श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 128

माझ महला ३ ॥ मनमुख पड़हि पंडित कहावहि ॥ दूजै भाइ महा दुखु पावहि ॥ बिखिआ माते किछु सूझै नाही फिरि फिरि जूनी आवणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हउमै मारि मिलावणिआ ॥ गुर सेवा ते हरि मनि वसिआ हरि रसु सहजि पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ वेदु पड़हि हरि रसु नही आइआ ॥ वादु वखाणहि मोहे माइआ ॥ अगिआनमती सदा अंधिआरा गुरमुखि बूझि हरि गावणिआ ॥२॥ अकथो कथीऐ सबदि सुहावै ॥ गुरमती मनि सचो भावै ॥ सचो सचु रवहि दिनु राती इहु मनु सचि रंगावणिआ ॥३॥ जो सचि रते तिन सचो भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ गुर कै सबदि सदा सचु जाता मिलि सचे सुखु पावणिआ ॥४॥ कूड़ु कुसतु तिना मैलु न लागै ॥ गुर परसादी अनदिनु जागै ॥ निरमल नामु वसै घट भीतरि जोती जोति मिलावणिआ ॥५॥ त्रै गुण पड़हि हरि ततु न जाणहि ॥ मूलहु भुले गुर सबदु न पछाणहि ॥ मोह बिआपे किछु सूझै नाही गुर सबदी हरि पावणिआ ॥६॥ वेदु पुकारै त्रिबिधि माइआ ॥ मनमुख न बूझहि दूजै भाइआ ॥ त्रै गुण पड़हि हरि एकु न जाणहि बिनु बूझे दुखु पावणिआ ॥७॥ जा तिसु भावै ता आपि मिलाए ॥ गुर सबदी सहसा दूखु चुकाए ॥ नानक नावै की सची वडिआई नामो मंनि सुखु पावणिआ ॥८॥३०॥३१॥ {पन्ना 128}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। पढ़हि = पढ़ते हैं। दूजै भाइ = माया के प्यार में। बिखिआ = माया। माते = मस्त।1।

ते = से। गुर सेवा ते = गुरू की शरण पड़ने से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।

रसु = स्वाद, आनंद। वादु = बहस, झगड़ा। अगिआन = ज्ञान हीनता, बेसमझी।2।

अकथो = अकॅथ, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। सुहावै = प्यारा लगता है। सचो = सदा स्थिर रहने वाला। रवहि = सिमरते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।3।

भावै = अच्छा लगता है। देइ = देता है। जाता = सांझ डाल ली।4।

जागै = सचेत रहता है।5।

त्रेगुण = त्रिगुणी माया की खातिर। ततु = असलियत। मूलहु = मूल से, प्रभू से।6।

त्रिबिधि = तीन गुणों वाली।7।

तिसु भावै = उस प्रभू को अच्छा लगता है। सहसा = सहम।8।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (वेद आदि धार्मिक पुस्तकें) पढ़ते हैं (और इस कारण अपने आप को) पण्डित-विद्वान कहलवाते हैं। (पर, फिर भी वह) माया के प्यार में (टिके रहते हैं। धर्म पुस्तकें पढ़ते हुए भी अहम् आदि का) बड़ा दुख सहते रहते हैं। माया के मोह में मस्त रहने करके उन्हें (आत्मिक जीवन की) कुछ भी समझ नहीं पड़ती, वह मुड़ मुड़ जूनियों में पड़े रहते हैं।1।

(हे भाई!) मैं तो उन मनुष्यों से सदा सदके जाता हूँ, जो अहंकार दूर करके (गुरू चरणों में) मिले रहते हैं। गुरू की शरण पड़ने के कारण परमात्मा उनके मन में आ बसता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वे परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।1। रहाउ।

(अपने आप को पण्डित कहलवाने वाले लोग) वेद (तो) पढ़ते हैं, (पर) उन्हें परमात्मा के मिलाप का आनंद नहीं आता। (वेद आदि पढ़ के तो वह सिर्फ कोई ना कोई) धर्म चर्चा व बहस ही (औरों को) सुनाते हैं। पर (स्वयं वो) माया के मोह में ही टिके रहते हैं। उनकी अपनी मति बेसमझी वाली ही रहती है। उनके अंदर माया के मोह का अंधकार टिका रहता है। गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य (ही गुरू द्वारा) मति ले के परमात्मा की सिफत सालाह कर सकते हैं।2।

(जिस हृदय में) अकॅथ परमात्मा की सिफत सालाह होती रहे, (उस हृदय में) गुरू के शबद की बरकति से (परमात्मा) सुंदर लगने लग पड़ता है। गुरू के उपदेश से सदा स्थिर प्रभू (मनुष्य के) मन को प्यारा लगने लग पड़ता है। (गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य) दिन रात सदा स्थिर परमात्मा को ही सिमरते रहते हैं। (उनका) ये मन सदा स्थिर प्रभू (के प्रेम रंग) में रंगा रहता है।3।

जो मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं, उन्हें वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभू प्यारा लगता है। (ये दाति परमात्मा) स्वयं ही (उनको) देता है। (ये दाति दे के वह) पछताता नहीं (क्योंकि इस दाति की बरकति से) गुरू के शबद में जुड़ केवह सदा स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ बनाए रखते है, और सदा स्थिर प्रभू (के चरणों) में मिल के आत्मिक आनंद लेते हैं।4।

(ऐसे मनुष्यों के हृदयों को) झूठ छू नहीं सकता, ठॅगी छू नहीं सकती। विकारों की मैल नहीं लगती। जिस मनुष्य के हृदय में पवित्र स्वरूप परमात्मा का नाम बसता है, वह गुरू की कृपा से हर वक्त (माया के हमलों से) सुचेत रहता है। उसकी सुरति परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।5।

जो मनुष्य गुरू के शबद के साथ सांझ नहीं डालते, वह (जगत के) मूल परमात्मा (की याद) से वंचित रहते हैं। वह जगत के असले प्रभू के साथ गहरी सांझ नहीं डालते, और वह सदा त्रिगुणी माया के लेखे ही पढ़ते रहते हैं। माया के मोह में गलतान उन मनुष्यों को (परमातमा की भक्ति करने के बारे में) कुछ भी नहीं सूझता। (हे भाई!) गुरू के शबद की बरकति से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।6।

(पण्डित) वेद (आदि धर्म पुस्तकों को) ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। (पर उसके अंदर) त्रिगुणी माया (का प्रभाव बना रहता है)। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (आत्मिक जीवन को) नहीं समझते। (उनका मन) माया के प्यार में ही (टिका रहता है)। वह (इन धर्म पुस्तकों को) त्रिगुणी माया (कमाने) की खातिर पढ़ते हैं। एक परमात्मा से सांझ नहीं डालते (धर्म पुस्तकें पढ़ते हुए भी इस भेद को) समझे बिनां दुख (ही) पाते हैं।7।

(पर, जीवों के भी क्या बस?) जब परमात्मा की अपनी रजा होती है, तबवह स्वयं (ही जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है। गुरू के शबद द्वारा उसका सहम व दुख दूर करता है।

हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम सिमरन की सदा स्थिर रहने वाली इज्जत देता है, वह मनुष्य प्रभू के नाम सिमरन को ही (जीवन उद्देश्य) मान के आत्मिक आनंद का सुख पाता है।8।30।31।

माझ महला ३ ॥ निरगुणु सरगुणु आपे सोई ॥ ततु पछाणै सो पंडितु होई ॥ आपि तरै सगले कुल तारै हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी हरि रसु चखि सादु पावणिआ ॥ हरि रसु चाखहि से जन निरमल निरमल नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ सो निहकरमी जो सबदु बीचारे ॥ अंतरि ततु गिआनि हउमै मारे ॥ नामु पदारथु नउ निधि पाए त्रै गुण मेटि समावणिआ ॥२॥ हउमै करै निहकरमी न होवै ॥ गुर परसादी हउमै खोवै ॥ अंतरि बिबेकु सदा आपु वीचारे गुर सबदी गुण गावणिआ ॥३॥ हरि सरु सागरु निरमलु सोई ॥ संत चुगहि नित गुरमुखि होई ॥ इसनानु करहि सदा दिनु राती हउमै मैलु चुकावणिआ ॥४॥ निरमल हंसा प्रेम पिआरि ॥ हरि सरि वसै हउमै मारि ॥ अहिनिसि प्रीति सबदि साचै हरि सरि वासा पावणिआ ॥५॥ मनमुखु सदा बगु मैला हउमै मलु लाई ॥ इसनानु करै परु मैलु न जाई ॥ जीवतु मरै गुर सबदु बीचारै हउमै मैलु चुकावणिआ ॥६॥ रतनु पदारथु घर ते पाइआ ॥ पूरै सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ गुर परसादि मिटिआ अंधिआरा घटि चानणु आपु पछानणिआ ॥७॥ आपि उपाए तै आपे वेखै ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु लेखै ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुर किरपा ते पावणिआ ॥८॥३१॥३२॥ {पन्ना 128-129}

पद्अर्थ: निरगुण = निर्गुण, माया के तीन गुणों से परे। सरगुण = सर्गुण, जिसमें माया के तीन गुण मौजूद हैं। ततु = अस्लियत।1।

सादु = स्वाद, आनंद।1। रहाउ।

निहकरमी = निर्लिप, वासना रहित। गिआनि = ज्ञान द्वारा। नउ निधि = नौ खजाने।2।

बिबेकु = अच्छे बुरे की परख। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को।3।

सरु = (मान-) सर, सरोवर। होइ = हो के।4।

हंसा = जीवात्मा। सरि = सर में, मानसरोवर में। अहि = दिन। निसि = रात। साजै = सदा स्थिर प्रभू में।5।

बगु = बगुला, बगुले की तरह पाखण्डी। परु = परन्तु।6।

घर ते = हृदय में ही। सतिगुरि = सतिगुर ने। परसादि = कृपा से। घटि = हृदय में। आपु = अपना आप।7।

तै = और। वेखै = संभाल करता है। लेखै = लेखे में, परवान।8।

अर्थ: वह परमात्मा स्वयं ही उस स्वरूप वाला है जिसमें माया के तीन गुणों का लेस मात्रभी अस्तित्व नहीं होता। स्वयं ही उस स्वरूप वाला है जिसमें माया के तीन गुण मौजूद हैं। (आकार-रहित भी स्वयं ही है, और इसका दिखाई देता आकार भी खुद ही है)। जो मनुष्य उसके असल को पहचानता है (उस असले के साथ सांझ डालता है), वह पण्डित बन जाता है। वह मनुष्य खुद (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाता है, वह सदा परमात्मा के नाम को अपने मन में बसाए रखता है।1।

मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो परमात्मा का नाम रस चख के (उसका आत्मिक) आनंद लेते हैं। जो मनुष्य हरी नाम का रस चखते हैं, वे पवित्र आत्मा हो जाते हैं, वे पवित्र प्रभू का नाम सदा सिमरते हैं।1। रहाउ।

जो मनुष्य गुरू के शबद को अपने मन में बसाता है, वह दुनिया के कार्य-व्यवहार वासना रहित हो के करता है। उसके अंदर जगत का मूल प्रभू प्रगट हो जाता है। वह (गुरू के बख्शे) ज्ञान की सहायता से (अपने अंदर के) अहंकार को दूर कर लेता है। वह परमात्मा का नाम खजाना ढूंढ लेता है (जो उसके वास्ते दुनिया के) नौ खजाने (ही हैं)। (इस नाम पदार्थ की बरकति से) वह माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा के (प्रभू चरणों में) लीन रहता है।2।

जो मनुष्य “मैं करता हूँ मैं करता हूँ” की रट लगाए रखते हैं, वे वासना रहित नहीं हो सकते। गुरू की कृपा से ही (कोई विरला मनुष्य) अहंकार को दूर कर सकता है। (जो मनुष्य अहम् को दूर कर लेता है) उसके अंदर अच्छे-बुरे कामों की परख की सूझ पैदा हो जाती है। वह सदा अपने आत्मिक जीवन को विचारता रहता है।3।

(हे भाई!) वह परमात्मा ही पवित्र मानसरोवर है, पवित्र समुंद्र है (पवित्र तीर्थ है), संत जन गुरू की शरण पड़ के (उस में से) सदा (प्रभू नाम रूपी मोती) चुगते रहते हैं। संत जन सदा दिन रात (उस सरोवर में) स्नान करते हैं, तथा (अपने अंदर से) अहंकार की मैल उतारते रहते हैं।4।

वह मनुष्य, जैसे, साफ सुथरा हंस है, जो प्रभू के प्रेम प्यार में (टिका रहता) है। वह (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके परमात्मा सरोवर में बसेरा बनाए रखता है। गुरू के शबद द्वारा वह दिन रात सदा स्थिर परमात्मा में प्रीति पाता है, और इस तरह परमात्मा सरोवर में निवास हासिल किए रखता है।5।

पर, जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह मानो, बगुला है। वह सदा मैला है। उसके अंदर अहंकार की मैल लगी रहती है। (वह तीर्थों पे) स्नान (भी) करता है पर (इस तरह उसकी) अहमृ की मैल दूर नहीं होती। जो मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही स्वै भाव को मारे रहता है, जो गुरू के शबद अपने अंदर टिकाए रखता है, वह अपने अंदर से अहंकार की मैल दूर कर लेता है।6।

जिस मनुष्य को अभॅुल गुरू ने (परमात्मा की सिफत सालाह का) शबद सुना दिया, उस ने (प्रभू का नाम रूपी) कीमती रत्न अपने हृदय में से ही ढूँढ लिया। गुरू की कृपा से उसके अंदर से (अज्ञानता का, माया के मोह का) अंधकार मिट गया। उसके हृदय में (आत्मिक जीवन वाला) प्रकाश हो गया। उसने आत्मिक जीवन को पहचान लिया।7।

(हे भाई!) परमात्मा खुद (सब जीवों को) पैदा करता है और खुद ही (सब की) संभाल करता है। जो मनुष्य गुरू का आसरा लेता है, वह (परमात्मा की दरगाह में) कबूल हो जाता है। हे नानक! उसके हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, गुरू की कृपा से वह (परमात्मा का) मिलाप हासिल कर लेता है।8।31।32।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh