श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 116 माझ महला ३ ॥ तेरीआ खाणी तेरीआ बाणी ॥ बिनु नावै सभ भरमि भुलाणी ॥ गुर सेवा ते हरि नामु पाइआ बिनु सतिगुर कोइ न पावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हरि सेती चितु लावणिआ ॥ हरि सचा गुर भगती पाईऐ सहजे मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु सेवे ता सभ किछु पाए ॥ जेही मनसा करि लागै तेहा फलु पाए ॥ सतिगुरु दाता सभना वथू का पूरै भागि मिलावणिआ ॥२॥ इहु मनु मैला इकु न धिआए ॥ अंतरि मैलु लागी बहु दूजै भाए ॥ तटि तीरथि दिसंतरि भवै अहंकारी होरु वधेरै हउमै मलु लावणिआ ॥३॥ सतिगुरु सेवे ता मलु जाए ॥ जीवतु मरै हरि सिउ चितु लाए ॥ हरि निरमलु सचु मैलु न लागै सचि लागै मैलु गवावणिआ ॥४॥ बाझु गुरू है अंध गुबारा ॥ अगिआनी अंधा अंधु अंधारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा कमावहि फिरि बिसटा माहि पचावणिआ ॥५॥ मुकते सेवे मुकता होवै ॥ हउमै ममता सबदे खोवै ॥ अनदिनु हरि जीउ सचा सेवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥६॥ आपे बखसे मेलि मिलाए ॥ पूरे गुर ते नामु निधि पाए ॥ सचै नामि सदा मनु सचा सचु सेवे दुखु गवावणिआ ॥७॥ सदा हजूरि दूरि न जाणहु ॥ गुर सबदी हरि अंतरि पछाणहु ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥११॥१२॥ {पन्ना 116} पद्अर्थ: खाणी = (खानि। अंडज, जेरज, उतभुज, सेतज। चौरासी लाख जोनियों के जीवों के पैदा होने के वसीले)। बाणी = बणतर। सभ = सारी सृष्टि। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाणी = कुमार्ग पर पड़ी हुई।1। सेती = साथ। सचा = सच्चा, सदा स्थिर। गुर भगती = गुरू में श्रद्धा रखने से। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। मंनि = मन में।1। रहाउ। सभ किछु = हरेक चीज। मनसा = मनीषा, कामना। करि = कर के। वथू का = वस्तुओं का (संस्कृत के वसथु, वस्तु का प्राकृत रूप ‘वथु’ है)।2। इकु = परमात्मा को। बहु = बहुत। दूजै भाऐ = दूजै भाइ, माया में प्यार करने के कारण। तटि = (नदी के) तट पे। तीरथि = तीर्थ पर। दिसंतरि = देस अंतरि, (और और) देश में, देश देशांतर। अहंकारी होरु = और (ज्यादा) अहंकारी (होता है)।3। जीवत मरै = जीवित मरता है, कार्य-व्यवहार करते हुए ही माया के मोह से विरक्त रहता है। सिउ = साथ। सचु = सॅच, सदा स्थिर रहने वाला। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।4। अंध गुबारा = घोर अंधकार। बिसटा = गंद, मैला। पचावणिआ = जलते हैं।5। मुकता = माया के मोह से आजाद। ममता = अपनत्व। सबदे = शबद से। सेवी = सेवा करके।6। मेलि = मेल में, चरणों में। ते = से। निधि = खजाना। नामि = नाम में।7। हजूरि = हाजिर नाजर, अंग संग। पछाणहु = जान पहिचान बनाओ।8। अर्थ: हे प्रभू! अंडज, जेरज, सेतज व उतभुज-चौरासी लाख जीवों की उत्पक्ति की ये) खाणियां तेरी ही बनाई हुई हैं। सब जीवों की बनतर (रचना) तेरी ही रची हुई है। (पर हे भाई! उस रचनहार प्रभू के) नाम के बिना सारी सृष्टि गलत रास्ते पे जा रही है। परतात्मा का नाम गुरू की बताई हुई सेवा करने से मिलता है। गुरू (की शरण) के बिना कोई मनुष्य (परमात्मा की भक्ति) प्राप्त नहीं कर सकता।1। (हे भाई!) मैं उन (भाग्यशाली लोगों से) सदके कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा (के चरणों) के साथ अपना चिक्त जोड़ते हैं। (पर) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा गुरू पर श्रद्धा रखने से ही मिलता है। (जो मनुष्य गुरू पर श्रद्धा बनाते हैं वे) आत्मिक अडोकलता में टिक के (परमात्मा के नाम को अपने) मन में बसाते हैं।1। रहाउ। अगर मनुष्य गुरू का पल्ला पकड़े तो वह हरेक चीज प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जिस तरह की कामना मन में धार के (गुरू की चरणी लगता है, वैसा ही फल पा लेता है)। गुरू सब पदार्थों को देने वाला है। (परमात्मा जीव को उसकी) पूरी किस्मत के सदका (गुरू के साथ) मिलाता है।2। (जितना समय मनुष्य का) ये मन (विकारों की मैल से) मैला (रहता) है, (तब तक मनुष्य) एक परमात्मा को नहीं सिमरता। माया से प्यार पड़ने के कारण मनुष्य के अंदर (मन में विकारों की) बहुत मैल लगी रहती है। (ऐसे जीवन वाला मनुष्य किसी) नदी के किनारे पर जाता है, (किसी) तीर्थ पर (भी) जाता है। देश-देशांतरों में भ्रमण करता है (पर इस तरह वह तीर्थ यात्राओं आदि के गुमान से) और भी ज्यादा अहंकारी हो जाता है। वह अपने अंदर अधिक अहंकार की मैल एकत्र कर लेता है।3। जब मनुष्य गुरू की शरण में आता है, तब (उसके मन में से अहंकार) की मैल दूर हो जाती है। वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी स्वै भाव (घमण्ड) से मरा रहता है, और परमात्मा (के चरणों) से अपना चिक्त जोड़े रखता है। परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, और पवित्र स्वरूप है, उसको (अहम् आदि विकारों की) मैल छू नही सकती। जो मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभू (की याद) में लगता है, वह (अपने अंदर से विकारों की) मैल दूर कर लेता है।4। गुरू के बिना (जगत में माया के मोह का) घोर अंधकार छाया रहता है। गुरू के ज्ञान के बगैर मनुष्य (उस मोह में) अंधा हुआ रहता है। (मोह के अंधेरे में फंसे हुए की वही हालत होती है जैसे) गंदगी के कीड़े गंदगी (खाने की) कमाई ही करते हैं और फिर गंदगी में ही दुखी होते रहते हैं।5। जो मनुष्य (माया के मोह से) मुक्त (गुरू) की शरण लेता है, वह भी माया के मोह से स्वतंत्र हो जाता है। वह गुरू शबद में जुड़ के (अपने अंदर से) अहंकार व ममता को दूर कर लेता है। (गुरू की शरण की बरकति से) वह हर रोज सदा स्थिर प्रभू का सिमरन करता है। पर, गुरू (भी) पूरी किस्मत से ही मिलता है।6। जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं ही बख्शिश करता है और गुरू चरणों में मिलाता है, वह मनुष्य पूरे गुरू से नाम खजाना हासिल कर लेता है। सदा स्थिर प्रभू के नाम में सदा टिके रहने के कारण उसका मन (विकारों की तरफ से) अडोल हो जाता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का सिमरन करके वह अपना (हरेक किस्म का) दुख मिटा लेता है।7। (हे भाई!) परमात्मा सदैव (सब जीवों के) अंग-संग (बसता) है। उसे अपने से दूर बसता ना समझो। गुरू के शबद में जुड़ के उस परमात्मा के साथ अपने हृदय में जान-पहिचान बनाओ! हे नानक! प्रभू के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) सत्कार मिलता है, (पर, प्रभू का नाम) पूरे गुरू से ही मिलता है।8।11।12। माझ महला ३ ॥ ऐथै साचे सु आगै साचे ॥ मनु सचा सचै सबदि राचे ॥ सचा सेवहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी सचा नामु मंनि वसावणिआ ॥ सचे सेवहि सचि समावहि सचे के गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ पंडित पड़हि सादु न पावहि ॥ दूजै भाइ माइआ मनु भरमावहि ॥ माइआ मोहि सभ सुधि गवाई करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥ सतिगुरु मिलै ता ततु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ सबदि मरै मनु मारै अपुना मुकती का दरु पावणिआ ॥३॥ किलविख काटै क्रोधु निवारे ॥ गुर का सबदु रखै उर धारे ॥ सचि रते सदा बैरागी हउमै मारि मिलावणिआ ॥४॥ अंतरि रतनु मिलै मिलाइआ ॥ त्रिबिधि मनसा त्रिबिधि माइआ ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके चउथे पद की सार न पावणिआ ॥५॥ आपे रंगे रंगु चड़ाए ॥ से जन राते गुर सबदि रंगाए ॥ हरि रंगु चड़िआ अति अपारा हरि रसि रसि गुण गावणिआ ॥६॥ गुरमुखि रिधि सिधि सचु संजमु सोई ॥ गुरमुखि गिआनु नामि मुकति होई ॥ गुरमुखि कार सचु कमावहि सचे सचि समावणिआ ॥७॥ गुरमुखि थापे थापि उथापे ॥ गुरमुखि जाति पति सभु आपे ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआए नामे नामि समावणिआ ॥८॥१२॥१३॥ {पन्ना 116-117} पद्अर्थ: अैथै = इस लोक में, इस मानस जनम में। साचे = सदा स्थिर प्रभू के साथ एक मेक, अडोल चिक्त। सु = वह लोग। आगै = परलोक में। सचा = सदा स्थिर, अडोल।1। मंनि = मनि, मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।1। रहाउ। सादु = स्वाद, आत्मिक आनंद। भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = माया के मोह में। भरमावहि = भटकाते हैं, दौड़ाते हैं। मोहि = मोह में। सुधि = सूझ। करि = कर के।2। ता = तब। ततु = असलियत। मरै = मरता है, मोह की पकड़ से ऊपर उठ जाता है।3। किलविख = पाप। निवारे = निर्वित करता है, दूर करता है। उर = हृदय। धारे = धारण करके, संभाल के। बैरागी = माया के मोह से उपराम।4। अंतरि = शरीर के अंदर। त्रिबिधि = तीन गुणों वाली। मोनी = मौनधारी ऋषि, समाधियां लगाने वाले। चौथा पद = वह आत्मिक अवस्था जो माया के तीन गुणों के असर से ऊपर रहती है। सार = सूझ।5। से जन = वह लोग। सबदि = शबद में। अपारा = बेअंत। रसि = रस में, आनंद से।6। सचु सोई = वह सदा स्थिर परमात्मा ही। नामि = नाम में।7। थापे = सृजन करता है। थापि = सृज के। उथापे = नाश करता है। आपे = प्रभू स्वयं ही।8। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य इस लोक में अडोल चिक्त रहते हैं, वे परलोक में भी प्रभू के साथ एकमेक हो के रहते हैं। जो लोग सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद में रचे रहते हैं, उनका मन अडोल हो जाता है। वे सदा ही सदा स्थिर प्रभू का सिमरन करते हैं, सिमरन की ही कमाई करते हैं, सदा स्थिर प्रभू को ही सिमरते रहते हैं।1। मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू का सिमरन करते हैं, सदा स्थिर प्रभू के गुण गाते हैं, वे सदा स्थिर प्रभू में लीन रहते हैं।1। रहाउ। पंडित लोग (वेद आदि पुस्तकें) पढ़ते (तो) हैं, पर, आत्मिक आनंद नही ले सकते। (क्योंकि) वे माया के मोह में फंस के माया की ओर ही अपने मन को दौड़ाते रहते हैं। माया के मोह के कारण उन्होंने (उच्च आत्मिक जीवन के बारे में) सारी सूझ गवा ली होती है, (और माया की खातिर) औगुण कर करके पछताते रहते हैं।2। जब मनुष्य को गुरू मिल जाए तो वह असलियत समझ लेता है, वह परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसा लेता है। वह गुरू के शबद में जुड़ के माया के मोह की तरफ से अडोल हो जाता है। अपने मन को काबू कर लेता है, और मोह से छुटकारा पाने का दरवाजा ढूँढ लेता है।3। जब मनुष्य गुरू का शबद अपने हृदय में टिका के रखता है, वह (अपने अंदर से) पाप काट लेता है, क्रोध दूर कर लेता है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं, वे माया के मोह से सदैव उपराम रहते हैं। वे (अपने अंदर से) अहंकार मार के (प्रभू चरणों में) मिले रहते हैं।4। (हे भाई! हरेक जीव) के अंदर (प्रभू की जोति) रत्न मौजूद है, पर ये रतन तभी मिलता है यदि (गुरू) मिला दे (मनुष्य अपनी कोशिशों, सियानप, बुद्धिमक्ता से हासिल नही कर सकता, क्योंकि) तीन गुणों वाली माया के प्रभाव में मनुष्य की मनोकामना तीन गुणों अनुसार (बंटी रहती) है। पण्डित व अन्य सियाने समाधियां लगाने वाले (वेद आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ पढ़ के थक जाते हैं (पर, त्रिगुणी माया के प्रभाव के कारण) वे उस आत्मिक अवस्था की सूझ प्राप्त नही कर सकते जो माया के तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर टिकी रहती है।5। (हे भाई! इस त्रिगुणी माया के सामने जीवों की पेश नही जा सकती, जीवों को) प्रभू स्वयं ही (अपने नाम रंग में) रंगता है, स्वयं ही (अपना प्रेम-) रंग (जीवों के हृदयों पर) चढ़ाता है। जिन मनुष्यों को प्रभू गुरू के शबद में रंगता है, वे मनुष्य उसके प्रेम में मस्त रहते हैं। उन्हें उस बेअंत हरी का बहुत प्रेम रंग चढ़ा रहता है। वे हरी के नाम में (भीग के) आत्मिक आनंद से परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।6। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहते हैं, उनके वास्ते सदा स्थिर प्रभू (का नाम) ही रिद्धियां सिद्धियां और संजम है। गुरू के सन्मुख रह के वे परमात्मा के साथ गहरी सांझ पाते हैं। परमात्मा के नाम में लीन होने के कारण उन्हें माया के मोह से मुक्ति मिली रहती है। गुरू के सन्मुख रहने वाले लोग सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरन (की) कार (नित्य) करते है। (इस तरह) वे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में सदा लीन रहते हैं।7। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ये निष्चय रखता है कि प्रभू स्वयं ही सृष्टि रचता है। रच के स्वयं ही नाश करता है। परमात्मा स्वयं ही गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए (उच्च) जाति है और (लोक परलोक की) इज्जत है। हे नानक! गुरू के आसरे रहने वाला मनुष्य (सदा प्रभू का) नाम सिमरता है, और सदा प्रभू के नाम में ही लीन रहता है।8।12।13। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |