श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 96 माझ महला ४ ॥ हउ गुण गोविंद हरि नामु धिआई ॥ मिलि संगति मनि नामु वसाई ॥ हरि प्रभ अगम अगोचर सुआमी मिलि सतिगुर हरि रसु कीचै जीउ ॥१॥ धनु धनु हरि जन जिनि हरि प्रभु जाता ॥ जाइ पुछा जन हरि की बाता ॥ पाव मलोवा मलि मलि धोवा मिलि हरि जन हरि रसु पीचै जीउ ॥२॥ सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ ॥ अम्रित रसु सचु अम्रितु बोली गुरि पूरै अम्रितु लीचै जीउ ॥३॥ हरि सतसंगति सत पुरखु मिलाईऐ ॥ मिलि सतसंगति हरि नामु धिआईऐ ॥ नानक हरि कथा सुणी मुखि बोली गुरमति हरि नामि परीचै जीउ ॥४॥६॥ {पन्ना 96} उच्चारण: नामु–नाम। संगति–संगत। रसु–रस। धनु–धन। जिनि–जिन। मलि–मल। दिढ़ाइआ–दिढ़ायआ। पाइआ–पायआ। अंम्रितु–अमृत। पद्अर्थ: मिलि = मिल के। मनि = मन में। वसाई = मैं बसाऊँ। हउ = मैं। प्रभ = हे प्रभू! अगम = हे अपहुँच प्रभू। अगोचर = वह प्रभू जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। कीचै = किया जा सके।1। जिन = जिन्होंने। जाता = पहचाना, गहरी सांझ डाली। जाइ = जा के। पुछा = पूछूं। पाव = (‘पाउ’ का बहुवचन) पैर। मलोवा = मलूं, मलना। मलि = मल के। पीचै = पीआ जाय।2। दातै = दाते ने। दिढ़ाइआ = (हृदय में) दृढ़ किया। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। बोली = मैं बोलूं। गुरि पूरे = पूरे गुरू के द्वारा। लीचै = लिया जा सकता है।3। हरि = हे हरी! धिआइअै = ध्याया जा सकता है। सुणी = मैं सुनूं। बोली = मैं बोलूं। परीचै = परीचते हैं, प्रसन्न होते हैं।4। अर्थ: (मेरी अरदास है कि) मैं गोबिंद के गुण गाऊँ। मैं हरी का नाम सिमरूँ। और साध-संगति में मिल के मैं परमात्मा का नाम अपने मन में बसाऊँ। हे हरी! हे प्रभू! हे अपहुँच (प्रभू)! हे अगोचर (प्रभू)! हे स्वामी! (अगर तेरी मेहर हो तो) सतिगुरू को मिल के तेरे नाम का आनंद पाया जा सकता है।1। भाग्यशाली हैं परमात्मा के वह सेवक जिन्होंने हरि प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल रखी है। (मेरा जी करता है कि) मैं उन हरि के जनों के पास जा के हरी के सिफत-सालाह की बातें पूछूं। मैं उनके पैर दबाऊँ, (उनके पैर) मल मल के धोऊँ। हरी के सेवकों को ही मिल के हरी का नाम रस पिया जा सकता है।2। (नाम की दाति) देने वाले सतिगुरू ने परमात्मा का नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है। सौभाग्य से मुझे गुरू के दर्शन प्राप्त हुए। अब मैं आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस माणता हूँ और सदा कायम रहने वाला अमृत नाम (मुंह से) उच्चारता हूँ। पूरे गुरू के द्वारा (ही) ये आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस लिया जा सकता है।3। हे हरी! मुझे साध-संगति मिला, मुझे सतिगुरू मिला। साध-संगति में मिल के ही हरी नाम सिमरा जा सकता है। हे नानक! (अरदास कर कि साध-संगति में मिल के गुरू की शरण पड़ के) मैं परमात्मा के सिफत-सालाह की बातें सुनता रहूँ और मुंह से बोलता रहूँ। गुरू की मति ले कर (मन) परमात्मा के नाम में प्रसन्न रहता है।4।6। माझ महला ४ ॥ आवहु भैणे तुसी मिलहु पिआरीआ ॥ जो मेरा प्रीतमु दसे तिस कै हउ वारीआ ॥ मिलि सतसंगति लधा हरि सजणु हउ सतिगुर विटहु घुमाईआ जीउ ॥१॥ जह जह देखा तह तह सुआमी ॥ तू घटि घटि रविआ अंतरजामी ॥ गुरि पूरै हरि नालि दिखालिआ हउ सतिगुर विटहु सद वारिआ जीउ ॥२॥ एको पवणु माटी सभ एका सभ एका जोति सबाईआ ॥ सभ इका जोति वरतै भिनि भिनि न रलई किसै दी रलाईआ ॥ गुर परसादी इकु नदरी आइआ हउ सतिगुर विटहु वताइआ जीउ ॥३॥ जनु नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ गुरसिखां कै मनि पिआरी भाणी ॥ उपदेसु करे गुरु सतिगुरु पूरा गुरु सतिगुरु परउपकारीआ जीउ ॥४॥७॥ सत चउपदे महले चउथे के ॥ {पन्ना 96} उच्चारण: प्रीतमु–प्रीतम। सजणु–सजण। पवणु–पवण। आइआ–आयआ। बताइआ–बतायआ। उपदेसु–उपदेस। मनि–मन। सतिगुरु–सतिगुर। भाइआ–भायआ। पद्अर्थ: भैणे पिआरीआ = हे प्यारी बहनों! हे सतसंगिओ! तिस कै = उस से। हउ = मैं। वारीआ = सदके हूं। मिलि = मिल के। विटहु = से। घुमाइआ = कुर्बान हूँ (स्त्रीलिंग)।1। जह जह = जहां जहां। तह तह = तहां तहां। देखा = देखूं, मैं देखता हूं। सुआमी = हे स्वामी! घटि घटि = हरेक घट में। अंतरजामी = हे अंतरयामी! हरेक के दिलों की जानने वाले! गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। सद = सदा। वारिआ = कुर्बान (पुलिंग)।2। पवणु = हवा, स्वास। माटी = मिॅटी तत्व, शरीर। सबाइआ = सारी, समूची। वरतै = मौजूद है। भिन भिन = अलग अलग शरीर में। न रलई = मिलती नहीं। इकु = एक परमात्मा। वताइआ = कर्बान (पुलिंग)।3। जनु = दास (एकवचन)। नानकु बोलै = नानक बोलता है। (नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ का फर्क याद रखने योग्य है)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली, आत्मिक मौत से बचाने वाली। कै मनि = के मन में। भाणी = पसंद है। परउपकारी = औरों का भला करने वाला।4। अर्थ: हे प्यारी बहनों! (सत्संगी जनों)! तुम आओ और मिल के बैठो। जो बहिन मुझे मेरे प्रीतम का पता बताएगी मैं उसके सदके जाऊँगी। साध-संगति में मिल के (गुरू के द्वारा) मैंने सज्जन प्रभू ढूंढा है, मैं गुरू से कुर्बान जाती हूँ। हे स्वामी! मैं जिधर जिधर देखता हूँ उधर उधर तू ही है। हे अंतरजामी! तू हरेक शरीर में व्यापक है। मैं पूरे गुरू से सदा कुर्बान जाता हूँ। पूरे गुरू ने मुझे परमात्मा मेरे साथ बसता दिखा दिया है।1। (हे भाई!) (सारे शरीरों में) एक ही हवा (स्वाश) है, मिॅटी तत्व भी सारे शरीरों में एक जैसा ही है और सारे शरीरों में एक ही रॅबी जोति मौजूद है। सबमें एक ही ज्योति काम कर रही है। अलग अलग (दिखाई देते) हरेक शरीर में एक ही जोति है। पर (माया के आंगन में जीवों को) किसी की जोति दूसरे की जोति से मिली हुई नहीं दिखती (जोति सांझी नहीं प्रतीत होती)। गुरू की कृपा में हरेक जीव में एक परमात्मा ही दिखता है। मैं गुरू से कुर्बान जाता हूँ।3। दास नानक आत्मिक जीवन देने वाली गुरू की बाणी (सदा) उच्चारता है। गुरू के सिखों के मन को ये बाणी प्यारी लगती है मीठी लगती है। पूरा गुरू पूरा सत्गुरू (यही) उपदेश करता है। (कि सब जीवों में एक ही परमात्मा की जोति बरत रही है)। पूरा गुरू औरों का भला मनाने वाला है।4।7। माझ महला ५ चउपदे घरु १ ॥ मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई ॥ बिलप करे चात्रिक की निआई ॥ त्रिखा न उतरै सांति न आवै बिनु दरसन संत पिआरे जीउ ॥१॥ हउ घोली जीउ घोलि घुमाई गुर दरसन संत पिआरे जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी ॥ चिरु होआ देखे सारिंगपाणी ॥ धंनु सु देसु जहा तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ ॥२॥ हउ घोली हउ घोलि घुमाई गुर सजण मीत मुरारे जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता ॥ हुणि कदि मिलीऐ प्रिअ तुधु भगवंता ॥ मोहि रैणि न विहावै नीद न आवै बिनु देखे गुर दरबारे जीउ ॥३॥ हउ घोली जीउ घोलि घुमाई तिसु सचे गुर दरबारे जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ ॥ प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ ॥ सेव करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ ॥४॥ हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ ॥ रहाउ ॥१॥८॥ {पन्ना 96-97} उच्चारण: बिनु–बिन। चिरु–चिर। धंनु–धन। देसु–देस। कलिजुगु–कलिजुग। तुधु–तुध। तिसु –तिस। मिलाइआ–मिलायआ। पाइआ–पायआ। पद्अर्थ: लोचै = लोचता है, तमन्ना करता है। ताई = वास्ते। बिलप = विरलाप। निआई = जैसा। त्रिखा = प्यास।1। हउ = मैं। घोली = सदके। घोलि घुमाई = सदके, कर्बान, वारी।1। रहाउ। सुहावा = सुखावय, सुख देने वाला, सुंदर। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = रौंअ। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता में रौंअ पैदा करने वाली। बाणी = सिफत सलाह। सारंग पाणी = हे सारंग पाणी! हे परमात्मा! (सारंग = धनुष। पाणी = पाणि, हाथ। धर्नुधारी प्रभू)। धंनु = भाग्यशाली। देसु = हृदय, देश। जहा = जहां। मुरारे = (मुर+अरि) मुरारी, ‘मुर’ दैंत का वैरी।2। कदि = कब? प्रिअ = हे प्यारे! प्रिअ भगवंता = हे प्यारे भगवान! तुधु = तुझे। मोहि = मेरी। रैणि = (जिंदगी की) रात। नीद = शांति।3। सचे = सदा स्थिर रहने वाले।1। रहाउ। भागु होआ = किस्मत जाग पड़ी है। गुरि = गुरू ने। संतु = शांत मूर्ति प्रभू। अबिनाशी = नाश रहित। घर महि = हृदय (ही)। करी = मैं करता हूँ। चसा = पल का तीसवां हिस्सा। विछुड़ा = मैं बिछुड़ता हूं।4। नोट: वैसे तो साधारण तौर पर हरेक शबद किसी प्रथाय ही हुआ करता है, ‘परथाय साखी महा पुरख बोलदे’। पर इस शबद के साथ चिट्ठियों वाली कहानी मन घड़ंत प्रतीत होती है। चौथे बंद की तुक “भाग होआ गुरि संतु मिलाइआ” ध्यान से पढ़ें। इसका अर्थ है ‘गुरू ने संत (प्रभू) मिला दिया है। अगर कहानी ठीक होती तो कहते कि प्रभू ने गुरू मिला दिया है। उस कहानी में और भी कई कमियां हैं। यहां उनका जिक्र करना गैर जरूरी है। ये बिरह अवस्था का शबद है, और ऐसे, और भी कई शबद मिलते हैं। इसी ही राग में आ चुके गुरू राम दास जी के शबद भी बिरहों अवस्था के हैं। बारंबार कहते हैं– ‘गुरु मेलहु’। अर्थ: गुरू का दर्शन करने के लिए मेरा मन बड़ी तमन्ना कर रहा है (जैसे पपीहा स्वाति बूंद के लिए तड़पता है) पपीहे की तरह (मेरा मन गुरू के दर्शनों के लिए) तड़प रहा है। प्यारे संत-गुरू के दर्शन के बिना (दशर्नों की मेरी आत्मिक) प्यास तृप्त नहीं होती। मेरे मन को धैर्य नहीं आता। मैं पिआरे संत-गुरू के दर्शन से कुर्बान हूं, सदके हूँ।1। रहाउ। हे धर्नुधारी प्रभू जी! तेरा मुख (तेरे मुंह का दर्शन) सुख देने वाला है (ठण्डक देने वाला है) तेरी सिफत सलाह (मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता की लहर पैदा करती है। हे धर्नुधारी! तेरे दर्शन किए काफी समय हो चुका है। हे मेरे सज्जन प्रभू! वह हृदय-देश भाग्यशाली है जिसमें तू (सदा) बसता है।2। हे मेरे सज्जन गुरू! हे मेरे मित्र प्रभू! मैं तेरे पर कुर्बान हूँ, सदके हूँ।1। रहाउ। हे प्यारे भगवान! जब मैं तुझे एक घड़ी भर भी नहीं मिलता तो मुझे जैसे कलियुग सा प्रतीत होने लगता है (मैं तेरे विछोड़े में विहवल हूँ, बताओ अब मैं आपको कब मिल सकूँगा)। (हे भाई! गुरू की शरण के बिना परमात्मा से मिलाप नहीं हो सकता, तभी तो) गुरू के दरबार का दर्शन करने के बिना मेरी (जिंदगी की) रात (आसान) नहीं गुजरती, मेरे अंदर शांति नहीं आती।3। मैं गुरू के दरबार से सदके हूँ कुर्बान हूँ जो सदैव अटॅल रहने वाला है।1। रहाउ। मेरे भाग्य जाग पड़े हैं, गुरू ने मुझे शांति का स्रोत परमात्मा मिला दिया है (गुरू की कृपा से उस) अबिनाशी प्रभू को मैंने अपने हृदय में ढूंढ लिया है। हे दास नानक! (कह–हे प्रभू! मेहर कर) मैं तेरे दासों की (नित्य) सेवा करता रहूँ, (तेरे दासों से) मैं एक पल भर भी ना बिछड़ जाऊँ, एक रत्ती भर भी ना अलग होऊँ।4। हे दास नानक! (कह– हे प्रभू!) मैं तेरे दासों से सदके हूँ कुर्बान हूँ।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |