श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 126

माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु भरपूरि रहिआ सभ थाई ॥ गुर परसादी घर ही महि पाई ॥ सदा सरेवी इक मनि धिआई गुरमुखि सचि समावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी जगजीवनु मंनि वसावणिआ ॥ हरि जगजीवनु निरभउ दाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ घर महि धरती धउलु पाताला ॥ घर ही महि प्रीतमु सदा है बाला ॥ सदा अनंदि रहै सुखदाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥२॥ काइआ अंदरि हउमै मेरा ॥ जमण मरणु न चूकै फेरा ॥ गुरमुखि होवै सु हउमै मारे सचो सचु धिआवणिआ ॥३॥ काइआ अंदरि पापु पुंनु दुइ भाई ॥ दुही मिलि कै स्रिसटि उपाई ॥ दोवै मारि जाइ इकतु घरि आवै गुरमति सहजि समावणिआ ॥४॥ घर ही माहि दूजै भाइ अनेरा ॥ चानणु होवै छोडै हउमै मेरा ॥ परगटु सबदु है सुखदाता अनदिनु नामु धिआवणिआ ॥५॥ अंतरि जोति परगटु पासारा ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा ॥ कमलु बिगासि सदा सुखु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥६॥ अंदरि महल रतनी भरे भंडारा ॥ गुरमुखि पाए नामु अपारा ॥ गुरमुखि वणजे सदा वापारी लाहा नामु सद पावणिआ ॥७॥ आपे वथु राखै आपे देइ ॥ गुरमुखि वणजहि केई केइ ॥ नानक जिसु नदरि करे सो पाए करि किरपा मंनि वसावणिआ ॥८॥२७॥२८॥ {पन्ना 126}

पद्अर्थ: सरेवी = मैं सेवा करता हूँ। इक मनि = एकाग्र हो के।1।

जग जीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। मंनि = मनि, मन में।1। रहाउ।

धउलु = बैल, आसरा। बाला = जवान। अनंदि = आनंद में।2।

काइआ = शरीर। सचो सचु = स्थिर प्रभू को ही।3।

देइ = दे। दुही = दोनों ने ही। इकतु = एक में। इकतु घरि = एक घर में।4।

दूजै भाइ = माया के मोह के कारण। अनेरा = अंधकार।5।

साखी = शिक्षा से। बिगासि = खिल के।6।

रतनी = रतनों से।7।

वथु = वस्तु, नाम पदार्थ। देइ = देता है। केई केइ = कई अनेकों।8।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा प्रभू सब जगहों पर पूर्ण तौर पे मौजूद है। गुरू की कृपा से मैंने उसे अपने हृदय घर में ही ढूँढ लिया है। मैं अब सदा उसे सिमरता हूँ। सदा एकाग्रचिक्त हो के उसका ध्यान धरता हूँ। जो भी मनुष्य गुरू का आसरा परना लेता है, वह सदा स्थिर परमात्मा में लीन रहता है।1।

(हे भाई!) मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो जगत की जिंदगी के आसरे परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं। परमात्मा जगत को जिंदगी देने वाला है। जो मनुष्य गुरू की मति ले कर उसे अपने मन में बसाता है वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1। रहाउ।

जो परमात्मा धरती व पाताल का आसरा है, वह मनुष्य के हृदय में (भी) बसता है। वह प्रीतम प्रभू सदा जवान रहने वाला है वह हरेक हृदय में ही बसता है। जो मनुष्य गुरू की मति ले के उस सुखदाते प्रभू को सिमरता है, वह सदा आत्मिक आनंद में रहता है। वह आत्मिक अडोलता में समाया रहता है।2।

पर, जिस मनुष्य के शरीर में अहम् प्रबल है, ममता प्रबल है, उस मनुष्य का जनम मरण रूपी चक्र खत्म नहीं होता। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार लेता है, और वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को ही सिमरता है।3।

(अहंकार के प्रभाव तहत रहने वाले मनुष्य के) शरीर में (अहंम् से उत्पन्न हुए हुए) दोनों भ्राता पाप और पुंन बसते हैं। इन दोनों ने ही जगत रचना की है। जो मनुष्य गुरू की मति ले के इन दोनों (के प्रभाव) को मारता है, वह एक ही घर में (प्रभू चरणों में ही) टिक जाता है। वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4।

परमात्मा मनुष्य के हृदय-घर में ही बसता है। पर, माया के प्यार के कारण मनुष्य के अंदर माया का अंधकार बना रहता है। जब मनुष्य गुरू की शरण ले के (अपने अंदर से) अहम् और ममता को दूर करता है, तब (इसके अंदर परमात्मा की ज्योति का आत्मिक) प्रकाश हो जाता है। आत्मिक आनंद देने वाली परमात्मा की सिफत सालाह (इसके अंदर) उघड़ पड़ती है, और ये हर वक्त प्रभू का नाम सिमरता है।5।

जिस प्रभू ज्योति ने सारा जगत पसारा पसारा है, गुरू की शिक्षा से वह जिस मनुष्य के अंदर प्रगट हो जाती है, उसके अंदर से अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है। उसका हृदय कमल पुष्प की तरह खिल जाता है। वह सदा आत्मिक आनंद पाता है। उसकी सुरति प्रभू की ज्योति में मिली रहती है।6।

मनुष्य के शरीर में (परमात्मा के गुण रूपी) रत्नों के खजाने भरे पड़े हैं (पर, ये उस मनुष्य को ही प्राप्त होते हैं) जो गुरू की शरण पड़ के बेअंत प्रभू का नाम प्राप्त करता है। गुरू के शरण पड़ने वाला मनुष्य (प्रभू नाम का) व्यापारी (बन के आत्मिक गुणों के रत्नों का) व्यापार करता है और सदा प्रभू नाम की कमाई करता है।7।

(पर, जीवों के बस की बात नहीं) परमात्मा स्वयं ही जीवों के अंदर अपना नाम पदार्थ टिकाता है, परमात्मा स्वयं ही (ये दाति) जीवों को देता है। गुरू की शरण पड़ के अनेकों (भाग्यशाली) मनुष्य नाम निधि का सौदा करते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की नजर करता है, वह प्रभू का नाम प्राप्त करता है। प्रभू अपनी कृपा करके अपना नाम उसके मन में बसाता है।8।27।28।

माझ महला ३ ॥ हरि आपे मेले सेव कराए ॥ गुर कै सबदि भाउ दूजा जाए ॥ हरि निरमलु सदा गुणदाता हरि गुण महि आपि समावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी सचु सचा हिरदै वसावणिआ ॥ सचा नामु सदा है निरमलु गुर सबदी मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ आपे गुरु दाता करमि बिधाता ॥ सेवक सेवहि गुरमुखि हरि जाता ॥ अम्रित नामि सदा जन सोहहि गुरमति हरि रसु पावणिआ ॥२॥ इसु गुफा महि इकु थानु सुहाइआ ॥ पूरै गुरि हउमै भरमु चुकाइआ ॥ अनदिनु नामु सलाहनि रंगि राते गुर किरपा ते पावणिआ ॥३॥ गुर कै सबदि इहु गुफा वीचारे ॥ नामु निरंजनु अंतरि वसै मुरारे ॥ हरि गुण गावै सबदि सुहाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥४॥ जमु जागाती दूजै भाइ करु लाए ॥ नावहु भूले देइ सजाए ॥ घड़ी मुहत का लेखा लेवै रतीअहु मासा तोल कढावणिआ ॥५॥ पेईअड़ै पिरु चेते नाही ॥ दूजै मुठी रोवै धाही ॥ खरी कुआलिओ कुरूपि कुलखणी सुपनै पिरु नही पावणिआ ॥६॥ पेईअड़ै पिरु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गुरि हदूरि दिखाइआ ॥ कामणि पिरु राखिआ कंठि लाइ सबदे पिरु रावै सेज सुहावणिआ ॥७॥ आपे देवै सदि बुलाए ॥ आपणा नाउ मंनि वसाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई अनदिनु सदा गुण गावणिआ ॥८॥२८॥२९॥ {पन्ना 126-127}

पद्अर्थ: सेव = सेवा भक्ति। सबदि = शबद में जुड़ने से। दूजा भाउ = माया का प्यार।1।

सचु सचा = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।1। रहाउ।

करमि = हरेक जीव के किए कर्मों अनुसार। बिधाता = पैदा करने वाला।2।

गुरि = गुरू ने। अनदिनु = हर रोज।3।

इहु = ये जीव। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह रूपी कालख से रहित।4।

जागाती = मसूलिआ। दूजै भाइ = माया के प्यार में। करु = मसूल। रतीअहु = एक रक्ती से।5।

पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। दूजै = (प्रभू से बिना) और में। धाही = धाहें मार मार के (रोना)। खरी = बहुत। कुआलिओ = (कु+आलय) बुरे घर की।

मंनि = मनि, मन में। हदूरि = अंग संग। कामणि = (जीव-) स्त्री। कंठि = गले से।7।

सदि = बुला के। बुलाऐ = बुला के।8।

अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में) जोड़ता है। (अपनी) सेवा भक्ति करवाता है। (जिस मनुष्य को प्रभू) गुरू के शबद में (जोड़ता है, उसके अंदर से) माया का प्यार दूर हो जाता है। परमात्मा (स्वयं) सदा पवित्र स्वरूप है, (सब जीवों को अपने) गुण देने वाला है। परमात्मा स्वयं (अपने) गुणों में (जीव को) लीन करता है।1।

मैं उन मनुष्यों से सदा सदके जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं। परमात्मा का सदा कायम रहने वाला नाम सदा पवित्र है। (भाग्यशाली मनुष्य) गुरू के शबद द्वारा (इस नाम को अपने) मन में बसाते हैं।1। रहाउ।

परमात्मा स्वयं ही गुरू (रूप) है। स्वयंही दातें देने वाला है, स्वयं ही (जीव को उस के किए) कर्म अनुसार पैदा करने वाला है। प्रभू के सेवक गुरू की शरण पड़ के उसकी सेवा भक्ति करते हैं, और उससे गहरी सांझ डालते हैं। आत्मिक जीवन देने वाले हरी नाम में जुड़ के सेवक जन अपना जीवन सुहाना बनाते हैं गुरू की मति पर चल के परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।2।

(जिस मनुष्य के हृदय में से) पूरे गुरू ने अहम् को दूर कर दिया, भटकना समाप्त कर दी। उसके इस शरीर-गुफा में परमात्मा प्रगट हो गया और उस का हृदय सुंदर बन गया।

(भाग्यशाली मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर) हर वक्त परमात्मा का नाम सालाहते हैं, उसके प्रेम रंग में रंगे रहते हैं, गुरू की कृपा से उसका मिलाप प्राप्त करते हैं।3।

यह जीव गुरू के शबद द्वारा ही अपने शरीर रूपी गुफा में प्रभू के गुण विचारता है, और उसके हृदय में मुरारी प्रभू का माया के मोह की कालख से बचाने वाला नाम बस जाता है। उस गुरू के शबद में (जुड़ के ज्यों ज्यों) परमात्मा के गुण गाता है। उसका जीवन सुंदर बन जाता है। प्रीतम को मिलके आत्मिक आनंद लेता है।4।

जो मनुष्य माया के प्यार में (फंसा रहता है, उससे) महसूलिया यमराज महसूल लेता है। परमात्मा के नाम से वंचित हुए मनुष्य को सजा देता है। यमराज महसूलिया उससे उसकी जिंदगी की एक-एक घड़ी का, आधी-आधी घड़ी का हिसाब लेता है। एक एक रक्ती करके, एक एक मासा करके यमराज उसके जीवन कर्मों का तौल करवाता है।5।

जो जीव-स्त्री पेके घर में (इस जीवन में) प्रभू पति को याद नहीं करती, और माया के मोह में पड़ के (आत्मिक गुणों की राशि पूँजी) लुटाती रहती है, वह (लेखा देने के समय) धाहें (चीखें) मार मार के रोती है। वह जीव-स्त्री बुरे घर की, बुंरे रूप वाली, बुरे लक्षणों वाली ही कही जाती है। (पेके घर रहते हुए) उसने कभी सुपने में भी प्रभू मिलाप नही किया।6।

पेके घर में जिस जीव-स्त्री ने प्रभू पति को अपने मन में रखा, जिसे पूरे गुरू ने (प्रभू पति को उस के) अंग संग (बसता) दिखा दिया। जिस जीव-स्त्री ने प्रभू पति को सदा अपने गले से लगाए रखा, वह गुरू के शबद द्वारा प्रभू पति के मिलाप का आनंद लेती रहती है, उसके हृदय की सेज सोहानी बनी रहती है।7।

(पर, जीवों के वश की बात नहीं) परमात्मा स्वयं ही (जीव को) बुला के (अपने नाम की दाति) देता है, स्वयं ही अपना नाम (जीव के) मन में बसाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिलता है, उसे (लोक परलोक में) आदर मिलता है। वह हर वक्त सदा ही परमात्मा के गुण गाता रहता है।8।28।29।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh