श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 112 माझ महला ३ ॥ अंदरि हीरा लालु बणाइआ ॥ गुर कै सबदि परखि परखाइआ ॥ जिन सचु पलै सचु वखाणहि सचु कसवटी लावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी गुर की बाणी मंनि वसावणिआ ॥ अंजन माहि निरंजनु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ इसु काइआ अंदरि बहुतु पसारा ॥ नामु निरंजनु अति अगम अपारा ॥ गुरमुखि होवै सोई पाए आपे बखसि मिलावणिआ ॥२॥ मेरा ठाकुरु सचु द्रिड़ाए ॥ गुर परसादी सचि चितु लाए ॥ सचो सचु वरतै सभनी थाई सचे सचि समावणिआ ॥३॥ वेपरवाहु सचु मेरा पिआरा ॥ किलविख अवगण काटणहारा ॥ प्रेम प्रीति सदा धिआईऐ भै भाइ भगति द्रिड़ावणिआ ॥४॥ तेरी भगति सची जे सचे भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ सभना जीआ का एको दाता सबदे मारि जीवावणिआ ॥५॥ हरि तुधु बाझहु मै कोई नाही ॥ हरि तुधै सेवी तै तुधु सालाही ॥ आपे मेलि लैहु प्रभ साचे पूरै करमि तूं पावणिआ ॥६॥ मै होरु न कोई तुधै जेहा ॥ तेरी नदरी सीझसि देहा ॥ अनदिनु सारि समालि हरि राखहि गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥ तुधु जेवडु मै होरु न कोई ॥ तुधु आपे सिरजी आपे गोई ॥ तूं आपे ही घड़ि भंनि सवारहि नानक नामि सुहावणिआ ॥८॥५॥६॥ {पन्ना 112} पद्अर्थ: अंदरि = मनुष्य के शरीर में। सबदि = शबद से। परखि = परख के। परखाइआ = परख कराई। जिन पलै = जिन के पास। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। कसवटी = कॅस लगाने वाली बट्टी (पथरी), कसौटी।1। हउ = मैं। मंनि = मनि, मन में। अंजन = कालख, माया। निरंजन = माया के प्रभाव से रहित प्रभू!।1। रहाउ। पसारा = माया का खिलारा। अगम = अपहुँच। अपारा = बेअंत। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला।2। द्रिढ़ाऐ = दृढ़ कराता है, पक्का टिकाता है। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। सचि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। सचो सचु = सच ही सच, सदा स्थिर प्रभू ही। सचे सचि = सच ही सच, सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में ही।3। किलविख = पाप, भै = डर अदब में रह कर। भाइ = प्रेम में।4। सची = सदा स्थिर रहने वाली। सचे = हे सदा स्थिर प्रभू! देइ = देता है। सबदे = शबद में जोड़ के। मारि = (विकारों की ओर से) मार के।5। तुधै = तूझे ही। सेवी = मैं सेवा करता हूँ। तै = और। सालाही = मैं सालाहता हूँ। प्रभू = हे प्रभू! पूरै करमि = तेरी पूरी बख्शिश से। तूं = तुझे।6। जेहा = जैसा। नदरी = मिहर की निगाह से। सीझसि = सफल होती है। देहा = काया,शरीर। सारि = सार ले कर। समालि = संभाल के। हरि = हे हरी! सहजि = आत्मिक अडोलता में।7। सिरजी = पैदा की। गोई = लीन कर ली। घड़ि = घड़ के, साज के। भंनि = तोड़ के, नाश करके। नामि = नाम में।8। अर्थ: परमात्मा ने हरेक के शरीर के अंदर (अपना ज्योति-रूपी) हीरा लाल टिकाया हुआ है। (पर चुनिंदा भाग्यशालियों ने) गुरू के शबद द्वारा (उस हीरे लाल की) परख करके (साध-संगति में) परख कराई है। जिनके हृदय में सदा स्थिर प्रभू का नाम-हीरा बस गया है, वे सदा स्थिर नाम सिमरते हैं। वे (अपने आत्मिक जीवन की परख के वास्ते) सदा स्थिर नाम को ही कसौटी (के तौर पर) इस्तेमाल करते हैं।1। मैं सदा उनके सदके जाता हूँ, जो गुरू की बाणी को अपने मन में बसाते हैं। उन्होंने माया में विचरते हुए ही (इस बाणी की बरकति से) निरंजन प्रभू को ढूंढ लिया है, वे अपनी सुरति को प्रभू की ज्योति में मिलाए रखते हैं।1। रहाउ। (एक तरफ) इस मानव शरीर में (माया का) बहुत खिलारा बिखरा हुआ है। (दूसरी तरफ) प्रभू माया के प्रभाव सेऊपर है, अपहुँच है, बेअंत है। उसका नाम (मनुष्य को कैसे प्राप्त हो?)। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है, वही (निरंजन के नाम को) प्राप्त करता है। प्रभू स्वयं ही मेहर करके (उसे अपने चरणों में) मिला लेता है।2। पालणहारा प्यारा प्रभू (जिस मनुष्य के हृदय में अपना) सदा स्थिर नाम दृढ़ करता है। वह मनुष्य गुरू की कृपा से सदा स्थिर प्रभू में अपना मन जोड़ता है। (उसे यकीन बन जाता है कि) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही सभी जगहों में मौजूद है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।3। (हे भाई!) मेरा प्यारा प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उसे किसी किस्म की मुथाजी भी नहीं है। वह सब जीवों के पाप और औगुण दूर करने की ताकत रखता है। प्रेम प्यार से उसका ध्यान धरना चाहिए। उसके डर अदब में रह के प्यार से उसकी भगती (अपने हृदय में) पक्की करनी चाहिए।4। हे सदा स्थिर प्रभू! तेरी भक्ति (की दाति जीव को तभी मिलती है यदि) तेरी रजा हो। (हे भाई! भक्ति व अन्य सांसारिक पदार्थों की दाति) प्रभू स्वयं ही (जीवों को) देता है। (दे दे के वह) पछताता भी नहीं। (क्योंकि) सब जीवों को दातें देने वाला वह खुद ही खुद है। गुरू के शबद से (जीव को विकारों की ओर से) मार के सवयं ही आत्मिक जीवन देने वाला है।5। हे हरी! तेरे बिना मुझे (अपना) कोई और (सहारा) नहीं दिखता। हे हरी! मैं तेरी ही सेवा भगती करता हूँ। मैं तेरी ही सिफत-सालाह करता हूँ। हे सदा कायम रहने वाले प्रभू! तू स्वयं ही मुझे अपने चरणों से जोड़े रख। तेरी पूरी मेहर से ही तुझे मिल सकते हैं।6। हे प्रभू! तेरे जैसा मुझे और कोई नहीं दिखता। तेरी मेहर की निगाह से ही (अगर तेरी भगती की दाति मिले तो तेरा यह) शरीर सफल हो सकता है। हे हरी! तू स्वयं ही हर समय जीवों की संभाल करके (विकारों से) रक्षा करता है। (तेरी मेहर से) जो लोग गुरू की शरण पड़ते हैं, वे आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।7। हे प्रभू! तेरे बराबर का मुझे और कोई नही दिखाई देता। तूने खुद ही रचना रची हैख् तू स्वयं ही इसका नाश करता है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) तू स्वयं ही बना-तोड़ के सँवारता है, तूं स्वयं ही अपने नाम की बरकत से (जीवों के जीवन) सुंदर बनाता है।8।5।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |