श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 121 माझ महला ३ ॥ निरमल सबदु निरमल है बाणी ॥ निरमल जोति सभ माहि समाणी ॥ निरमल बाणी हरि सालाही जपि हरि निरमलु मैलु गवावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी सुखदाता मंनि वसावणिआ ॥ हरि निरमलु गुर सबदि सलाही सबदो सुणि तिसा मिटावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ निरमल नामु वसिआ मनि आए ॥ मनु तनु निरमलु माइआ मोहु गवाए ॥ निरमल गुण गावै नित साचे के निरमल नादु वजावणिआ ॥२॥ निरमल अम्रितु गुर ते पाइआ ॥ विचहु आपु मुआ तिथै मोहु न माइआ ॥ निरमल गिआनु धिआनु अति निरमलु निरमल बाणी मंनि वसावणिआ ॥३॥ जो निरमलु सेवे सु निरमलु होवै ॥ हउमै मैलु गुर सबदे धोवै ॥ निरमल वाजै अनहद धुनि बाणी दरि सचै सोभा पावणिआ ॥४॥ निरमल ते सभ निरमल होवै ॥ निरमलु मनूआ हरि सबदि परोवै ॥ निरमल नामि लगे बडभागी निरमलु नामि सुहावणिआ ॥५॥ सो निरमलु जो सबदे सोहै ॥ निरमल नामि मनु तनु मोहै ॥ सचि नामि मलु कदे न लागै मुखु ऊजलु सचु करावणिआ ॥६॥ मनु मैला है दूजै भाइ ॥ मैला चउका मैलै थाइ ॥ मैला खाइ फिरि मैलु वधाए मनमुख मैलु दुखु पावणिआ ॥७॥ मैले निरमल सभि हुकमि सबाए ॥ से निरमल जो हरि साचे भाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि गुरमुखि मैलु चुकावणिआ ॥८॥१९॥२०॥ {पन्ना 121} पद्अर्थ: सालाही = मैं सलाहता हूँ। जपि = जप के।1। सुखदाता = सुख देने वाला। मंनि = मनि, मन में। गुर सबदि = गुरू के शबद द्वारा। सलाही = मैं सलाहता हूँ। सबदे = शबद ही। तिसा = माया की तृष्णा।1। रहाउ। मनि = मन में। आऐ = आ के। नादु = गरज।2। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से। आपु = स्वै भाव।3। सबदे = शबद के द्वारा। वाजै = बजती है। अनहद धुनि बाणी = वह बाणी जिस की धुनि एक रस होती रहती है। दरि = दर पर।4। ते = से, की छूह से। सबदि = शबद से। नामि = नाम में।5। सोहै = सुंदर हो जाता है, सुंदर जीवन वाला बन जाता है। मोहै = मस्त हो जाता है। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम।6। दूजै भाइ = माया के मोह में, प्रभू के बिना किसी और के प्यार में। मैलै थाइ = मैली जगह में।7। सभि = सारे (जीव)। हुकमि = हुकम अनुसार। सबाऐ = सारे। भाऐ = अच्छे लगे।8। अर्थ: परमात्मा की पवित्र ज्योति सब जीवों में समाई हुई है। उसकी सिफत सालाह का शबद (सबको) पवित्र करने वाला है। उसकी सिफत सालाह की बाणी (सबको) पवित्र करने वाली है। (हे भाई!) मैं उस हरी की पवित्र बाणी के द्वारा उसकी सिफत सालाह करता हूँ। परमात्मा का नाम जप के हम पवित्र हो जाते हैं। (विकारों की) मैल (मन से) दूर कर लेते हैं।1। मैं उनके सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो सुख देने वाले परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं। मैं गुरू के शबद में जुड़ के पवित्र परमात्मा की सिफत सालाह करता हूँ। गुरू का शबद ही सुन के मैं (अपने अंदर से माया की) तृष्णा को मिटाता हूँ।1। रहाउ। (जिस मनुष्य के) मन में पवित्र परमात्मा का नाम आ बसता है, उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका तन पवित्र हो जाता है। (वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है। वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के पवित्र गुण सदैव गाता है (जैसे जोगी नाद बजाता है) वह मनुष्य सिफत सालाह का (जैसे) नाद बजाता है।2। जिस मनुष्य ने गुरू से पवित्र परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल प्राप्त कर लिया, उसके अंदर से स्वै भाव (अहम्) खत्म हो जाता है। उसके हृदय में माया का मोह नहीं रह जाता। (ज्यों ज्यों वह मनुष्य) परमात्मा के सिफत सालाह वाली पवित्र बाणी अपने मन में बसाता है, परमात्मा के साथ उसका पवित्र गहरा अपनापन बनता है, उसकी सुरति प्रभू चरणों से जुड़ती है जो उसे (और भी) पवित्र करती है।3। जो मनुष्य पवित्र परमात्मा का सिमरन करता है, वह (स्वयं भी) पवित्र हो जाता है। गुरू के शबद की बरकति से वह (अपने मन में से) अहंकार की मैल धो लेता है। उस मनुष्य के अंदर एक रस लगन पैदा करने वाली सिफत सालाह की पवित्र बाणी अपना प्रभाव बनाए रखती है, और वह सदा स्थिर प्रभू के दर पे शोभा पाता है।4। पवित्र परमात्मा के (नाम की) छोह से सारी लोकाई पवित्र हो जाती है। (ज्यों ज्यों मनुष्य अपने मन को) परमात्मा के सिफत सालाह के शबद में परोता है (त्यों त्यों उसका) मन पवित्र होता जाता है। बहुत भाग्यशाली मनुष्य ही प्रभू के नाम में लीन होते हैं। जो मनुष्य नाम में जुड़ता है, वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है, वह सुंदर जीवन वाला बन जाता है।5। वही मनुष्य पवित्र जीवन वाला बनता है, जो गुरू के शबद में जुड़ कर सुंदर जीवन वाला बनता है। पवित्र प्रभू के नाम में उसका मन मस्त रहता है, उसका तन (भाव, हरेक ज्ञान इंद्रियां) मस्त रहता है। सदा स्थिर परमात्मा के नाम में जुड़ने के कारण उसे (विकारों की) मैल कभी नहीं लगती। सदा स्थिर रहने वाला प्रभू उसका मुंह (लोक परलोक में) उज्जवल कर देता है।6। पर, जो मनुष्य माया के प्यार में मस्त रहता है, उसका मन (विकारों की मैल से) मैला (ही) रहता है। (वह लकीरें खीच खीच के बेशक स्वच्छ चौके बनाएं, पर उसके हृदय का) चौका मैला ही रहता है। (उसकी सुरति सदा) मैली जगह पर ही टिकी रहती है। वह मनुष्य (विकारों की) मैल को ही अपनी आत्मिक खुराक बनाए रखता है (जिस करके वह अपने अंदर) और और (विकारों की) मैल बढ़ाता जाता है। (इस तरह) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों की) मैल (बढ़ा बढ़ा के) दुख सहता है।7। (पर जीवों के भी क्या वश?) विकारी जीव और पवित्र आत्मा जीव सारे परमात्मा के हुकम में (ही चल रहे हैं)। जो लोग सदा स्थिर हरी को प्यारे लगने लगते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के बताए रास्ते पर चलता है, उसके मन में परमात्मा का नाम बसता है, वह (अपने अंदर से विकार आदि की) मैल दूर कर लेता है।8।19।20। माझ महला ३ ॥ गोविंदु ऊजलु ऊजल हंसा ॥ मनु बाणी निरमल मेरी मनसा ॥ मनि ऊजल सदा मुख सोहहि अति ऊजल नामु धिआवणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी गोबिंद गुण गावणिआ ॥ गोबिदु गोबिदु कहै दिन राती गोबिद गुण सबदि सुणावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ गोबिदु गावहि सहजि सुभाए ॥ गुर कै भै ऊजल हउमै मलु जाए ॥ सदा अनंदि रहहि भगति करहि दिनु राती सुणि गोबिद गुण गावणिआ ॥२॥ मनूआ नाचै भगति द्रिड़ाए ॥ गुर कै सबदि मनै मनु मिलाए ॥ सचा तालु पूरे माइआ मोहु चुकाए सबदे निरति करावणिआ ॥३॥ ऊचा कूके तनहि पछाड़े ॥ माइआ मोहि जोहिआ जमकाले ॥ माइआ मोहु इसु मनहि नचाए अंतरि कपटु दुखु पावणिआ ॥४॥ गुरमुखि भगति जा आपि कराए ॥ तनु मनु राता सहजि सुभाए ॥ बाणी वजै सबदि वजाए गुरमुखि भगति थाइ पावणिआ ॥५॥ बहु ताल पूरे वाजे वजाए ॥ ना को सुणे न मंनि वसाए ॥ माइआ कारणि पिड़ बंधि नाचै दूजै भाइ दुखु पावणिआ ॥६॥ जिसु अंतरि प्रीति लगै सो मुकता ॥ इंद्री वसि सच संजमि जुगता ॥ गुर कै सबदि सदा हरि धिआए एहा भगति हरि भावणिआ ॥७॥ गुरमुखि भगति जुग चारे होई ॥ होरतु भगति न पाए कोई ॥ नानक नामु गुर भगती पाईऐ गुर चरणी चितु लावणिआ ॥८॥२०॥२१॥ {पन्ना 121-122} पद्अर्थ: मेरी मनसा = अपनत्व का फुरना। मनि = मन में, अंदर से। सहहि = सुंदर लगते हैं।1। सबदि = (गुरू के) शबद से।1। रहाउ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = स्वच्छ प्यार में। भै = डर अदब में (रह के)। जाऐ = दूर हो जाती है। अनंदि = आनंद में। सुणि = सुन के।2। मनूआ = मन। नाचै = नाचता है, हुलारे में आता है। मनैमनु मिलाऐ = मन में ही मन को मिलाए रखता है, मन को रोके रखता है। तालु पूरे = राग व जोड़ी के वज़न के साथ मिला के हाथों की ताली मारता है अथवा पैरों का नाच करता है। निरति = नाच। सबदे = शबद में ही।3। तनहि = शरीर को। पछाड़े = (किसी चीज से) पटकाता है। मोहि = मोह में। जोहिआ = तॅक (पहुँच) में रखा हुआ है। जमकाले = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। मनहि = मन को। कपटु = छल, ठॅगी।4। जा = जब। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रख के। राता = रंगा हुआ, मस्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सुच्चे प्रेम में। वजै = प्रभाव डालती है। वजाऐ = (सिफत सालाह का बाजा) बजाता है। थाइ पावणिआ = कबूल करता है।5। बहु = बहुते। मंनि = मनि, मन में। बंधि = बाँध के। दूजै भाइ = माया के मोह मे।6। मुकता = माया के बंधनों से मुक्त। वसि = वश में। संजमि = संजम में। जुगता = जुड़ा हुआ, टिका हुआ।7। जुग चारे = सदा ही। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के ही। होरतु = किसी और तरीके से।8। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं वे बहुत पवित्र आत्मा के हो जाते हैं। उनके मन में (भी) शुद्ध (फुरने, विचार) उठते हैं उनके मुंह (भी) सुंदर दिखाई देते हैं। उनका मन पवित्र हो जाता है। वे पवित्र गोविंद का रूप हो जाते है, परमात्मा सरोवर के वह, (जैसे) सुंदर हंस बन जाते हैं।1। मैं सदा उस मनुष्य के सदके वारने जाता हूँ, जो गोबिंद के गुण सदा गाता है। जो दिन रात गोबिंद का नाम उचारता है। जो गुरू के शबद द्वारा (औरों को भी) गोबिंद के गुण सुनाता है।1। रहाउ। जो मनुष्य गोबिंद (के गुण) आत्मिक अडोलता में (प्रभू के चरणों के) प्रेम में (टिक के) गाते हैं, गुरू के डर अदब में रह के वे (लोक परलोक में) सुर्ख-रू हो जाते हैं, (उनके अंदर से) अहम् की मैल दूर हो जाती है। वे दिन रात परमात्मा की भगती करते हैं, सदा आत्मिक आनंद में मगन रहते हैं। वे (औरों से) सुन के (भाव, वे गोबिंद के गुण सुनते भी हैं, और) गोबिंद के गुण गाते (भी) हैं।2। ज्यों ज्यों मनुष्य भगती दृढ़ करता है उसका मन हुलारे में आता है। गुरू के शबद द्वारा वह अपने मन को उधर ही टिकाए रखता है (बाहर भटकने से बचाए रखता है)। (जैसे कोई रास-धारिया रास डालने के समय राग व साज़ के साथ साथ मिल के नृत्य करता है, वैसे ही) वह मनुष्य (जैसे) सच्चा नाच करता है (जब वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर करता है। गुरू के शबद में जुड़ के वह (आत्मिक) नृत्य करता है।3। पर, जो मनुष्य (रास आदि डालने के समय) ऊँचे-ऊँचे सुर में बोलता है और अपने शरीर को (किसी चीज से) पटकाता है। (वैसे वह) माया के मोह में (फंसा हुआ) है। उसे आत्मिक मौत ने अपनी निगाह (पहुँच, सीमा) में रखा हुआ है। उसके मन को माया का मोह ही नचा रहा है, उसके अंदर छल है। (सिर्फ बाहर ही रास आदि के वक्त प्रेम बताता है) और वह दुख पाता है।4। जब परमात्मा खुद किसी मनुष्य को गुरू की शरण में डाल के उससे अपनी भगती करवाता है, तो उसका मन उसका तन (अर्थात, हरेक ज्ञानेंद्रिय) आत्मिक अडोलता में प्रभू चरणों के प्रेम में रंगा जाता है। उसके अंदर सिफत सलाह की बाणी अपना प्रभाव डाले रखती है। वह गुरू के शबद में जुड़ के (अपने अंदर से सिफत सालाह का, मानो,) बाजा बजाता है। गुरू का आसरा ले के की हुई भक्ति परमात्मा परवान करता है।5। पर जो भी मनुष्य निरे साज बजाता है और साजों के साथ मिल के नाच करता है। वह (इस तरह) परमात्मा का नाम ना ही सुनता है और ना ही अपने मन में बसाता है। वह तो माया कामनी की खातिर मैदान बांध के नाचता है। माया के मोह में टिका रह के वह दुख ही सहता है (इस नाच से वह आत्मिक आनंद नहीं पा सकता)।6। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू चरणों की प्रीति पैदा होती है, वह माया के मोह से स्वतंत्र हो जाता है। वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है। वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरन के संजम में टिका रहता है। गुरू के शबद में जुड़ के वह सदा परमात्मा का नाम सिमरता है, और यही है भगती, जो परमात्मा को पसंद आती है।7। परमात्मा की भक्ति गुरू के सन्मुख रहके ही हो सकती है–ये नियम सदा के लिए अटॅल है। (इसके बगैर) किसी भी और तरीके से कोई मनुष्य प्रभू की भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। हे नानक! परमात्मा के नाम सिमरन की दाति गुरू में श्रद्धा रखने से ही मिल सकती है। वही मनुष्य नाम सिमर सकता है, जो गुरू के चरणों में अपना चिक्त जोड़ता है।8।20।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |