श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 122 माझ महला ३ ॥ सचा सेवी सचु सालाही ॥ सचै नाइ दुखु कब ही नाही ॥ सुखदाता सेवनि सुखु पाइनि गुरमति मंनि वसावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी सुख सहजि समाधि लगावणिआ ॥ जो हरि सेवहि से सदा सोहहि सोभा सुरति सुहावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ सभु को तेरा भगतु कहाए ॥ सेई भगत तेरै मनि भाए ॥ सचु बाणी तुधै सालाहनि रंगि राते भगति करावणिआ ॥२॥ सभु को सचे हरि जीउ तेरा ॥ गुरमुखि मिलै ता चूकै फेरा ॥ जा तुधु भावै ता नाइ रचावहि तूं आपे नाउ जपावणिआ ॥३॥ गुरमती हरि मंनि वसाइआ ॥ हरखु सोगु सभु मोहु गवाइआ ॥ इकसु सिउ लिव लागी सद ही हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥४॥ भगत रंगि राते सदा तेरै चाए ॥ नउ निधि नामु वसिआ मनि आए ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाइआ सबदे मेलि मिलावणिआ ॥५॥ तूं दइआलु सदा सुखदाता ॥ तूं आपे मेलिहि गुरमुखि जाता ॥ तूं आपे देवहि नामु वडाई नामि रते सुखु पावणिआ ॥६॥ सदा सदा साचे तुधु सालाही ॥ गुरमुखि जाता दूजा को नाही ॥ एकसु सिउ मनु रहिआ समाए मनि मंनिऐ मनहि मिलावणिआ ॥७॥ गुरमुखि होवै सो सालाहे ॥ साचे ठाकुर वेपरवाहे ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि गुर सबदी हरि मेलावणिआ ॥८॥२१॥२२॥ {पन्ना 122} पद्अर्थ: सेवी = मैं सिमरता हूँ। सालाही = मैं सिफत सालाह करता हूँ। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सेवनि = सिमरते हैं। मंनि = मनि, मन में।1। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुख समाधि = आत्मिक आनंद की समाधि। सोहहि = अच्छे लगते हैं, सुहाने जीवन वाले बन जाते हैं।1। रहाउ। सभु को = हरेक जीव। भगत = (‘भगतु’ एकवचन है, ‘भगत’ बहुवचन)। सचु तधै = तुझ सदा स्थिर को। रंगि = प्रेम रंग में।2। सचे = हे सदा स्थिर प्रभू! चूकै = समाप्त हो जाता है। नाइ = नाम में। रचावहि = लीन करता रहता है।3। हरखु = खुशी। सोगु = ग़मी। लिव = लगन।4। चाऐ = चाव, चाव से। नउ निधि = नौ खजाने। आइ = आ के।5। जाता = पहचाना जाता है। वडाई = इज्जत। नामि = नाम में।6। साचे = हे सदा स्थिर प्रभू! मनि मंनिअै = अगर मन मान जाए। मनहि = मन में ही।7। सालाहे = सिफत सालाह करता है।8। अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा स्थिर प्रभू का सिमरन करता हूँ। मैं सदा स्थिर प्रभू की ही सिफत सालाह करता हूँ। सदा स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ने से कभी कोई दुख छू नहीं सकता। जो मनुष्य सब सुख देने वाले परमात्मा को सिमरते हैं, और गुरू की मति ले के उस प्रभू को अपने मन में बसाऐ रखते हैं, वे आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं।1। (हे भाई!) मैं उन लोगों से सदके कुर्बान जाता हूं, जो आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद की समाधि लगाए रखते हैं। जो मनुष्य परमात्मा को सिमरते हैं, वे सदैव सुंदर जीवन वाले बने रहते हैं। उन्हें (लोक परलोक में) शोभा मिलती है, उनकी सुरति सदा सुहावनी टिकी रहती है।1। रहाउ। (हे प्रभू! वैसे तो) हरेक मनुष्य तेरा भक्त कहलाता है, पर (असल) भगत वही हैं जो तेरे मन को अच्छे लगते हैं। (हे प्रभू!) वह गुरू की बाणी के द्वारा तुझे सदा स्थिर रहने वाले को सलाहते हैं। वह तेरे प्रेम रंग में रंगे हुए तेरी भक्ति करते रहते हैं।2। हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू जी! हरेक जीव तेरा (ही पैदा किया हुआ) है। (पर जब किसी को) गुरू की शरण पड़ के तेरा नाम मिलता है, तब (उसके जनम मरण का) चक्कर समाप्त होता है। जब तुझे अच्छा लगता है (जब तेरी रजा होती है), तब तू (जीवों को अपने) नाम में जोड़ता है। तू स्वयं ही (जीवों से अपना) नाम जपाता है।3। जिस मनुष्य ने गुरू की मति ले के परमात्मा (का नाम अपने) मन में बसा लिया, उसने खुशी (की लालसा) ग़मी (से घबराहट) खत्म कर ली। उसने (माया का) सारा मोह दूर कर लिया। उस मनुष्य की लगन सदा ही सिर्फ परमात्मा (के चरणों) से लगी रहती है। वह सदा हरी के नाम को अपने मन में बसाए रखता है।4। हे प्रभू! तेरे भक्त (बड़े) चाव से तेरे नाम रंग में रंगे रहते हैं। उनके मन में तेरा नाम आ बसता है (जो, मानो) नौ खजाने (हैं)। जिस मनुष्य ने पूरी किस्मत से गुरू को ढूँढ लिया, गुरू उसे (अपने) शबद के द्वारा परमात्मा के चरणों में मिला देता है।5। हे प्रभू तू दया का (सोमा है) श्रोत है। तू सदा (सब जीवों को) सुख देने वाला है। तू स्वयं ही (जीवों को गुरू के साथ) मिलाता है। गुरू की शरण पड़ कर जीव तेरे साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं। हे प्रभू! तू स्वयं ही जीवों को अपना नाम बख्शता है, (नाम जपने की) इज्जत देता है। जो मनुष्य तेरे नाम (-रंग) में रंगे जाते हैं, वे आत्मिक आनंद लेते हैं।6। हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू! (मेहर कर) मैं सदा ही सदा ही तेरी सिफत सालाह करता रहूँ। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह तेरे साथ सांझ डालता है। अन्य कोई (तेरे साथ सांझ) नहीं (डाल सकता)। (जो मनुष्य गुरू का आसरा लेता है उसका) मन सदा एक परमात्मा के साथ ही जुड़ा रहता है। अगर (मनुष्य का) मन (परमात्मा की याद में) मगन हो जाए, तो मनुष्य मन में मिला रहता है (भाव, बाहर नहीं भटकता)।7। जो मनुष्य गुरू का आसरा परना लेता है, वह सदा कायम रहने वाले बेपरवाह ठाकुर की सिफत सालाह करता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरू के शबद की बरकति से वह मनुष्य परमात्मा (के चरणों) में लीन रहता है।8।21।22। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |