श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 108 माझ महला ५ ॥ मनु तनु रता राम पिआरे ॥ सरबसु दीजै अपना वारे ॥ आठ पहर गोविंद गुण गाईऐ बिसरु न कोई सासा जीउ ॥१॥ सोई साजन मीतु पिआरा ॥ राम नामु साधसंगि बीचारा ॥ साधू संगि तरीजै सागरु कटीऐ जम की फासा जीउ ॥२॥ चारि पदारथ हरि की सेवा ॥ पारजातु जपि अलख अभेवा ॥ कामु क्रोधु किलबिख गुरि काटे पूरन होई आसा जीउ ॥३॥ पूरन भाग भए जिसु प्राणी ॥ साधसंगि मिले सारंगपाणी ॥ नानक नामु वसिआ जिसु अंतरि परवाणु गिरसत उदासा जीउ ॥४॥४०॥४७॥ {पन्ना 108} पद्अर्थ: सरबसु = (सर्वस्व। सर्व+स्व = सारा+धन), सब कुछ। सास = श्वास।1। तरीजै = तैरते हैं। सागरु = समुंद्र। फासा = फांसी।2। चारि पदारथ = (धर्म, अर्थ काम, मोक्ष)। पारजातु = स्वर्ग का वृक्ष, जो मनोकामना पूरी करता है। अलख = जिसका स्वरूप बयान ना हो सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। किलबिख = पाप। गुरि = गुरू ने।3। भाग = किस्मत। सारंगपाणी = सारंग+पाणि = धनुष+हाथ, धनुषधारी प्रभू। जिसु अंतरि = जिसके हृदय में। उदास = माया के मोह से उपराम।4। अर्थ: (हे भाई! अगर तू ये चाहता है कि तेरा) मन (तेरा) शरीर प्यारे प्रभू (के प्रेम रंग में) रंगा रहे (तो) अपना सब कुछ सदके करके (उस प्रेम के बदले) दे देना चाहिए। आठों पहर गोविंद के गुण गाने चाहिए। (हे भाई!) कोई एक श्वास (लेते हुए भी परमात्मा को) ना भुलाओ।1। जो मनुष्य साध-संगति में (टिक के) परमात्मा के नाम को विचारता है, वही सज्जन-प्रभू का प्यारा मित्र है। साध-संगति में (रहने से) संसार समुंद्र से पार लांघ सकते हैं, और जमों वाली फांसी कट जाती है।2। (हे भाई!) परमात्मा की सेवा भक्ति ही (दुनिया के प्रसिद्ध) चार पदार्थ हैं। (हे भाई!) अलॅख अभेव प्रभू का नाम जप, यही पारजात (वृक्ष मनोकामनाएं पूरी करने वाला) है। जिस मनुष्य (के अंदर से) गुरू ने काम वासना दूर कर दी है जिसके सारे पाप गुरू ने काट दिए हैं, उसकी (हरेक किस्म की) आशा पूरी हो गई।3। (हे भाई!) जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग पड़ें, उसको साध-संगति में परमात्मा मिल जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमातमा का नाम बस जाता है, वह घर-बार वाला होता हुआ भी माया से निर्लिप रहता है और उस प्रभू के दर पे कबूल रहता है।4।40।47। माझ महला ५ ॥ सिमरत नामु रिदै सुखु पाइआ ॥ करि किरपा भगतीं प्रगटाइआ ॥ संतसंगि मिलि हरि हरि जपिआ बिनसे आलस रोगा जीउ ॥१॥ जा कै ग्रिहि नव निधि हरि भाई ॥ तिसु मिलिआ जिसु पुरब कमाई ॥ गिआन धिआन पूरन परमेसुर प्रभु सभना गला जोगा जीउ ॥२॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ आपि इकंती आपि पसारा ॥ लेपु नही जगजीवन दाते दरसन डिठे लहनि विजोगा जीउ ॥३॥ अंचलि लाइ सभ सिसटि तराई ॥ आपणा नाउ आपि जपाई ॥ गुर बोहिथु पाइआ किरपा ते नानक धुरि संजोगा जीउ ॥४॥४१॥४८॥ {पन्ना 108} पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सुखु = आत्मिक आनंद। भगती = भगतों ने। बिनसे = नाश हो गए।1। जा कै ग्रिहि = जिस हरी के घर में। नवनिधि = नौ खजाने। पुरब कमाई = पहले जन्मों की नेक कमाई (सामने आ गई)। गिआन = गहरी सांझ। धिआन = समाधि। जोगा = स्मर्थ।2। थापि = स्थापना करके, पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। इकंती = एकांती, अकेला। पसारा = जगत का पसारा। लेपु = प्रभाव। लहनि = उतर जाते हैं।3। अंचलि = पल्ले के साथ। सिसटि = सृष्टि, दुनिया। बोहिथु = जहाज। ते = साथ, से। धुरि = प्रभू की धुर दरगाह से।4। अर्थ: (जिस मनुष्य के हृदय में) भगतजनों ने कृपा करके (परमात्मा का नाम) प्रगट कर दिया, उसने नाम सिमर के हृदय में आत्मिक आनंद का सुख प्राप्त किया। साध-संगति में मिल के जिस ने सदा हरी नाम जपा, उसके सारे आलस उसके सारे रोग दूर हो गए।1। हे भाई जिस हरी के घर में नौ खजाने मौजूद हैं, वह हरी उस मनुष्य को मिलता है (गुरू के द्वारा) जिसकी पहले जन्मों में की नेक कमाई के संस्कार जाग पड़ते हैं। उसकी पूर्ण परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है। उसे यकीन हो जाता है कि परमात्मा सब काम करने की स्मर्था रखता है।2। (हे भाई!) परमात्मा (सारा जगत) रच के एक छिन में (इसको) नाश करने की ताकत भी रखता है। वह स्वयं ही (निर्गुण स्वरूप हो के) अकेला (हो जाता) है, और स्वयं ही (अपने आप से सरगुण स्वरूप धार के) जगत रचना कर देता है। उस करतार को, जगत के जीवन उस प्रभू को माया का प्रभाव विचलित नहीं कर सकता। उसका दर्शन करने से सारे विछोड़े उतर जाते हैं (प्रभू से विछोड़ा डालने वाले सारे प्रभाव मन से उतर जाते हैं)।3। (हे भाई! गुरू के) पल्ले लगा के (प्रभू स्वयं ही) सारी सृष्टि को (संसार समुंद्र से) पार लंघाता है, प्रभू (गुरू के द्वारा) अपना नाम स्वयं (जीवों से) जपाता है। हे नानक! परमात्मा की धुर दरगाह से मिलाप के सबब बनने से परमात्मा की मेहर से गुरू जहाज मिलता है।4।41।48। माझ महला ५ ॥ सोई करणा जि आपि कराए ॥ जिथै रखै सा भली जाए ॥ सोई सिआणा सो पतिवंता हुकमु लगै जिसु मीठा जीउ ॥१॥ सभ परोई इकतु धागै ॥ जिसु लाइ लए सो चरणी लागै ॥ ऊंध कवलु जिसु होइ प्रगासा तिनि सरब निरंजनु डीठा जीउ ॥२॥ तेरी महिमा तूंहै जाणहि ॥ अपणा आपु तूं आपि पछाणहि ॥ हउ बलिहारी संतन तेरे जिनि कामु क्रोधु लोभु पीठा जीउ ॥३॥ तूं निरवैरु संत तेरे निरमल ॥ जिन देखे सभ उतरहि कलमल ॥ नानक नामु धिआइ धिआइ जीवै बिनसिआ भ्रमु भउ धीठा जीउ ॥४॥४२॥४९॥ {पन्ना 108} पद्अर्थ: सा जाऐ = वह जगह (शब्द ‘सा’ स्त्रीलिंग है)। सो = ये शब्द पुलिंग है। पतिवंता = इज्जतवाला। जि = जो।1। इकतु = एक में। इकतु धागे = एक ही धागे में। ऊंध = उल्टा हुआ, प्रभू चरणों से उलट हुआ। तिनि = उस (मनुष्य) ने। निरंजन = निर+अंजन, जिस पर माया की कालख का कोई असर नहीं हो सकता।2। महिमा = बड़ाई, उपमा। आपु = स्वै को। हउ = मैं। जिनि = जिस जिस ने (शब्द ‘जिनि’ एकवचन और ‘जिन’ बहुवचन है)। पीठा = पीस दिया, नाश कर दिया।3। निरमल = पवित्र। कलमल = पाप, कल्मष। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। धीठा = ढीठ, अमोड़।4। अर्थ: (जीव) वही काम कर सकता है, जो परमात्मा स्वयं कराता है। (जीव को) जिस जगह पे परमात्मा रखता है, वही जगह (जीव वास्ते) ठीक होती है। वही मनुष्य अक्ल वाला है वही मनुष्य इज्जत वाला है, जिसे परमात्मा का हुकम प्यारा लगता है।1। परमात्मा ने सारी सृष्टि को अपने (हुकम रूपी) धागे में परो रखा है। जिस जीव को प्रभू (अपने चरणों से) लगाता है, वही चरणों से लगता है। उस मनुष्य ने (ही) निर्लिप प्रभू को हर जगह देखा है, जिसका पलटा हुआ हृदय रूपी कमल का फूल (प्रभू ने अपनी मेहर से खुद) खिला दिया है।2। हे प्रभू! तू स्वयं ही जानता है कि तू कितना बड़ा है। अपने आप को तू स्वयं ही समझ सकता है। तेरे जिस जिस संत ने (तेरी मेहर से अपने अंदर से) काम को, क्रोध को, लोभ को दूर किया है, मैं उन पे से कुर्बान जाता हूं।3। हे प्रभू! तेरे अंदर किसी के वास्ते वैर नहीं है। तेरे संत भी (वैर भावना आदि की) मैल से रहित हैं। तेरे उन संत जनों का दर्शन करने से (औरों के भी) पाप दूर हो जाते हैं। हे नानक! (कह– हे प्रभू तेरा) नाम सिमर सिमर के जो मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है उसके मन में से भटकना के डर दूर हो जाते हैं।4।42।49। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |