श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 97 रागु माझ महला ५ ॥ सा रुति सुहावी जितु तुधु समाली ॥ सो कमु सुहेला जो तेरी घाली ॥ सो रिदा सुहेला जितु रिदै तूं वुठा सभना के दातारा जीउ ॥१॥ तूं साझा साहिबु बापु हमारा ॥ नउ निधि तेरै अखुट भंडारा ॥ जिसु तूं देहि सु त्रिपति अघावै सोई भगतु तुमारा जीउ ॥२॥ सभु को आसै तेरी बैठा ॥ घट घट अंतरि तूंहै वुठा ॥ सभे साझीवाल सदाइनि तूं किसै न दिसहि बाहरा जीउ ॥३॥ तूं आपे गुरमुखि मुकति कराइहि ॥ तूं आपे मनमुखि जनमि भवाइहि ॥ नानक दास तेरै बलिहारै सभु तेरा खेलु दसाहरा जीउ ॥४॥२॥९॥ {पन्ना 97} उच्चारण: जितु–जित। साहिबु–साहिब। बापु–बाप। भगतु–भगत। खेलु–खेल। पद्अर्थ: रुति = ऋतु, मौसम। सुहावी = सुखदायी। जितु = जिस में। समाली = मैं सम्हालता हूं, दिल में बसाता हूं। सुहेला = सुखदायी। घाली = सेवा में। रिदा = हृदय में। सुहेला = शांत। वुठा = वसा हुआ।1। नउ निधि = (दुनिया के) नौ ही खजाने। अखॅुट = कभी न खत्म होने वाले। अघावै = तृप्त हो जाता है।2। सभ को = हरेक जीव। साझीवाल = तेरे साथ सांझ रखने वाले। सदाइनि = कहलवाते हैं। किसै = किसी से। बाहरा = अलग किस्म।3। गुरमुखि = गुरू की शरण पा कर। मनमुखि = मन का गुलाम बना के। जनमि = जनम (मरन के चक्कर) में। दसाहरा = प्रगट।4। अर्थ: हे सभी जीवों के दाते! जब मैं तुझे अपने हृदय में बसाता हूँ, वह समय मुझे सुखदायी प्रतीत होता है। हे प्रभू! जो काम मैं तेरी सेवा के लिए करता हूँ, वह काम मुझे खुशी देता है। हे दातार! जिस दिल में तू बसता है, वह हृदय शीतल रहता है।1। हे दातार! तू हमारे सभी जीवों का पिता है (और सभी को दातें बख्शता है)। तेरे घर में (जगत के सारे) नौ ही खजाने मौजूद हैं, तेरे खजानों में कभी कमी नहीं आती। (पर) जिस को (अपने नाम की दात) देता है, वह (दुनिया के पदार्थों की तरफ से) तृप्त हो जाता है, और, हे प्रभू! वही तेरा भगत (कहलवा सकता) है।2। हे दातार! तू खुद ही जीवों को गुरू की शरण में डाल के (माया के बंधनों से) आजाद करा देता है। तू स्वयं ही जीवों को मन का गुलाम बना के जनम मरण के चक्कर में भटकाता रहता है। हे दास नानक! (कह– हे प्रभू!) मैं तुझसे कुर्बान हूँ, ये सारी जगत रचना तेरा ही प्रत्यक्ष तमाशा है।4।2।9। नोट: अंक 2 का भाव है कि गुरू अरजन साहिब का दूसरा शबद है। अंक 9 अब तक के सारे शबदों का जोड़ बताता है; गुरू राम दास जी---------------07 माझ महला ५ ॥ अनहदु वाजै सहजि सुहेला ॥ सबदि अनंद करे सद केला ॥ सहज गुफा महि ताड़ी लाई आसणु ऊच सवारिआ जीउ ॥१॥ फिरि घिरि अपुने ग्रिह महि आइआ ॥ जो लोड़ीदा सोई पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ रहिआ है संतहु गुरि अनभउ पुरखु दिखारिआ जीउ ॥२॥ आपे राजनु आपे लोगा ॥ आपि निरबाणी आपे भोगा ॥ आपे तखति बहै सचु निआई सभ चूकी कूक पुकारिआ जीउ ॥३॥ जेहा डिठा मै तेहो कहिआ ॥ तिसु रसु आइआ जिनि भेदु लहिआ ॥ जोती जोति मिली सुखु पाइआ जन नानक इकु पसारिआ जीउ ॥४॥३॥१०॥ {पन्ना 97} उच्चारण: अनहदु–अनहद। आसणु–आसण। आइआ–आयआ। पाइआ–पायआ। अघाइ–अघाय। पुरखु–पुरख। राजनु–राजन। तिसु–तिस। रसु–रस। इकु–इक। पद्अर्थ: अनहदु = (अनाहत = not produced by beating [as sound]) वह आवाज जो कोई साज बजाए बगैर ही पैदा हो रही हो, एक रस शबद। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेला = सुखदायी। सबदि = शबद से। सद = सदा। केल = (केलि:) खेल, आनंद। सहज गुफा = आत्मक अडोलता की गुफा। ताड़ी = समाधि।1। फिरि घिरि = बारंबार। ग्रिह महि = हृदय घर में। अघाइ रहिआ = तृप्त रहा है। संतहु = हे संत जनों! गुरि = गुरू ने। अनभउ = अनुभव, आत्मिक प्रकाश। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू।2। राजनु = बादशाह। निरबाणी = निर्वाण, वासना रहित। तखति = तख्त पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। निआई = न्याय करने वाला।3। तिसु = उस मनुष्य को। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। लहिआ = ढूंढ लिया। इक = परमात्मा ही। पसरिआ = व्याप रहा है।4। अर्थ: (गुरू की कृपा से मेरे अंदर परमात्मा की सिफत सलाह का) एक रस संगीत बज रहा है। (मेरा मन) आत्मिक अडोलता में टिक के सुखी हो रहा है, गुरू के शबद के साथ जुड़ के सदा आनंद का रंग माण रहा है। (सतिगुरू की मेहर से मैंने) आत्मिक अडोलता-रूपी गुफा में समाधि लगाई हुई है और सबसे ऊँचे अकाल पुरख के चरणों में बढ़िया ठिकाना बना लिया है।1। हे संत जनों! गुरू ने (मुझे) आत्मिक प्रकाश दे के सब में व्यापक परमात्मा के दर्शन करा दिए हैं। अब (मेरा मन) मुड़ मुड़ के अंतरात्में में आ टिकता है। जो (आत्मिक शांति) मुझे चाहिए थी वह मैंने हासिल कर ली है, और (मेरा मन दुनिया की वासनाओं से) पूरी तरह से भर चुका है।2। (गुरू की कृपा से मुझे दिखाई दे गया है कि) प्रभू स्वयं ही बादशाह है और स्वयं ही प्रजा-रूप है। प्रभु वासना रहित भी है और (सब जीवों में व्यापक होने करके) स्वयं ही सारे पदार्थ भोग रहा है। वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभू स्वयं ही तख्त पर बैठा हुआ है और न्याय कर रहा है (इसलिए सुख आए चाहे दुख आए, मेरा) सारा गिला-शिकवा खत्म हो चुका है।3। (गुरू की मेहर से) मैंने परमात्मा को जिस (सर्व-व्यापक) रूप में देखा है वैसा ही कह दिया है। जिस मनुष्य ने ये भेद पा लिया है उसे (उसके मिलाप) का आनंद आता है। हे नानक! उस मनुष्य की सुरति प्रभू की जोति में मिली है, उसे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसे सिर्फ परमात्मा ही सारे जगत में व्यापक दिखता हैं।4।3।10। माझ महला ५ ॥ जितु घरि पिरि सोहागु बणाइआ ॥ तितु घरि सखीए मंगलु गाइआ ॥ अनद बिनोद तितै घरि सोहहि जो धन कंति सिगारी जीउ ॥१॥ सा गुणवंती सा वडभागणि ॥ पुत्रवंती सीलवंति सोहागणि ॥ रूपवंति सा सुघड़ि बिचखणि जो धन कंत पिआरी जीउ ॥२॥ अचारवंति साई परधाने ॥ सभ सिंगार बणे तिसु गिआने ॥ सा कुलवंती सा सभराई जो पिरि कै रंगि सवारी जीउ ॥३॥ महिमा तिस की कहणु न जाए ॥ जो पिरि मेलि लई अंगि लाए ॥ थिरु सुहागु वरु अगमु अगोचरु जन नानक प्रेम साधारी जीउ ॥४॥४॥११॥ {पन्ना 97} उच्चारण: जितु–जित। सोहागु–सोहाग। बणाइआ–बणायआ। तितु–तित। मंगलु–मंगल। गाइआ–गायआ। तिसु–तिस। रंगि–रंग। कहणु–कहण। पिरि–पिर। अंगि–अंग। थिरु–थिर। वरु–वर। अगमु–अगम। अगोचरु–अगोचर। पद्अर्थ: जितु = जिसमें। घरि = हृदय घर में। पिरि = पिर ने। सखीऐ = हे सखी! गइआ = गाया जा सकता है। बिनोद = खुशियां। सोहहि = शोभायमान होते हैं। तितै घरि = उसी घर में। तितु घरि = उस घर में। धन = स्त्री। कंति = कंत ने। सा = वह स्त्री। सीलवंति = मीठे स्वभाव वाली। सुघड़ि = सुचज्जी (जिसका मन सुंदर घड़ा हुआ है)। बिचखणि = विलक्षण, सिआनी। कंत पिआरी = पति की प्यारी।2। अचारवंति = अच्छे आचरणवाली। साई = सा ही, वही स्त्री। परधान = जानी मानी। बणे = फबते हैं। गिआने = ज्ञान से, गहरी समझ के सदके। सभराई = स+भराई, भाईयों वाली। पिर कै रंगि = पति के प्रेम में।3। महिमा = उपमा, बड़िआई। तिस की = उसकी (शब्द ‘तिसु’ और “तिस’ का फर्क ध्यानयोग है; यहां ‘तिसु’ में से ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट के ‘तिस’ बना है)। पिरि = पिया ने। अंगि = अंग से, शरीर के साथ। लाऐ = लगा के। थिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। वरु = पति। अगमु = अपहुँच। अगोचरु = अ+गो+चर (गो = ज्ञानेंद्रिया, चर = पहुँच), जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। साधारी = स+आधरी, आसरे वाली।4। अर्थ: हे सखी! जिस हृदय घर में प्रभू पति ने (अपने प्रकाश से) अच्छे भाग्य लगा दिये हों, उसके हृदय घर में (प्रभू पति की) सिफत सलाह का गीत गाए जाते है। जिस जीव-स्त्री को पति प्रभू ने आत्मिक सुंदरता बख्श दी हो, उसके हृदय घर में आतिमक आनंद शोभते हैं, आत्मिक खुशिआं शोभती हैं। जो जीव स्त्री पति प्रभू की प्यारी बन जाए, वह सब गुणों की मलिका बन जाती है। वह भाग्यशाली हो जाती है। वह (आत्मिक ज्ञान-रूपी) पुत्रवती, सु-स्वाभाव वाली और सुहाग-भाग वाली बन जाती है। उसका आत्मिक जीवन सुंदर बन जाता है। वह सुचज्जे घाढ़त वाले मन वाले व्यक्तित्व और अच्छी सूझ की मलिका बन जाती है।2। जो जीव-स्त्री प्रभू पति के प्रेम रंग में (रंग के) सुंदर जीवन वाली बन जाती है उसका आचरण ऊँचा हो जाता है वह (संगति में) जानी मानी जाती है। प्रभू पति के साथ गहरी सांझ के सदका सारे आत्मिक गुण उसके जीवन को संवार देते है। वह ऊँचे कुल वाली समझी जाती है। वह भाईयों वाली हो जाती है।3। जिस जीव-स्त्री को प्रभू पति ने अपने चरणों में जोड़ के अपने में लीन कर लिया हो, उसकी उपमा बयान नही की जा सकती। हे दास नानक! जो परमात्मा अपहुँच है जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती वह उस जीव स्त्री का सदा कायम रहने वाला सुहाग-भाग बन जाता है। उस जीव-स्त्री को उसके प्रेम का आसरा सदैव मिला रहता है।4।4।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |