श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 123 माझ महला ३ ॥ तेरे भगत सोहहि साचै दरबारे ॥ गुर कै सबदि नामि सवारे ॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी नामु सुणि मंनि वसावणिआ ॥ हरि जीउ सचा ऊचो ऊचा हउमै मारि मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि जीउ साचा साची नाई ॥ गुर परसादी किसै मिलाई ॥ गुर सबदि मिलहि से विछुड़हि नाही सहजे सचि समावणिआ ॥२॥ तुझ ते बाहरि कछू न होइ ॥ तूं करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ आपे करे कराए करता गुरमति आपि मिलावणिआ ॥३॥ कामणि गुणवंती हरि पाए ॥ भै भाइ सीगारु बणाए ॥ सतिगुरु सेवि सदा सोहागणि सच उपदेसि समावणिआ ॥४॥ सबदु विसारनि तिना ठउरु न ठाउ ॥ भ्रमि भूले जिउ सुंञै घरि काउ ॥ हलतु पलतु तिनी दोवै गवाए दुखे दुखि विहावणिआ ॥५॥ लिखदिआ लिखदिआ कागद मसु खोई ॥ दूजै भाइ सुखु पाए न कोई ॥ कूड़ु लिखहि तै कूड़ु कमावहि जलि जावहि कूड़ि चितु लावणिआ ॥६॥ गुरमुखि सचो सचु लिखहि वीचारु ॥ से जन सचे पावहि मोख दुआरु ॥ सचु कागदु कलम मसवाणी सचु लिखि सचि समावणिआ ॥७॥ मेरा प्रभु अंतरि बैठा वेखै ॥ गुर परसादी मिलै सोई जनु लेखै ॥ नानक नामु मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२२॥२३॥ {पन्ना 123} पद्अर्थ: सोहहि = शोभते हैं। साचै दरबार = सदा कायम रहने वाले दरबार में। अनंदि = आनंद में। कहि = कह के, उचार के। गुणी = गुणों के मालिक प्रभू में।1। सुणि = सुन के। मंनि = मन में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। मारि = मार के।1। रहाउ। साची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना = अरबी शब्द) बड़प्पन, वडिआई। किसै = किसी विरले को। सबदि = शबद से। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।2। ते = से। वेखहि = देखता है, संभाल करता है।3। कामणि = कामिनी, स्त्री। भै = डर अदब में। भाइ = प्रेम में। सेवि = सेव के, आसरा बन के। सचु उपदेसु = सदा स्थिर प्रभू के साथ मिलाने वाले उपदेश में।4। भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूले = कुमार्ग पर पड़ के। घरि = घर में। काउ = कौआ। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक। दुखे = दुखि ही, दुख में ही।5। म्सु = स्याही। खोई = खत्म कर ली। दूजै भाइ = माया के प्यार में। तै = और। जलि जावहि = जल जाते हैं, खिझते हैं। कूड़ि = झूठ में, नाशवंत के मोह में।6। सचे = सदा स्थिर प्रभू के रूप। मोख दुआरु = (माया के मोह से) खलासी का दरवाजा। सचु = सफल। मसवाणी = दवात। लिखि = लिख के।7। अंतरि = (जीवों के) अंदर। लेखै = लेखे में, परवान। ते = सै।8। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरी भक्ति करने वाले बंदेतेरे सदा स्थिर रहने वाले दरबार में शोभा पाते हैं। (हे भाई!) भगत जन गुरू के शबद द्वारा परमात्मा के नाम में जुड़ के सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं। वे सदा आत्मिक आनंद में टिके रहते हैं। वे दिन रात प्रभू के गुण उचार के गुणों के मालिक प्रभू में समाए रहते हैं। मैं उन मनुष्यों से सदा कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा का नाम सुन के उसे अपने मन में बसाए रखते हैं। वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। (वह जीवों वाली ‘मैं मेरी’ से) बहुत ऊँचा है। भाग्यशाली जीव अहंकार को मार के (ही) उसमें लीन होते हैं।1। रहाउ। परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। उसका बड़प्पन सदा कायम रहने वाला है। गुरू की कृपा से किसी (विरले भाग्यशाली) को (प्रभू अपने चरणों में) मिलाता है। जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा (परमात्मा में) मिलते हैं, वह (उससे) बिछुड़ते नहीं। वे आत्मिक अडोलता में व सदा स्थिर प्रभू में लीन रहते हैं।2। (हे भाई!) तुझसे (अर्थात, तेरे हुकम से) बाहर कुछ नहीं हो सकता। तू (जगत) पैदा करके (उसकी) संभाल (भी) करता है। तू (हरेक के दिल की) जानता भी है। (हे भाई!) करतार स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) करता है (और जीवों से) करवाता है। गुरू की मति के द्वारा स्वयं ही जीवों को अपने में मिलाता है।3। जो जीव स्त्री परमात्मा के गुण अपने अंदर बसाती है वह परमात्मा को मिल पड़ती है। परमात्मा के डर अदब में रह के, परमात्मा के प्रेम में जुड़ के वह (परमात्मा के गुणों को अपने जीवन का) श्रृंगार बनाती है। वह गुरू का आसरा परना बन के सदा के लिए पति प्रभू वाली बन जाती है। वह प्रभू मिलाप वाले गुर-उपदेश में लीन रहती है।4। जो मनुष्य गुरू के शबदको भुला देते हैं उन्हें (परमात्मा की हजूरी में) कोई जगह ठिकाना नहीं मिलता। वह (माया मोह की) भटकन में पड़ कर कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। जैसे कोई कौए को किसी उजड़े घर में (खाने के लिए कुछ भी नहीं मिल सकता, वैसे ही गुरू शबद को भुलाने वाले लोग आत्मिक जीवन के पक्ष से खाली हाथ ही रहते हैं)। ऐसे मनुष्य इस लोक व परलोक दोनों को बर्बाद कर लेते हैं, उनकी उम्र सदा दुख में ही व्यतीत होती है।5। (माया के आँगन में माया के लेखे) लिखते लिखते (अनेकों) कागज व (बेअंत) स्याही खत्म कर लेते हैं। पर माया के मोह में फंसे रह के किसी को कभी आत्मिक आनंद नहीं मिला। वे माया का ही लेखा लिखते रहते हैं, और माया ही एकत्र करते रहते हैं। वे सदा खिझते ही रहते हैं क्योंकि वे नाशवंत माया में ही अपना मन जोड़े रखते हैं।6। गुरू की शरण में रहने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभू का नाम लिखते है। परमात्मा के गुणों के विचार लिखते हैं। वे मनुष्य सदा स्थिर प्रभू का रूप हो जाते हैं, वे माया के मोह से विरक्त रहने का राह ढूँढ लेते हैं। उन मनुष्यों के कागज सफल हैं, उनकी कलम सफल हैं, दवात भी सफल है, जो सदा स्थिर प्रभू का नाम लिख लिख के सदा स्थिर प्रभू में ही लीन रहते हैं।7। (हे भाई!) मेरा परमात्मा (सब जीवों के) अंदर बैठा (हरेक की) संभाल करता है। जो मनुष्य गुरू की कृपा से उस परमात्मा के चरणों में जुड़ता है, वही मनुष्य परमात्मा की नजरों में परवान होता है। हे नानक! परमात्मा का नाम पूरे गुरू के पास से ही मिलता है। जिसे ये नाम मिल जाता है, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर प्राप्त करता है।8।22।23। माझ महला ३ ॥ आतम राम परगासु गुर ते होवै ॥ हउमै मैलु लागी गुर सबदी खोवै ॥ मनु निरमलु अनदिनु भगती राता भगति करे हरि पावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी आपि भगति करनि अवरा भगति करावणिआ ॥ तिना भगत जना कउ सद नमसकारु कीजै जो अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ आपे करता कारणु कराए ॥ जितु भावै तितु कारै लाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा होवै गुर सेवा ते सुखु पावणिआ ॥२॥ मरि मरि जीवै ता किछु पाए ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसाए ॥ सदा मुकतु हरि मंनि वसाए सहजे सहजि समावणिआ ॥३॥ बहु करम कमावै मुकति न पाए ॥ देसंतरु भवै दूजै भाइ खुआए ॥ बिरथा जनमु गवाइआ कपटी बिनु सबदै दुखु पावणिआ ॥४॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर परसादी परम पदु पाए ॥ सतिगुरु आपे मेलि मिलाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥५॥ इकि कूड़ि लागे कूड़े फल पाए ॥ दूजै भाइ बिरथा जनमु गवाए ॥ आपि डुबे सगले कुल डोबे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥६॥ इसु तन महि मनु को गुरमुखि देखै ॥ भाइ भगति जा हउमै सोखै ॥ सिध साधिक मोनिधारी रहे लिव लाइ तिन भी तन महि मनु न दिखावणिआ ॥७॥ आपि कराए करता सोई ॥ होरु कि करे कीतै किआ होई ॥ नानक जिसु नामु देवै सो लेवै नामो मंनि वसावणिआ ॥८॥२३॥२४॥ {पन्ना 123-124} पद्अर्थ: आतम राम = सभी आतमाओं में व्यापक प्रभू। परगासु = प्रकाश, आत्मिक रोशनी। आतम राम परगासु = इस सच्चाई की समझ कि परमात्मा सब जीवों में व्यापक है। ते = से। खोवै = दूर करता है। करे = कर के।1। करनि = करते हैं। कउ = को। सद = सदा। कीजै = करनी चाहिए। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ। कारणु = (भक्ति करने का) सबब। जितु कारै = जिस काम में। तितु = उस में।2। मरि = (अहम्) मार के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। किछु = (भगती का) कुछ (आनंद)। मंनि = मनि, मन में। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही।3। मुकति = (अहम् से) खलासी। देसंतरु = देशांतर, और और देश। खुआऐ = गुमराह में हुआ रहता है। कपटी = छल करने वाले ने।4। धावतु = (विकारों की ओर) दौड़ता मन। ठाकि = (विकारों की ओर से) रोक के। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मेलि = प्रभू मिलाप में, प्रभू के चरणों में। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।5। इकि = (‘इक’ का बहुवचन)। कूड़ि = झूठ में, नाशवंत मोह में। बोलि = बोल के। बिखु = जहर।6। को = कोई विरला। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला। भाइ = प्रेम से। जा = जब। सोखै = सुखाता है। सिध = योग साधना में मगन योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। मोनिधारी = सदा चुप रहने वाले साधू।7। कीते = पैदा किए हुए जीव से। किआ = क्या? नामो = नाम ही।8। अर्थ: गुरू से ही मनुष्य को ये प्रकाश हो सकता है कि परमात्मा की ज्योति सब में व्यापक है। गुरू के शबद द्वारा ही मनुष्य (मन को) लगी हुई मैल धो सकता है। जिस मनुष्य का मन मल-रहित हो जाता है वह प्रभू की भक्ति में रंगा जाता है। भगती कर करके वह परमात्मा (का मिलाप) प्राप्त कर लेता है।1। मैं उन मनुष्यों से सदके कुर्बान जाता हूँ, जों स्वयं परमात्मा की भगती करते हैं तथा औरों से भी भक्ति करवाते हैं। ऐसे भगतो के आगे सदा सिर झुकाना चाहिए जो हर रोज परमात्मा के गुण गाते हैं।1। रहाउ। करतार स्वयं ही (जीवों से भक्ति करवाने का) सबब पैदा करता है (क्योंकि) वह जीवों को उस काम में लगाता है जिस में लगाना उसे अच्छा लगता है। खुश किस्मती से ही जीव से गुरू का आसरा लिया जा सकता है। गुरू का आसरा ले कर (भाग्यशाली) मनुष्य आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।2। जब मनुष्य बारंबार प्रयत्न करके अहंकार को मारता है, तो आत्मिक जीवन हासिल करता है। तबवह परमात्मा की भक्ति का कुछ आनंद लेता है। (तब) गुरू की कृपा से वह परमात्मा को अपने मन में बसाता है। जो मनुष्य परमात्मा को अपने मन में बसाए रखता है, वह सदैव (अहम् आदि विकारों से) आजाद रहता है। वह सदा आत्किम अडोलता में लीन रहता है।3। (भक्ति के बिना) अगर मनुष्य अनेकों और (निहित धार्मिक) कर्म करता है (तो भी विकारों से) मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अगर देश-देशांतरों का रटन करता फिरे तो भी माया के मोह में रह के कुमार्ग पर पड़ा रहता है। (असल में वह मनुष्य छल ही करता है और) छली मनुष्य अपना मानस जीवन व्यर्थ गवाता है। गुरू के शबद (का आसरा लिए) बिना वह दुख ही पाता रहता है।4। जो मनुष्य (विकारों की तरफ) दौड़ते मन की रक्षा करता है (इसे विकारों से) रोक के रखता है। वह गुरू की कृपा से सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेता है। गुरू स्वयं ही उसे परमात्मा के चरणों में मिला देता है। प्रीतम प्रभू को मिल के वह आत्मिक आनंद भोगता है।5। कई जीव ऐसे हैं जो नाशवंत जगत के मोह में ही फंसे रहते हैं। वे फल भी वही प्राप्त करते हैं जिनसे साथ टूट जाता है (और इस तरह सदा) माया के मोह में ही रह के वे अपना मानस जनम व्यर्थ गवा लेते हैं। वे स्वयं माया के मोह में गलतान रहते हैं, अपनी सारी कुलों को उस मोह में ही डुबोए रखते हैं, वह सदा माया के मोह की ही बातें करके उस जहर को अपनी आत्मिक खुराक बनाए रखते हैं (जो उनकी आत्मिक मौत का कारण बनता है)।6। (आम तौर पे हरेक मनुष्य माया के पदार्थों के पीछे ही भटकता फिरता है) गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य अपने मन को अपने इस शरीर के अंदर ही टिका हुआ देखता है। (पर ये तब ही होता है) जब वह प्रभू के प्रेम में प्रभू की भक्ति में टिक के (अपने अंदर से) अहंकार को खत्म कर देता है। पहुँचे हुए योगी, योग साधना करने वाले योगी, मौनधारी साधू सुरति जोड़ने का यत्न करते हैं, पर वे भी अपने मन को शरीर के अंदर टिका हुआ नहीं देख सकते।7। (पर, जीवों के भी क्या वश?मन को काबू करने का और भक्ति में जुड़ने का उद्यम) वह करतार स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। (अपने आप) कोई जीव क्या कर सकता है? करतार के पैदा किए हुए इस जीव द्वारा किए गए अपने उद्यम से कुछ नहीं हो सकता। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम की दात देता है, वही नाम सिमर सकता है। उस सदा प्रभू के नाम को ही अपने मन में बसाए रखता है।8।23।24। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |