श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 109 मांझ महला ५ ॥ झूठा मंगणु जे कोई मागै ॥ तिस कउ मरते घड़ी न लागै ॥ पारब्रहमु जो सद ही सेवै सो गुर मिलि निहचलु कहणा ॥१॥ प्रेम भगति जिस कै मनि लागी ॥ गुण गावै अनदिनु निति जागी ॥ बाह पकड़ि तिसु सुआमी मेलै जिस कै मसतकि लहणा ॥२॥ चरन कमल भगतां मनि वुठे ॥ विणु परमेसर सगले मुठे ॥ संत जनां की धूड़ि नित बांछहि नामु सचे का गहणा ॥३॥ ऊठत बैठत हरि हरि गाईऐ ॥ जिसु सिमरत वरु निहचलु पाईऐ ॥ नानक कउ प्रभ होइ दइआला तेरा कीता सहणा ॥४॥४३॥५०॥ {पन्ना 109} पद्अर्थ: झूठा मंगणु = निरे नाशवंत पदार्थों की ही मांग। मरते = आत्मिक मौत बर्दाश्त करते हुए। सद = सदा। गुर मिलि = गुरू को मिल के। निहचलु = (माया के हमलों से) अडोल।1। तिस कउ: शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबधक ‘कउ’ के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज। निति = सदा। जागी = जाग के, माया के हमलों से सुचेत रह कर। मसतकि = माथे पर। लहणा = प्राप्त करने के लेख।2। वुठे = बसते हैं। मुठे = लूटे जाते हैं। बांछहि = (जो) इच्छा रखते हैं।3। वरु = पति। निहचलु = सदा स्थिर रहने वाला, अटल। सहणा = सहना, बर्दाश्त करना।4। अर्थ: यदि कोई मनुष्य (सदैव) नाशवंत पदार्थों की ही मांग करता रहे (और नाम सिमरन की दाति कभी ना मांगे), उसे आत्मिक मौत मरते देर नहीं लगती। जो मनुष्य सदा ही परमेश्वर की सेवा-भक्ति करता है, वह गुरू को मिल के (माया की तृष्णा की तरफ से) अडोल हो गया कहा जा सकता है।1। जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की प्यार-भरी भगती की लिव लग जाती है, जो मनुष्य हर रोज सदा (माया के हमलों से) सुचेत रह के परमात्मा के गुण गाता है, (उस की) बाँह पकड़ के उसको मालिक प्रभू (अपने साथ) मिला लेता है। (पर ये दाति उसी को प्राप्त होती है) जिसके माथे पर ये दात हासिल करने का लेख मौजूद हो (भाव, जिसके अंदर पूर्बले समय में किए कर्मों के अनुसार सेवा भगती के संस्कार मौजूद हों, गुरू को मिल के उसके वह संस्कार जाग पड़ते हैं)।2। (परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग जानते हैं कि) परमेश्वर के चरणों में जुड़े बिना सारे ही जीव (माया के कामादिक दूतों के हाथों) लूटे जाते हैं। (सो) भगतों के मन में परमात्मा के सुहाने चरण (सदा) बसते रहते हैं। जो मनुष्य ऐसे संत जनों की चरण धूड़ की सदा चाहत रखते हैं। उन्हें सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम मिल जाता है, जो उनके जीवन को संवार देता है।3। (हे भाई!) उठते बैठते (हर वक्त) परमात्मा की सिफति सलाह करनी चाहिए, क्योंकि उसका सिमरन करने से पति प्रभू मिल जाता है जो सदा अटॅल रहने वाला है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) जिस पर तू दयावान होता है (वह उठते बैठते तेरा नाम सिमरता है और इस तरह) उसे तेरी रजा प्यारी लगती है।4।43।50। रागु माझ असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सबदि रंगाए हुकमि सबाए ॥ सची दरगह महलि बुलाए ॥ सचे दीन दइआल मेरे साहिबा सचे मनु पतीआवणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी सबदि सुहावणिआ ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता गुरमती मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ ना को मेरा हउ किसु केरा ॥ साचा ठाकुरु त्रिभवणि मेरा ॥ हउमै करि करि जाइ घणेरी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥ हुकमु पछाणै सु हरि गुण वखाणै ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणै ॥ सभना का दरि लेखा सचै छूटसि नामि सुहावणिआ ॥३॥ मनमुखु भूला ठउरु न पाए ॥ जम दरि बधा चोटा खाए ॥ बिनु नावै को संगि न साथी मुकते नामु धिआवणिआ ॥४॥ साकत कूड़े सचु न भावै ॥ दुबिधा बाधा आवै जावै ॥ लिखिआ लेखु न मेटै कोई गुरमुखि मुकति करावणिआ ॥५॥ पेईअड़ै पिरु जातो नाही ॥ झूठि विछुंनी रोवै धाही ॥ अवगणि मुठी महलु न पाए अवगण गुणि बखसावणिआ ॥६॥ पेईअड़ै जिनि जाता पिआरा ॥ गुरमुखि बूझै ततु बीचारा ॥ आवणु जाणा ठाकि रहाए सचै नामि समावणिआ ॥७॥ गुरमुखि बूझै अकथु कहावै ॥ सचे ठाकुर साचो भावै ॥ नानक सचु कहै बेनंती सचु मिलै गुण गावणिआ ॥८॥१॥ {पन्ना 109} पद्अर्थ: सबदि = गुरू के शबद द्वारा। रंगाऐ = (जिन्होंने अपने मन नाम-रंग में) रंगा लिए। सबाऐ = वह सारे। महलि = (परमात्मा की) हजूरी में। सचे = हे सदा स्थिर! सचे = सचि, सदा स्थिर प्रभू में। पतीआवणिआ = जिन्होंनें मना लिया।1। हउ = मैं। वारी = कुर्बान। मंनि = मनि, मन में।1। रहाउ। किसु केरा = किस का? ठाकुरु = पालने वाला प्रभू। त्रिभवणि = तीनों भवनों में व्यापक। घणेरी = बहुत लोकाई।2। वखाणै = कहता है। सबदि = शबद के द्वारा। नामि = नाम में (जुड़ के)। नीसाणै = निशान से, राहदारी ले के (जाता है)। दरि = दर पे। सचै दरि = परमात्मा के दर पे। छूटसि = लेखे से सुर्खरू होता है।3। मुकते = जम की चोटों से बचे हुए।4। साकत कूड़े = झूठे मोह में फंसे हुए और प्रभू से विछुड़े हुए को। दुबिधा = मेर तेर, दु-चिक्तापन।5। पेईअड़ै = पेक घर में, इस लोक में। झूठि = झूठे मोह में (फंसे रहने करके)। धाही = धाहें मार मार के। अवगणि मुठी = जिसे विकारों ने लूट लिया। गुणि = गुणों से।6। जिनि = जिस (जीव स्त्री) ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। ठाकि रहाऐ = रोके रखता है।7। अकथु = जिस के गुण बयान ना हो सकें।8। अर्थ: जिन्होंने गुरू के शबद के द्वारा अपने जीवन को सुहाना बना लिया है, जिन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला नाम, सदा सुख देने वाला प्रभू नाम गुरू की मति ले के अपने मन में बसा लिया है, मैं उनके कुर्बान हूँ, सदके हूँ।1। रहाउ। हे सदा चिर रहने वाले! हे दीनों पे दया करने वाले मेरे मालिक! जिन्होंने अपने मन को तेरे सदा स्थिर नाम में राजी कर लिया है, जो तेरे हुकम में चलते हैं, वे सारे तेरी सदा स्थिर दरगाह में तेरे महल में बुला लिए जाते हैं।1। (दुनिया में) कोई भी मेरा सदा का साथी नहीं है। मैं भी किसी का सदा के लिए साथी नहीं हूँ। मेरा सदा वास्ते पालने वाला सिर्फ वही (प्रभू) है, जो तीनों भवनों में व्यापक है। ‘मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा हूँ’-ये मान कर करके बेअंत दुनिया (जगत से) चलती जा रही है। (अभिमान में मतवाली हुई दुनिया) पाप कमा कमा के पछताती भी है।2। जे मनुष्य परमात्मा की रजा को समझता है, (वह अभिमान नहीं करता) वह परमात्मा की सिफत-सालाह करता है। गुरू के शबद के द्वारा वह प्रभू के नाम में (टिक के, नाम की) राहदारी समेत (यहाँ से जाता है)। सदा स्थिर प्रभू के दर पे सब जीवों के कर्मों का लेखा होता है। इस लेखे से वही सुर्ख-रू होता है जो नाम से अपने जीवन को सुहाना बना लेता है।3। प्रभू नाम से टूटे हुए मन का मुरीद मनुष्य (कर्मों से बचने के लिए) कोई जगह नहीं ढूँढ सकता। (अपने किए अवगुणों का) बंधा हुआ यमराज के दर पे मार खाता है। (आत्मिक दु:ख कलेश की चोटों से बचाने कि लिए) प्रभू के नाम के बिना और कोई संगी साथी नहीं हो सकता। जम की इन चोटों से वही बचते हैं, जो प्रभू का नाम सिमरते हैं।4। झूठे मोह में फंसे साकत को सदा स्थिर प्रभू (का नाम) अच्छा नही लगता। (उसे मोह वाली मेर-तेर पसंद है) उस मेर-तेर में फंसा हुआ जनम मरन के चक्कर में पड़ता है। (दुबिधा वाले किए कर्मों के अनुसार, माथे पर दुबिधा के संस्कारों का) लिखा लेख कोई मिटा नहीं सकता। (इस लेख से) वही खलासी पाता है, जो गुरू की शरण पड़ता है।5। जिस जीव स्त्री ने पेके घर (इस लोक) में प्रभू पति के साथ सांझ नहीं डाली, झूठे मोह के कारण प्रभू चरणों से विछुड़ी हुई वह (आखिर) धाड़ें मार मार के रोती है। जिस (के आत्मिक जीवन) को पाप (-स्वभाव) ने लूट लिया, उसे परमात्मा का महल नहीं मिलता। इन अवगुणों को गुणों का मालिक प्रभू (स्वयं ही) बख्शता है।6। जिस जीव स्त्री ने पेके घर (इस लोक) में प्यारे प्रभू के साथ सांझ पा ली, वह गुरू की शरण पड़ कर (जगत के) मूल प्रभू (के गुणों) को समझती व विचारती है। जो सदा स्थिर प्रभू के नाम में टिके रहते हैं, गुरू उनका जनम मरन का चक्कर समाप्त कर देता है।7। गुरू की शरण पड़ने से मनुष्य बेअंत गुणों वाले प्रभू (के गुणों) को समझता है। (औरों) को सिफत-सालाह के वास्ते प्रेरता है। सदा स्थिर ठाकुर को (सिफत-सालाह का) सदा स्थिर कर्म ही अच्छा लगता है। हे नानक! (गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य) सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरता रहता है, (सदा स्थिर प्रभू के दर पे) आरजूऐं (करता रहता है)। प्रभू की सिफत-सालाह करने वालों को सदा स्थिर प्रभू मिल जाता है।8।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |