु’ दैंत को मारने वाला) परमात्मा। संगी = साथी। मुरारे = मुर+अरि, परमात्मा। दमोदरु = (दामन उदर, कृष्ण), परमात्मा। होरतु = और के द्वारा। होरतु भाती = और तरीके से।2। निरहारी = निर+आहारी, जिसे किसी खुराक की जरूरत नहीं, परमात्मा। केसव = (केशव: प्रशस्या: सन्ति अस्य) लंबे केशों वाले, परमात्मा। कोटि = क्रोड़। इकाती = एकान्तिन (devoted to one object only) अनिंन।3। अमोघ = अमोध, जरूर फल देने वाला। तितु = उस द्वारा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। विरली = बहुत कम, गिनी चुनी।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ के उस हरी का सिमरन करो, जो परम आत्मा है। जिससे परे और कोई नहीं, जो सबसे परे है। जो प्रकाश-रूप है, जो अपहुँच है, जिस तक ज्ञाने इंद्रयों की पहुँच नहीं हो सकती। जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता, जो दीनों पर दया करने वाला है। जो सुष्टि की पालना करने वाला है, जो सृष्टि के जीवों के दिलों की जानने वाला है और जो उच्च आत्मिक अवस्था देने वाला है।1। गुरू की शरण पड़ने से मधु दैंत को मारने वाला (विकार रूपी दैंत से) बचा लेता है। गुरू की शरण पड़ने से मुर दैंत को मारने वाला प्रभू (सदा के लिए) साथी बन जाता है। गुरू की शरण पड़ने से ही वह प्रभू मिलता है जो दया का स्रोत है और जिसे दामादेर कहा है, किसी और तरीके से नहीं मिल सकता।2। करोड़ों ही सेवक जिसके पैर पूजते हैं, वह परमात्मा केशव (सुंदर केशों वाला) किसी के साथ वैर नहीं रखता और उसे किसी खुराक की जरूरत नहीं पड़ती। गुरू के द्वारा जिस मनुष्य के हृदय में वह बस जाता है, वह मनुष्य अनिंन भगत बन जाता है।३। उस परमात्मा का दर्शन जरूर (मन इच्छित) फल देता है। उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। उसकी हस्ती का दूसरा छोर नहीं ढूंढा जा सकता। वह बड़ी ताकतों वाला है और वह सदा ही दातें देता रहता है। गुरू की शरण पड़ कर अगर उसका नाम जपें, तो उसके नाम की बरकति से (संसार समुंद्र से) पार हो जाते हैं। पर, हे नानक! ये ऊँची आत्मिक अवस्था किसी विरले ने ही समझी है।4।6।13। माझ महला ५ ॥ कहिआ करणा दिता लैणा ॥ गरीबा अनाथा तेरा माणा ॥ सभ किछु तूंहै तूंहै मेरे पिआरे तेरी कुदरति कउ बलि जाई जीउ ॥१॥ भाणै उझड़ भाणै राहा ॥ भाणै हरि गुण गुरमुखि गावाहा ॥ भाणै भरमि भवै बहु जूनी सभ किछु तिसै रजाई जीउ ॥२॥ ना को मूरखु ना को सिआणा ॥ वरतै सभ किछु तेरा भाणा ॥ अगम अगोचर बेअंत अथाहा तेरी कीमति कहणु न जाई जीउ ॥३॥ खाकु संतन की देहु पिआरे ॥ आइ पइआ हरि तेरै दुआरै ॥ दरसनु पेखत मनु आघावै नानक मिलणु सुभाई जीउ ॥४॥७॥१४॥ {पन्ना 98} उच्चारण: किछु–किछ। कुदरति–कुदरत। भरमि–भरम। मूरखु–मूरख। कहणु–कहण। खाकु–खाक। कीमति–कीमत। देहु–देह। पाइआ–पायआ। दरसनु–दरसन। मिलणु–मिलण। पद्अर्थ: कहिआ = कहा हुआ वचन, हुकम। माणा = माण, आसरा, सहारा। कुदरति = स्मर्था। बलि जाई = सदके जाऊ।1। भाणै = रजा मुताबक। उझड़ = गलत रास्ता। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। भरमि = भटकने में, भुलेखे में। तिसै = उस (परमात्मा) की ही। रजाई = रजा में।2। वरतै = बर्तता है, घटित होता है। भाणा = रजा, हुकम। अथाह = जिसकी गहराई का थाह न लगाया जा सके।3। खाकु = चरण धूड़। आइ = आकर। हरि = हे हरी! पेखत = देखते हुए। आघावै = तृप्त हो जाता है। सुभाई = (तेरी) रजा अनुसार।4। अर्थ: हे प्रभू! तू जो हुकम करता है, वही जीव करते हैं। जो कुछ तू देता है, वही जीव हासिल कर सकते हैं। गरीब और अनाथ जीवों को तेरा ही आसरा है। हे मेरे प्यारे प्रभू! (जगत में) सब कुछ तू ही कर रहा है तू ही कर रहा है। मैं तेरी स्मर्था से सदके जाता हूँ।1। परमात्मा की रजा में ही जीव (जिंदगी का) गलत रास्ता पकड़ लेते हैं और कई सही रास्ता पकड़ते हैं। परमात्मा की रजा में ही कई जीव गुरू की शरण पड़ कर हरी के गुण गाते हैं। प्रभू की रजा अनुसार ही जीव (माया के मोह की) भटकन में फंस के अनेकों जूनों में भटकते फिरते हैं। (ये) सब कुछ उस प्रभू की रजा में ही हो रहा है।2। हे अपहुँच प्रभू! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे प्रभू! हे अथाह प्रभू! (अपनी स्मर्था से) ना ही कोई जीव मूर्ख है ना ही कोई बुद्धिमान। (जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा हुकम चल रहा है। तेरे बराबर की कोई शै बताई नहीं जा सकती।3। हे प्यारे हरी! मैं तेरे दर पे आ गिरा हूँ। मुझे अपने संतों के चरणों की धूड़ दे। हे नानक! (कह– परमात्मा का) दर्शन करने से मन (दुनिया के पदार्थों की तरफ से) भर जाता है और उसकी रजा अनुसार उससे मिलाप हो जाता है।4।7।14। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |