श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 111 माझ महला ३ ॥ इको आपि फिरै परछंना ॥ गुरमुखि वेखा ता इहु मनु भिंना ॥ त्रिसना तजि सहज सुखु पाइआ एको मंनि वसावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी इकसु सिउ चितु लावणिआ ॥ गुरमती मनु इकतु घरि आइआ सचै रंगि रंगावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ इहु जगु भूला तैं आपि भुलाइआ ॥ इकु विसारि दूजै लोभाइआ ॥ अनदिनु सदा फिरै भ्रमि भूला बिनु नावै दुखु पावणिआ ॥२॥ जो रंगि राते करम बिधाते ॥ गुर सेवा ते जुग चारे जाते ॥ जिस नो आपि देइ वडिआई हरि कै नामि समावणिआ ॥३॥ माइआ मोहि हरि चेतै नाही ॥ जमपुरि बधा दुख सहाही ॥ अंना बोला किछु नदरि न आवै मनमुख पापि पचावणिआ ॥४॥ इकि रंगि राते जो तुधु आपि लिव लाए ॥ भाइ भगति तेरै मनि भाए ॥ सतिगुरु सेवनि सदा सुखदाता सभ इछा आपि पुजावणिआ ॥५॥ हरि जीउ तेरी सदा सरणाई ॥ आपे बखसिहि दे वडिआई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै जो हरि हरि नामु धिआवणिआ ॥६॥ अनदिनु राते जो हरि भाए ॥ मेरै प्रभि मेले मेलि मिलाए ॥ सदा सदा सचे तेरी सरणाई तूं आपे सचु बुझावणिआ ॥७॥ जिन सचु जाता से सचि समाणे ॥ हरि गुण गावहि सचु वखाणे ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लावणिआ ॥८॥३॥४॥ {पन्ना 111} पद्अर्थ: परछंना = (परिछन्न = enveloped, clothed) ढका हुआ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। भिंना = भीग गया। तजि = छोड़ के। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। मंनि = मनि, मन में।1। हउ = मैं। इकसु सिउ = सिर्फ एक के साथ। इकतु घरि = एक घर में।1। रहाउ। बिसारि = भुला के। दूजै = तेरे बिना किसी और में, माया के मोह में। अनदिनु = हर रोज। भ्रमि = भटकना में।2। रंगि = प्रेम में। बिधाता = जगत रचना करने वाला। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों अनुसार पैदा करने वाला। ते = से, साथ। जुग चारे = चारों युगों में, सदा के लिए। जाते = प्रसिद्ध हो जाते हैं। देइ = देता है। नामि = नाम में।3। मोहि = मोह में (फंस के)। जम पुरि = यम की नगरी में। सहाही = सहे, सहता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। पापि = पाप में। पचावणिआ = (प्लुष = जलना) जलते हैं, दुखी होते हैं।4। इकि = (‘इक’ का बहुवचन)। तुधु = तूं। भाइ = प्रेम में। मनि = मन में। भाऐ = प्यारे लगे। सेवनि = सेवा करते हैं।5। हरि जीउ = हे प्रभू जी! दे = दे के। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत।6। प्रभि = प्रभू ने। मेलि = मिलाप में। सचे = हे सदा स्थिर प्रभू! सचु = सदा स्थिर नाम।7। जाता = सांझ डाल ली, पहचान लिया। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। वखाणे = वखाण, उचार के। बैरागी = वैरागवान, माया से उपराम। निज घरि = अपने घर में। ताड़ी = समाधि।8। अर्थ: (दृष्टमान जगतरूपी पर्दे में) ढका हुआ परमात्मा स्वयं ही स्वयं (सारे जगत में) विचर रहा है। जिन लोगों ने गुरू की शरण पड़ कर (उस गुप्त प्रभू को) जब देख लिया तब उनका मन (उसके प्रेम रस में) भीग गया। (माया की) तृष्णा त्याग के उन्होंने आत्मिक अडोलता का आनंद हासिल कर लिया। एक परमात्मा ही परमात्मा उनके मन में बस गया। मैं उन मनुष्यों से सदा सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो एक परमात्मा के साथ चिक्त जोड़ते हैं। गुरू की शिक्षा लेकर जिनका मन परमात्मा के चरणों में टिक गया है, वे सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के प्रेम रंग में (सदा के लिए) रंगे गए।1। रहाउ। (हे प्रभू!) ये जगत गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है (पर इसके क्या वश?) तूने खुद ही इसे गलत रास्ते पर डाला हुआ है। तुझे एक को भूल के माया के मोह में फंसा हुआ है। भटकन के कारण कुमार्ग पर पड़ा हुआ जगत सदा हर वक्त भटकता फिरता है, और तेरे नाम से टूट के दु:ख सह रहा है।2। जीवों को किए कर्मों अनुसार पैदा करने वाले परमात्मा के प्रेम रंग में जो लोग मस्त रहते हैं, वे गुरू की बताई सेवा के कारण सदा के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं। (पर ये उसकी अपनी ही मेहर है) परमात्मा जिस मनुष्य को खुद ही इज्जत देता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है।3। जो मनुष्य माया के मोह में फंस के परमात्मा को याद नहीं रखता, वह (अपने किए कर्मों) के विकारों में बंधा हुआ यम की नगरी में (आत्मिक मौत के कब्जे में आया हुआ) दु:ख सहता है। माया के मोह में अंधा हुआ वह मनुष्य (परमात्मा की सिफत सलाह) सुनने से अस्मर्थ रहता है। (माया के बगैर) उसे और कुछ दिखता भी नहीं। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे पाप (वाले जीवन) में ही जलते रहते हैं।4। (हे प्रभू!) जिनमें तूने खुद, अपने नाम की लगन लगाई है, वे तेरे प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। (तेरे चरणों के साथ) प्रेम के कारण (तेरी) भक्ति के कारण वह तुझे तेरे मन में प्यारे लगते हैं। वह मनुष्य आत्मिक आनंद देने वाले गुरू की बताई हुई सेवा करते हैं हे प्रभू! तू स्वयं ही उनकी हरेक इच्छा पूरी करता है।5। हे प्रभू जी! मैं सदा ही तेरा आसरा देखता हूँ। तू जीवों को बड़प्पन दे के खुद ही बख्शिश करता है। (हे भाई!) जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरता है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटक सकती।6। जो मनुष्य परमात्मा को प्यारे लगते हैं, वे हर समय (हर रोज) उसके प्रेम में मस्त रहते हैं। मेरे प्रभू ने उनको अपने साथ मिला लिया है, अपने चरणों में जोड़ लिया है। हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू! वे मनुष्य सदा ही सदा ही तेरा पल्ला पकड़े रहते हैं, तू स्वयं ही उन्हें अपने नाम की सूझ प्रदान करता है।7। जिन लोगों ने सदा स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ डाली है, वह सदा स्थिर प्रभू का नाम उचार उचार के सदैव उसके गुण गाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वो माया के मोह की ओर से विरक्त हो जाते हैं, वह (बाहर माया के पीछे भटकने की जगह) अपने हृदय धर में टिके रहते हैं।8।3।4। माझ महला ३ ॥ सबदि मरै सु मुआ जापै ॥ कालु न चापै दुखु न संतापै ॥ जोती विचि मिलि जोति समाणी सुणि मन सचि समावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हरि कै नाइ सोभा पावणिआ ॥ सतिगुरु सेवि सचि चितु लाइआ गुरमती सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ कची कचा चीरु हंढाए ॥ दूजै लागी महलु न पाए ॥ अनदिनु जलदी फिरै दिनु राती बिनु पिर बहु दुखु पावणिआ ॥२॥ देही जाति न आगै जाए ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै छुटै सचु कमाए ॥ सतिगुरु सेवनि से धनवंते ऐथै ओथै नामि समावणिआ ॥३॥ भै भाइ सीगारु बणाए ॥ गुर परसादी महलु घरु पाए ॥ अनदिनु सदा रवै दिनु राती मजीठै रंगु बणावणिआ ॥४॥ सभना पिरु वसै सदा नाले ॥ गुर परसादी को नदरि निहाले ॥ मेरा प्रभु अति ऊचो ऊचा करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥५॥ माइआ मोहि इहु जगु सुता ॥ नामु विसारि अंति विगुता ॥ जिस ते सुता सो जागाए गुरमति सोझी पावणिआ ॥६॥ अपिउ पीऐ सो भरमु गवाए ॥ गुर परसादि मुकति गति पाए ॥ भगती रता सदा बैरागी आपु मारि मिलावणिआ ॥७॥ आपि उपाए धंधै लाए ॥ लख चउरासी रिजकु आपि अपड़ाए ॥ नानक नामु धिआइ सचि राते जो तिसु भावै सु कार करावणिआ ॥८॥४॥५॥ {पन्ना 111-112} पद्अर्थ: मरै = मरता है। मुआ = (अहम्, ममता की ओर से) मरा हुआ। जापै = प्रतीत हो जाता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत। चापै = (चाप = धनुष) फाही ले सकता। मिलि = मिल के। मन = हे मन! स्चि = सदा स्थिर प्रभू में।1। कै नाइ = के नाम में। सेवि = सेवा करके। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ। कची = नाशवंत। चीरु = कपड़ा। दूजै = माया के मोह में। महलु = प्रभू चरणों में निवास। जलदी = जलती।2। देही = शरीर। जाति = (उच्च) जाति (का गुमान)। आगै = परलोक में। छुटै = सुर्खरू होता है। कमाऐ = कमा के। सचु कमाऐ = सदा स्थिर नाम सिमरन की कमाई करके। अैथै ओथै = इस लोक में और परलोक में। नामि = नाम में।3। भै = (प्रभू के) डर अदब में (रह के)। भाइ = (प्रभू के) प्यार में (जुड़ के)। सीगारु = गहणा। रवै = सिमरता है। मजीठै रंगु = मजीठा वाला पक्का रंग।4। को = कोई विरला। नदरि निहाले = आँखों से देखता है।5। मोहि = मोह में। अंत = आखिर। विगुता = ख्वार होती है। जिस ते = जिस से, जिस परमात्मा के हुकम अनुसार।6। अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भरमु = भटकना। मुकति = माया के मोह से खलासी। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। बैरागी = वैरागवान, माया के मोह से ऊपर। आपु = स्वै भाव।7। धंधै = झमेले में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।8। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (स्वै भाव की ओर से) मरता है, वह (स्वै भाव की ओर से) मरा हुआ मनुष्य (जगत में) आदर मान पाता है। उसे आत्मिक मौत (अपने पंजे में) फंसा नहीं सकती, उसे कोई दु:ख कलेश दुखी नहीं कर सकता। प्रभू की ज्योति में मिल के उसकी सुरति प्रभू में ही लीन रहती है। और हे मन! वह मनुष्य (प्रभू की सिफत-सालाह) सुन के सदा स्थिर परमात्मा में समाया रहता है।1। मैं सदा उन पे से सदके जाता हूँ, जो परमात्मा के नाम में जुड़ के (लोक परलोक में) शोभा कमाते हैं। जो गुरू की बताई हुई सेवा कर-कर के सदा स्थिर प्रभू में चिक्त जोड़ते हैं और गुरू की मति पर चल के आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।1। रहाउ। ये शरीर नाशवंत है। जैसे कमजोर सा कपड़ा है (पर मनुष्य की जिंद इस) जरजर कपड़े को ही इस्तेमाल करती रहती है (भाव, जिंद शारीरिक भोगों में ही मगन रहती है)। (जिंद) माया के प्यार में लगी रहती है (इस वास्ते यह प्रभू चरणों में) ठिकाना हासिल नही कर सकती। (माया के मोह के कारण जिंद) हर समय दिन रात जलती व भटकती है। प्रभू पति (के मिलाप) के बगैर बहुत दु:ख झेलती है।2। प्रभू की हजूरी में (मनुष्य का) शरीर नहीं जा सकता, ऊँची जाति भी नहीं पहुँच सकती (जिसका मनुष्य इतना गुमान करता है)। जहाँ (परलोक में हरेक मनुष्य से उसके द्वारा किए कर्मों का) हिसाब मांगा जाता है। वहाँ तो सदा स्थिर प्रभू के नाम सिमरन की कमाई करके सुर्खरू होते हैं। जो मनुष्य गुरू की बताई सेवा करते हैं, वे (प्रभू के नाम धन से) धनाढ बन जाते हैं। वे इस लोक में भी और परलोक में भी सदा प्रभू के नाम में ही लीन रहते हैं।3। जो मनुष्य प्रभू के डर अदब में रह के प्रभू के प्रेम में मगन हो के (प्रभू के नाम को अपने जीवन का) गहना बनाता है, वह गुरू की कृपा से प्रभू चरणों में ठिकाना बना लेता है। प्रभू चरणों में घर प्राप्त कर लेता है। वह हर रोज दिन रात परमात्मा का नाम सिमरता है (वह अपनी जिंद को) मजीठा जैसा (पक्का प्रभू का) नाम रंग चढ़ा लेता है।4। (हे भाई!) प्रभू पति सदा सभ जीवों के साथ (सब के अंदर) बसता है, पर कोई विरला जीव गुरू की कृपा से (उसे हर जगह) अपनी आँखों से देखता है। (हे भाई!) प्यारा प्रभू बहुत ही ऊँचा है (बेअंत ऊँचे आत्मिक जीवन का मालिक है, और हम जीव नीच-जीवन के है) वह स्वयं ही मेहर करके (जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है।5। ये जगत माया के मोह में फंस कर सोया हुआ है (आत्मिक जीवन की ओर से बेफिक्र हो रहा है)। परमात्मा का नाम भुला के आखिर खुआर ही होता है। (फिर भी ये इस नींद में से जागता नहीं। जागे भी कैसे? इसके बस की बात नहीं) जिसके हुकम के अनुसार (जगत माया के मोह की नींद में) सो रहा है, वही इसे जगाता है (वह प्रभू स्वयं ही इसे) गुरू की मति पे चला के (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है।6। जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीता है। वह (माया के मोह वाली) भटकना दूर कर लेता है। गुरू की कृपा से वह माया के मोह से खलासी पा लेता है। वह उच्च अवस्था प्राप्त कर लेता है। वह मनुष्य परमात्मा की भगती (के रंग) में रंगा जाता है, (इस की बरकति से वही) माया के मोह से निर्लिप रहता है और सवै-भाव मार केवह अपने आप को प्रभू चरणों में मिला लेता है।7। हे नानक! प्रभू खुद ही जीवों को पैदा करता है और खुद ही माया की दौड़ भाग में जोड़ देता है। चौरासी लाख जोनियों के जीवों को रिजक भी प्रभू स्वयं ही पहुँचाता है। पर जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमर के उस सदा स्थिर प्रभू (के नाम रंग) में रंगे रहते हैं। वे वही कार करते हैं जो उस परमात्मा को परवान होती है।8।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |