श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 125 माझ महला ३ ॥ गुरमुखि मिलै मिलाए आपे ॥ कालु न जोहै दुखु न संतापे ॥ हउमै मारि बंधन सभ तोड़ै गुरमुखि सबदि सुहावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हरि हरि नामि सुहावणिआ ॥ गुरमुखि गावै गुरमुखि नाचै हरि सेती चितु लावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि जीवै मरै परवाणु ॥ आरजा न छीजै सबदु पछाणु ॥ गुरमुखि मरै न कालु न खाए गुरमुखि सचि समावणिआ ॥२॥ गुरमुखि हरि दरि सोभा पाए ॥ गुरमुखि विचहु आपु गवाए ॥ आपि तरै कुल सगले तारे गुरमुखि जनमु सवारणिआ ॥३॥ गुरमुखि दुखु कदे न लगै सरीरि ॥ गुरमुखि हउमै चूकै पीर ॥ गुरमुखि मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥४॥ गुरमुखि नामु मिलै वडिआई ॥ गुरमुखि गुण गावै सोभा पाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती गुरमुखि सबदु करावणिआ ॥५॥ गुरमुखि अनदिनु सबदे राता ॥ गुरमुखि जुग चारे है जाता ॥ गुरमुखि गुण गावै सदा निरमलु सबदे भगति करावणिआ ॥६॥ बाझु गुरू है अंध अंधारा ॥ जमकालि गरठे करहि पुकारा ॥ अनदिनु रोगी बिसटा के कीड़े बिसटा महि दुखु पावणिआ ॥७॥ गुरमुखि आपे करे कराए ॥ गुरमुखि हिरदै वुठा आपि आए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२५॥२६॥ {पन्ना 125} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू की ओर मुंह करने से, गुरू की शरण पड़ने से। कालु = आत्मिक मौत। जोहै = देखती। सबदि = शबद में जुड़ के। सुहावणिआ = सुहाने जीवन वाला बन जाता है।1। नामि = नाम से। नाचै = हुलारे में आता है।1। रहाउ। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। मरै = (अहंकार की ओर से) मर जाता है, अहम् मार लेता है। आरजा = उम्र। न छीजै = व्यर्थ नहीं जाती। पछाणु = पहचान, साथी। मरै न = आत्मिक मौत नहीं होती। कालु = आत्मिक मौत।2। दरि = दर पे। आपु = स्वै भाव।3। सरीरि = शरीर में। पीर = पीड़। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4। अनंदि = आनंद में। सबदु = सिफत सालाह की कार।5। अनदिनु = हर रोज। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही।6। अंध अंधारा = माया के मोह का घोर अंधकार। जमकालि = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। गरठे = ग्रसे हुए, जकड़े हुए।7। वुठा = आ बसा। नामि = नाम में।8। अर्थ: जो मनुष्य गुरू का आसरा परना लेता है, उसे परमात्मा मिल जाता है। परमात्मा स्वयं ही उसे गुरू मिलाता है। (ऐसे मनुष्य को) आत्मिक मौत अपनी नजर में नहीं रखती, उसे कोई दुख कलेश सता नहीं सकता। गुरू के आसरे रहने वाला मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके (माया के मोह के) सारे बंधन तोड़ लेता है। गुरू के शबद द्वारा उसका जीवन खूबसूरत बन जाता है।1। मैं उस मनुष्य से सदा सदके जाता हूँ, जो परमात्मा के नाम में जुड़ के अपना जीवन सुंदर बना लेता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभू के गुण गाता रहता है। उसका मन (नाम सिमरन के) हिलोरों में आया रहता है। गुरू का आसरा रखने वाला मनुष्य परमात्मा (के चरणों) के साथ अपना मन जोड़े रखता है।1। रहाउ। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है और अहंकार की तरफ से मरा रहता है (इस तरह वह प्रभू की नजरों में) कबूल हो जाता है। उसकी उम्र व्यर्थ नहीं जाती। गुरू का शबद उसका जीवन साथी बना रहता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक मौत से बचा रहता है। आत्मिक मौत उस पर कोई जोर नहीं डाल सकती। वह सदा स्थिर प्रभू की याद में लीन रहता है।2। गुरू के आसरे परने रहने वाला मनुष्य परमात्मा के दर पर शोभा प्राप्त करता है। वह अपने अंदर से स्वै भाव दूर किए रखता है। वह स्वयं संसार समुंद्र (के विकारों से) पार लांघ जाता है। अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपना जीवन सवार लेता है।3। जो मनुष्य गुरू की शरण लेता है, उसके शरीर में कभी हउमै का रोग नहीं लगता। उसके अंदर से अहंकार की पीड़ा समाप्त हो जाती है। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन अहम् की मैल से साफ रहता है, (गुरू का आसरा लेने के कारण उसको) फिर (अहंकार की मैल) नही चिपकती, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है। (लोक परलोक में) आदर मिलता है। वह परमात्मा के गुण गाता है और (हर जगह) शोभा कमाता है। गुरू के दर पे टिके रहने के कारण मनुष्य सदा दिन रात आत्मिक आनंद में मगन रहता है। वह सदा परमात्मा की सिफत सालाह ही करता रहता है।5। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हर वक्त गुरू के शबद में रंगा रहता है। सदा से ही ये नियम है कि गुरू के दर पर रहने वाला मनुष्य प्रभू के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है। वह सदा परमात्मा के गुण गाता है और पवित्र जीवन वाला बना रहता है। गुरू के शबद द्वारा वह परमात्मा की भक्ति करता है।6। गुरू की शरण पड़े बिना (माया के मोह का) घोर अंधेरा छाया रहता है। (इस अंधकार के कारण) जिन्हें आत्मिक मौत ने ग्रस लिया होता है वे (दुखी हो हो के) पुकारें करते रहते हैं (दुखों के गिले करते हैं)। वे हर वक्त विकारों के रोग में फंसे रहते हैं और दुख सहते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही कुरबल कुरबल करते रहते हैं।7। जो मनुष्य गुरू की शरण में रहता है, उसके हृदय में परमात्मा स्वयं आ बसता है। उसे फिर ये निश्चय हो जाता है कि (प्रभू सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही सब कुछ करता है ओर (जीवों से) करवाता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) आदर मिलता है, और (प्रभू का नाम) पूरे गुरू से (ही) मिलता है।8।25।26। माझ महला ३ ॥ एका जोति जोति है सरीरा ॥ सबदि दिखाए सतिगुरु पूरा ॥ आपे फरकु कीतोनु घट अंतरि आपे बणत बणावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हरि सचे के गुण गावणिआ ॥ बाझु गुरू को सहजु न पाए गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ तूं आपे सोहहि आपे जगु मोहहि ॥ तूं आपे नदरी जगतु परोवहि ॥ तूं आपे दुखु सुखु देवहि करते गुरमुखि हरि देखावणिआ ॥२॥ आपे करता करे कराए ॥ आपे सबदु गुर मंनि वसाए ॥ सबदे उपजै अम्रित बाणी गुरमुखि आखि सुणावणिआ ॥३॥ आपे करता आपे भुगता ॥ बंधन तोड़े सदा है मुकता ॥ सदा मुकतु आपे है सचा आपे अलखु लखावणिआ ॥४॥ आपे माइआ आपे छाइआ ॥ आपे मोहु सभु जगतु उपाइआ ॥ आपे गुणदाता गुण गावै आपे आखि सुणावणिआ ॥५॥ आपे करे कराए आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ तुझ ते बाहरि कछू न होवै तूं आपे कारै लावणिआ ॥६॥ आपे मारे आपि जीवाए ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ सेवा ते सदा सुखु पाइआ गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥ आपे ऊचा ऊचो होई ॥ जिसु आपि विखाले सु वेखै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि आपे वेखि विखालणिआ ॥८॥२६॥२७॥ {पन्ना 125} पद्अर्थ: सबदि = शबद द्वारा। कीतोनु = किया उन, उस प्रभू ने किया।1। को = कोई भी मनुष्य। सहजु = आत्मिक अडोलता।1। रहाउ। सोहहि = शोभा देता है। मोहहि = मोह रहा है। करते = हे करतार!।2। मंनि = मनि, मन में। सबदे = शबद के द्वारा ही। आखि = कह के, उचार के।3। भुगता = भोगने वाला। मुकता = आजाद। अलखु = अदृष्ट।4। छाइया = छाया, प्रभाव।5। थापि = पैदा करें। उथापे = नाश करता है। कारै = कार्य में।6। मरे = आत्मिक मौत देता है। जीवाऐ = आत्मिक जीवन देता है।7। कोई = कोई विरला। वेखि = देख के।8। अर्थ: पूरा गुरू अपने शबद में जोड़ के (शरण आए मनुष्य को) दिखा देता है (निष्चय करा देता है) कि सब शरीरों में परमात्मा की ही ज्योति व्यापक है। परमात्मा ने स्वयं ही सब जीवों की बनावट बनायी है (पैदा किए हैं) और खुद ही उसने सारे शरीरों में (आत्मिक जीवन का) फर्क बनाया हुआ है।1। मैं सदा उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाते रहते हैं (आत्मिक अडोलता में रह के ही सिफत सालाह की जा सकती है, तथा) गुरू की शरण के बिना कोई मनुष्य आत्मिक अडोलता हासिल नहीं कर सकता। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ही आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।1। रहाउ। हे करतार! तू स्वयं ही (जगत रच के जगत रचना से अपनी) सुंदरता दिखा रहा है, और (उस सुंदरता से) तू खुद ही जगत को मोहित करता है। तू खुद ही अपनी मेहर की निगाह से जगत को (अपनी कायम की मर्यादा के धागे में) परोए रखता है। हे करतार! तू खुद ही जीवों को दुख देता है, खुद ही जीवों को सुख देता है। हे हरी! गुरू की शरण पड़ने वाले बंदे (हर जगह) तेरा ही दर्शन करते हैं।2। (हे भाई! सारे जीवों में व्यापक हो के) करतार खुद ही सब कुछ कर रहा है और (जीवों से) करा रहा है। करतार खुद ही गुरू का शबद (जीवों के) मन में बसाता है। गुरू के शबद के द्वारा ही आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बाणी (की लगन जीवों के हृदय में) पैदा होती है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (सिफत सालाह की बाणी) उचार के (औरों को भी) सुनाता है।3। करतार स्वयं ही सब जीवों को पैदा करने वाला है (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद ही दुनिया के पदार्थ भोगने वाला है। करतार खुद ही (सारे जीवों के माया के) बंधन तोड़ता है। वह खुद सदा ही बंधनों से मुक्त है। सदा स्थिर रहने वाला करतार खुद ही सदा निर्लिप है, खुद ही अदृश्य (भी) है, और खुद ही अपना स्वरूप (जीवों को) दिखलाने वाला है।4। (हे भाई!) करतार ने खुद ही माया पैदा की है, उसने खुद ही माया का प्रभाव पैदा किया है। करतार ने खुद ही माया का मोह पैदा किया है और खुद ही सारा जगत पैदा किया है। करतार स्वयं ही अपने गुणों की दाति (जीवों को) देने वाला है, स्वयं ही (अपने) गुण (जीवों में व्यापक हो के) गाता है। स्वयं ही (अपने गुण) उचार के (औरों को) सुनाता है।5। (हे भाई! सब जीवों में व्यापक हो के) करतार स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और स्वयं ही (जीवों से) करा रहा है। करतार स्वयं ही जगत की रचना करके स्वयं ही (जगत का) नाश करता है। (हे प्रभू! जो कुछ जगत में हो रहा है) तेरे हुकम से बाहर कुछ नहीं होता, तू खुद ही (सब जीवों को) काम में लगा रहा है।6। (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (किसी जीव को) आत्मिक मौत दे रहा है (किसी को) आत्मिक जीवन बख्श रहा है। प्रभू स्वयं ही (जीवों को गुरू) मिलाता है और (गुरू) मिला के अपने चरणों में जोड़ता है। (गुरू की बताई) सेवा करने वाले ने सदा आत्मिक आनंद पाया है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।7। (हे भाई! परमात्मा अपनी स्मर्था से) स्वयं ही माया के प्रभाव से बहुत ऊँचा है। जिस किसी (भाग्यशाली मनुष्य) को (अपनी ये स्मर्था) परमात्मा स्वयं दिखाता है वह खुद देख लेता है (कि प्रभू बहुत शक्तिशाली है)। हे नानक! (परमात्मा की अपनी ही मेहर से किसी भाग्यशाली मनुष्य के) हृदय में उसका नाम बसता है (उस मनुष्य में प्रगट हो के प्रभू खुद ही अपने स्वरूप का) दर्शन करके (औरों को) दर्शन कराता है।8।26।27। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |