श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 114 माझ महला ३ ॥ आपे रंगे सहजि सुभाए ॥ गुर कै सबदि हरि रंगु चड़ाए ॥ मनु तनु रता रसना रंगि चलूली भै भाइ रंगु चड़ावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी निरभउ मंनि वसावणिआ ॥ गुर किरपा ते हरि निरभउ धिआइआ बिखु भउजलु सबदि तरावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख मुगध करहि चतुराई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ जेहा आइआ तेहा जासी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥ मनमुख अंधे किछू न सूझै ॥ मरणु लिखाइ आए नही बूझै ॥ मनमुख करम करे नही पाए बिनु नावै जनमु गवावणिआ ॥३॥ सचु करणी सबदु है सारु ॥ पूरै गुरि पाईऐ मोख दुआरु ॥ अनदिनु बाणी सबदि सुणाए सचि राते रंगि रंगावणिआ ॥४॥ रसना हरि रसि राती रंगु लाए ॥ मनु तनु मोहिआ सहजि सुभाए ॥ सहजे प्रीतमु पिआरा पाइआ सहजे सहजि मिलावणिआ ॥५॥ जिसु अंदरि रंगु सोई गुण गावै ॥ गुर कै सबदि सहजे सुखि समावै ॥ हउ बलिहारी सदा तिन विटहु गुर सेवा चितु लावणिआ ॥६॥ सचा सचो सचि पतीजै ॥ गुर परसादी अंदरु भीजै ॥ बैसि सुथानि हरि गुण गावहि आपे करि सति मनावणिआ ॥७॥ जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी हउमै जाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥८॥८॥९॥ {पन्ना 114} पद्अर्थ: आपे = (प्रभू) स्वयं ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = सुहाने प्रेम में। सबदि = शबद से। रता = रंगा जाता है। रसना = जीभ। चलूली = गहरे रंग वाली। भै = (प्रभू के) डर अदब में। भाइ = (प्रभू के) प्रेम में।1। मंनि = मन में। ते = से, साथ। बिखु = जहर। भउजलु = संसार समुंद्र।1। रहाउ। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुगध = मूर्ख। थाइ = जगह में। थाइ न पाई = परवान नही होता। जासी = जाएगा।2। किछू न सूझै = (सही जीवन युक्ति बारे), कुछ भी नहीं सूझता।3। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। करणी = (करणीय) करने योग्य काम। सरु = श्रेष्ठ (काम)। गुरि = गुरू द्वारा। मोख दुआर = (विकारों से) खलासी का दरवाजा। अनदिनु = हर रोज। सबदि = शबद द्वारा। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।4। रसि = रस में। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)।5। रंगु = लगन। सुखि = आत्मिक आनंद में। विटहु = में से।6। पतीजै = पसीजना। अंदरु = हृदय (याद रहे कि ‘अंदरु’ संज्ञा है, ‘अंदरि’ संबंधक है।) बैसि = बैठ के, टिक के। सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। आपे = प्रभू स्वयं ही। सति = सत्य, ठीक।7। जिस नो: देखें ‘जिसु अंदरि’ शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। दंखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। अंतरि = में। दरि = दर पे।8। अर्थ: प्रभू स्वयं ही (जिन मनुष्यों को) आत्मिक अडोलता के (रंग) में रंगता है, श्रेष्ठ प्यार (के रंग) में रंगता है, जिन्हें गुरू के शबद में (जोड़ के यह) रंग चढ़ाता है, उनका मन रंग जाता है। उनका शरीर रंगा जाता है। उनकी जीभ (नाम-) रंग में गहरी लाल हो जाती है। गुरू उन्हें प्रभू के डर-अदब में रख के प्रभू के प्यार में जोड़ के नाम-रंग चढ़ाता है।1। मैं सदा उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ जो उस परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं, जिसे किसी का डर खतरा नहीं। जिन्होंने गुरू की कृपा से निरभउ परमात्मा का ध्यान धरा है। परमात्मा उन्हें गुरू शबद में जोड़ के जहर रूपी संसार समुंदर से पार लंघा लेता है (भाव, उस संसार समुंदर से पार लंघाता है जिस का मोह आत्मिक जीवन वास्ते जहर जैसा है)।1। रहाउ। अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य चतुराईयां करते हैं (और कहते हैं कि हम तीर्थ-स्नान आदि पुंन्य कर्म करते हैं)। (पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य) बाहर से कितना ही पवित्र कर्म करने वाला हो (परमात्मा की हजूरी में) परवान नहीं होता। (वह जगत में आत्मिक जीवन से) जैसा (खाली आता है) वैसा ही (खाली) चला जाता है। (जगत में) अवगुण कर करके (आखिर) पछताता ही (चला जाता) है।2। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को, माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को (सही जीवन युक्ति के बारे में) कुछ नही सूझता। (पिछले जन्मों में मनमुखता के अधीन किए कर्मों के अनुसार) आत्मिक मौत (के संस्कार अपने मन की तख्ती पर) लिखा के वह (जगत में) आता है (यहां भी उसे) समझ नहीं आती, अपने मन के पीछे चल के ही कर्म करता रहता है और (सही जीवन जुगति की सूझ) हासिल नहीं करता, और परमात्मा के नाम से वंचित रह के मानस जनम को व्यर्थ गवा जाता है।3। (हे भाई!) सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरन ही करने योग्य काम है। गुरू का शबद (हृदय में बसाना ही) श्रेष्ठ (उद्यम) है। पूरे गुरू द्वारा ही विकारों से खलासी पाने का दरवाजा मिलता है। (गुरू जिनको) हर समय अपनी बाणी के द्वारा (परमात्मा की सिफत-सालाह) सुनाता रहता है, वे सदा स्थिर प्रभू के नाम के रंग में रंगे जाते हैं। वे उसके प्रेम रंग में रंगे जाते है।4। जिस मनुष्य की जीभ पूरी लगन लगा के परमात्मा के नाम रस में रंगी जाती है, उसका मन आत्मिक अडोलता में मस्त रहता है, उसका शरीर प्रेम रंग में मगन रहता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वह प्यारे प्रीतम प्रभू को मिल लेता है, वह सदा ही आत्मक अडोलता में लीन रहता है।5। जिस मनुष्य के हृदय में लगन है, वही सदा परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाता है। वह गुरू के शबद में जुड़ के आत्मिक अडोलता में आत्मिक आनंद में मगन हुआ रहता है। मैं सदा उन लोगों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने गुरू द्वारा बताई कार में अपना चिक्त लगाया हुआ है।6। गुरू की कृपा से जिन मनुष्यों का हृदय (सिफत-सालाह के रस से) भीगा रहता है, जिनका मन सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमर के सदा स्थिर की याद में पसीजा रहता है वे श्रेष्ठ अंतरात्में में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। प्रभू स्वयं ही उनको ये श्रद्धा बख्शता है कि सिफत-सालाह की कार ही सही जीवन कार है।7। पर, प्रभू का नाम सिमरने की सूझ वही मनुष्य हासिल करता है, जिस पर प्रभू मेहर की निगाह करता है। गुरू की कृपा से (नाम सिमरने से) उसका अहंकार दूर हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में प्रभू का नाम बस जाता है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पे उसको शोभा मिलती है।8।8।9। माझ महला ३ ॥ सतिगुरु सेविऐ वडी वडिआई ॥ हरि जी अचिंतु वसै मनि आई ॥ हरि जीउ सफलिओ बिरखु है अम्रितु जिनि पीता तिसु तिखा लहावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी सचु संगति मेलि मिलावणिआ ॥ हरि सतसंगति आपे मेलै गुर सबदी हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु सेवी सबदि सुहाइआ ॥ जिनि हरि का नामु मंनि वसाइआ ॥ हरि निरमलु हउमै मैलु गवाए दरि सचै सोभा पावणिआ ॥२॥ बिनु गुर नामु न पाइआ जाइ ॥ सिध साधिक रहे बिललाइ ॥ बिनु गुर सेवे सुखु न होवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥३॥ इहु मनु आरसी कोई गुरमुखि वेखै ॥ मोरचा न लागै जा हउमै सोखै ॥ अनहत बाणी निरमल सबदु वजाए गुर सबदी सचि समावणिआ ॥४॥ बिनु सतिगुर किहु न देखिआ जाइ ॥ गुरि किरपा करि आपु दिता दिखाइ ॥ आपे आपि आपि मिलि रहिआ सहजे सहजि समावणिआ ॥५॥ गुरमुखि होवै सु इकसु सिउ लिव लाए ॥ दूजा भरमु गुर सबदि जलाए ॥ काइआ अंदरि वणजु करे वापारा नामु निधानु सचु पावणिआ ॥६॥ गुरमुखि करणी हरि कीरति सारु ॥ गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥ अनदिनु रंगि रता गुण गावै अंदरि महलि बुलावणिआ ॥७॥ सतिगुरु दाता मिलै मिलाइआ ॥ पूरै भागि मनि सबदु वसाइआ ॥ नानक नामु मिलै वडिआई हरि सचे के गुण गावणिआ ॥८॥९॥१०॥ {पन्ना 114-115} पद्अर्थ: सेविअै = यदि सेवा की जाए, यदि आसरा बनाया जाए (सेव् = to betaken oneself to)। अचिंतु = जिसे कोई चिंता ना सता सके। मनि = मन में। आई = आ के। सफलिओ = फलीभूत। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिसु तिखा = उसकी प्यास।1। सचु = सदा स्थिर प्रभू। मेलि = मिला के।1। रहाउ। सेवी = मैं सेवता हूँ। जिनि = जिस (गुरू) ने। मंनि = मनि, मन में।2। बिनु गुर = गुरू के बगैर। सिध = योग साधनों में लगे हुए योगी। साधिक = साधन करने वाले। पूरै भागि = पूरी किस्मत से।3। आरसी = मुँह देखने वाला शीशा। मोरचा = जंगाल। सोखै = सुखा दे। अनहत = एक रस, लगातार, अन+आहत। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।4। किहु = किस ओर से। गुरि = गुरू ने। आपु = अपना आत्मिक जीवन। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।5। इकसु सिउ = एक (परमात्मा) से ही। लिव = लगन, प्यार। सबदि = शबद से। निधानु = खजाना।6। किरति = सिफत-सालाह। करणी = करने योग्य काम (करणीय)। सारु = श्रेष्ठ। मोख दुआरु = विकारों से खलासी का दरवाजा। अनदिनु = हर रोज। महलि = प्रभू के महल में।7। वडिआई = आदर, इज्जत। सचे के = सदा स्थिर रहने वाले के।8। अर्थ: अगर (मनुष्य) गुरू को (अपनी जिंदगी का) आसरा परना (अंगोछा) बना ले, तो उसको ये भारी इज्जत मिलती है कि वह परमात्मा उसके मन में आ बसता है जिसे दुनिया की कोई भी चिंता छू नही सकती। (हे भाई!) परमात्मा (मानो) एक फलदार वृक्ष है जिस में से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस रिसता है। जिस मनुष्य ने (वह रस) पी लिया, नाम रस ने उसकी (माया की) प्यास दूर कर दी।1। मैं सदके हूँ कुर्बान हूँ (परमात्मा से)। वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा साध-संगति में मिला के (अपने चरणों में) जोड़ लेता है। परमात्मा खुद ही साध-संगति का मेल करता है। (जो मनुष्य साध-संगति में जुड़ता है वह) गुरू के शबद से परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ। (हे भाई!) मैंने उस गुरू को अपना आसरा परना बनाया है, जिसने अपने शबद से मेरा जीवन संवार दिया है, जिसने परमात्मा का नाम मेरे मन में बसा दिया है। (हे भाई!) परमात्मा का नाम पवित्र है, अहंकार की मैल दूर कर देता है। (जो मनुष्य प्रभू नाम को अपने मन में बसाता है वह) सदा स्थिर प्रभू के दर पे शोभा कमाता है।2। पर योग साधना करने वाले और योग साधना में लगे हुए अनेकों योगी तरले लेते रह गए, परमात्मा का नाम गुरू (की शरण) के बिना नहीं मिलता। गुरू की शरण में आए बिना आत्मिक आनंद नही बनता। बड़ी किस्मत से गुरू मिलता है।3। मनुष्य का ये मन आरसी (दर्पण-Looking Glass) समान है (इसके द्वारा मनुष्य अपना आत्मिक जीवन देख सकता है, पर) सिर्फ वही मनुष्य देखता है जो गुरू की शरण पड़े। (गुरू का आसरा लिए बिना इस मन को अहंकार का जंग लगा रहता है)। (जब) गुरू के दर पे पड़ कर मनुष्य अपने अंदर से अहंकार खत्म कर देता है तो (फिर मन को अहम् का) जंग नहीं लगता। (और मनुष्य इस के द्वारा अपने जीवन को देख परख सकता है)। (गुरू की शरण में पड़ा मनुष्य) गुरू की पवित्र बाणी को गुरू के शबद को एक रस (अपने अंदर) प्रबल करे रखता है और (इस तरह) गुरू के शबद की बरकति से वह सदा स्थिर प्रभू में लीन रहता है।4। गुरू की शरण पड़े बिना किसी अन्य पक्ष से भी (अपना आत्मिक जीवन) देखा परखा नहीं जा सकता। (जिसे दिखाया है) गुरू ने (ही) कृपा करके (उसका) अपना आत्मिक जीवन दिखाया है। (फिर वह भाग्यशाली को ये निश्चय बन जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही स्वयं (सब जीवों में) व्यापक हो रहा है (अपने स्वै की देख परख करने वाला मनुष्य) सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।5। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है, वह सिर्फ परमात्मा से ही प्रेम डाले रखता है, वह गुरू के शबद में जुड़ के (अपने अंदर से) माया वाली भटकना दूर कर लेता है। वह अपने शरीर में रह के ही (भाव, मन को बाहर भटकने से रोक के) प्रभू नाम का वणज-व्यापार करता है और प्रभू का सदा स्थिर रहने वाला नाम खजाना प्राप्त करता है।6। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की सिफत-सालाह को ही करने योग्य काम समझता है, सबसे श्रेष्ठ व उक्तम जानता है। गुरू के सन्मुख रह के वह (सिफत सलाह की बरकति से) विकारों से खलासी का दरवाजा ढूँढ लेता है। वह हर समय प्रभू के नाम रंग में रंगा रह के प्रभू के गुण गाता रहता है। प्रभू उसे अपने चरणों में अपनी हजूरी में बुलाए रखता है (जोड़े रखता है)।7। गुरू ही (सिफत-सालाह की, नाम की) दात देने वाला है। (पर, गुरू तब ही) मिलता है (जब परमात्मा स्वयं) मिलाए। (जिस मनुष्य को) पूरी किस्मत से (गुरू मिल जाता है वह अपने) मन में गुरू का शबद बसाए रखता है। हे नानक! उस मनुष्य को सम्मान मिलता है कि वह प्रभू का नाम जपता रहता है वह सदा स्थिर हरी के गुण गाता रहता है।8।9।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |