श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 115 माझ महला ३ ॥ आपु वंञाए ता सभ किछु पाए ॥ गुर सबदी सची लिव लाए ॥ सचु वणंजहि सचु संघरहि सचु वापारु करावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हरि गुण अनदिनु गावणिआ ॥ हउ तेरा तूं ठाकुरु मेरा सबदि वडिआई देवणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ वेला वखत सभि सुहाइआ ॥ जितु सचा मेरे मनि भाइआ ॥ सचे सेविऐ सचु वडिआई गुर किरपा ते सचु पावणिआ ॥२॥ भाउ भोजनु सतिगुरि तुठै पाए ॥ अन रसु चूकै हरि रसु मंनि वसाए ॥ सचु संतोखु सहज सुखु बाणी पूरे गुर ते पावणिआ ॥३॥ सतिगुरु न सेवहि मूरख अंध गवारा ॥ फिरि ओइ किथहु पाइनि मोख दुआरा ॥ मरि मरि जमहि फिरि फिरि आवहि जम दरि चोटा खावणिआ ॥४॥ सबदै सादु जाणहि ता आपु पछाणहि ॥ निरमल बाणी सबदि वखाणहि ॥ सचे सेवि सदा सुखु पाइनि नउ निधि नामु मंनि वसावणिआ ॥५॥ सो थानु सुहाइआ जो हरि मनि भाइआ ॥ सतसंगति बहि हरि गुण गाइआ ॥ अनदिनु हरि सालाहहि साचा निरमल नादु वजावणिआ ॥६॥ मनमुख खोटी रासि खोटा पासारा ॥ कूड़ु कमावनि दुखु लागै भारा ॥ भरमे भूले फिरनि दिन राती मरि जनमहि जनमु गवावणिआ ॥७॥ सचा साहिबु मै अति पिआरा ॥ पूरे गुर कै सबदि अधारा ॥ नानक नामि मिलै वडिआई दुखु सुखु सम करि जानणिआ ॥८॥१०॥११॥ {पन्ना 115-116} पद्अर्थ: आपु = अपनत्व,स्वैभाव, अहम्। सभ किछु = उच्च आत्मिक जीवन वाले हरेक गुण। सची = सदा कायम रहने वाली। वणंजहि = वणज करते हैं, व्यापार करते हैं। संघरहि = संग्रहि, एकत्र करते हैं।1। सबदि = शबद में (जोड़ के)।1। रहाउ। सभि = सारे। सुहाइआ = सुहाने। जितु = जिस (समय) में। मनि = मन में। ते = से।2। भाउ = प्रेम। सतिगुरि तुठै = अगर गुरू प्रसन्न हो जाए। अन रसु = और पदार्थों का चस्का। मंनि = मनि, मन में। बाणी = (गुरू की) बाणी के द्वारा।3। अंध = माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य। ओइ = ‘ओह’ का बहुवचन, वे। पाइनि = प्राप्त होते हैं, पाते हैं, पा सकते हैं। मरि = आत्मिक मौत ले के। दरि = दर पे।4। सबदै सादु = शबद का स्वाद। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। वखाणहि = नाम सिमरते हैं। सेवि = सेव करके, सिमर के। नउ निधि = नौ खजाने, दुनिया का सारा ही धन पदार्थ।5। थानु = स्थान, हृदय। मनि = मन में। बहि = बैठ के। नादु = बाजा।6। रासि = राशि, पूँजी, सरमाया। खोटी = जो सरकारी खजाने में दाखिल नही की जाए। पासारा = बिखराव, खिलारा। भरमे = भटकना में पड़ के। भूलै = कुमार्ग पर पड़े हुए। मरि जनमहि = मर के जन्मते हैं, जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।7। मै = मुझे। कै सबदि = के शबद से। अधारा = आसरा। नामि = नाम में (जुड़ने से)। सम = बराबर, एक सा।8। अर्थ: जो मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै भाव (अहम्, ममता) दूर करता है, वह (उच्च आत्मिक जीवन वाले) हरेक गुण ग्रहिण कर लेता है। वह गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा के चरणों में सदा टिकी रहने वाली लगन बना लेता है। (स्वै भाव दूर करने वाले मनुष्य) सदा स्थिर प्रभू के नाम का सौदा करते हैं। नाम धन एकत्र करते है। और नाम ही का व्यापार करते हैं (भाव, सत्संगीयों में बैठ के भी सिफत-सालाह करते रहते हैं)।1। मैं सदा उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ, जो हर रोज परमात्मा के गुण गाते हैं। हे प्रभु! तू मेरा मालिक है मैं तेरा सेवक हूँ। (तू स्वयं ही) गुरू के शबद में जोड़ के (अपनी सिफत-सालाह की) वडिआई (बड़प्पन) बख्शता है (मुझे भी ये दाति दे)।1। रहाउ। (हे भाई!) मुझे वो सारे पल अच्छे लगते हैं वह सारे वक्त सुहाने लगते हैं जिस वक्त सदा कायम रहने वाला प्रभू मेरे मन में प्यारा लगे। सदा स्थिर प्रभू का आसरा लेने से सदा स्थिर प्रभू का नाम हासिल हो जाता है।2। अगर गुरू प्रसन्न हो जाए, तो मनुष्य को परमात्मा का प्रेम (आत्मिक जीवन के लिए) खुराक मिल जाती है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद अपने मन में बसाता है, उसका दुनिया के पदार्थों से चस्का खत्म हो जाता है। वह सतिगुरू की बाणी में जुड़ के पूरे गुरू से परमात्मा का सदा स्थिर नाम प्राप्त करता है। संतोष और आत्मिक अडोलता का आनंद हासिल करता है।3। माया के मोह में अंधे हुए मूर्ख गवार मनुष्य गुरू का आसरा परना नहीं लेते, वे फिर अन्य किसी भी जगह से विकारों की खलासी का रास्ता नहीं ढूँढ सकते। वे (इस तरह) आत्मिक मौत का शिकार हो के बार बार पैदा होते मरते रहते हैं, जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, और यमराज के दर पर चोटें खाते रहते हैं।4। जब कोई (भाग्यशाली) गुरू के शबद का स्वाद जान लेते हैं, तब वे अपने आत्मिक जीवन को पहचानते हैं (परखते पड़तालते रहते हैं) गुरू की पवित्र बाणी से गुरू के शबद के द्वारा उस परमात्मा की सिफत-सालाह उचारते रहते हैं। सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का सिमरन करके वे सदैव आत्मिक आनंद लेते हैं, और परमात्मा के नाम को वे अपने मन में (ऐसे) बसाते हैं (जैसे वह दुनिया के सारे) नौ खजाने (हैं)।5। (हे भाई!) वह हृदय स्थल सुहाना बन जाता है जो परमात्मा के मन को प्यारा लगता (और उसी मनुष्य का हृदय स्थल सुहाना बनता है जिसने) साध-संगति में बैठ के परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाए हैं। ऐसे मनुष्य हर रोज सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह करते हैं, सिफत-सालाह का पवित्र बाजा बजाते हैं।6। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य वही पूँजी जोड़ते हैं, वही पसारा पसारते हैं, जो ईश्वरीय टकसाल में खोटा माना जाता है। वे निरी नाशवंत कमाई ही करते हैं और बहुत आत्मिक दुख कलेश पाते हैं। वे माया की भटकना में पड़ के दिनरात कुमार्ग पर चलते हैं और मानस जनम व्यर्थ गवा जाते हैं।7। (हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाला मालिक मुझे (अब) बहुत प्यारा लगता है। पूरे गुरू के शबद में जुड़ के मैंने उस मालिक को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है। हे नानक! प्रभू के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) इज्जत मिलती है। प्रभू नाम में जुड़ने वाले लोग दुनिया के दुख सुख को एक समान ही जानते हैं।8।10।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |