श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ३ ॥ माइआ मोहु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण दीसहि मोहे माइआ ॥ गुर परसादी को विरला बूझै चउथै पदि लिव लावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी माइआ मोहु सबदि जलावणिआ ॥ माइआ मोहु जलाए सो हरि सिउ चितु लाए हरि दरि महली सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ देवी देवा मूलु है माइआ ॥ सिम्रिति सासत जिंनि उपाइआ ॥ कामु क्रोधु पसरिआ संसारे आइ जाइ दुखु पावणिआ ॥२॥ तिसु विचि गिआन रतनु इकु पाइआ ॥ गुर परसादी मंनि वसाइआ ॥ जतु सतु संजमु सचु कमावै गुरि पूरै नामु धिआवणिआ ॥३॥ पेईअड़ै धन भरमि भुलाणी ॥ दूजै लागी फिरि पछोताणी ॥ हलतु पलतु दोवै गवाए सुपनै सुखु न पावणिआ ॥४॥ पेईअड़ै धन कंतु समाले ॥ गुर परसादी वेखै नाले ॥ पिर कै सहजि रहै रंगि राती सबदि सिंगारु बणावणिआ ॥५॥ सफलु जनमु जिना सतिगुरु पाइआ ॥ दूजा भाउ गुर सबदि जलाइआ ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मिलि सतसंगति हरि गुण गावणिआ ॥६॥ सतिगुरु न सेवे सो काहे आइआ ॥ ध्रिगु जीवणु बिरथा जनमु गवाइआ ॥ मनमुखि नामु चिति न आवै बिनु नावै बहु दुखु पावणिआ ॥७॥ जिनि सिसटि साजी सोई जाणै ॥ आपे मेलै सबदि पछाणै ॥ नानक नामु मिलिआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखावणिआ ॥८॥१॥३२॥३३॥ {पन्ना 129}

पद्अर्थ: सबाइआ = सारा। त्रैगुण = त्रिगुणी जीव। दीसहि = दिखाई देते हैं। पदि = दर्जे में, अवस्था में। चउथे पदि = उस आत्मिक अवस्था में जो माया के तीन गुणों के प्रभाप से ऊपर है।1

सबदि = गुरू के शबद द्वारा। दरि = दर से। महली = महल में।1। रहाउ।

देवी देवा मूलु = देवी देवताओं के रचे जाने का आरम्भ। माइआ = माया, सुखों की लालसा व दुखों का डर। जिंनि = जिनि, जिस (माया) ने। कामु = (सुखों की) कामना। क्रोधु = (दुखों के विरुद्ध) गुस्सा। संसारे = संसार में। आइ = आ के, पैदा हो के। आइ जाइ = जनम मरन के चक्र में।2।

तिस विचि = इस संसार में। मंनि = मनि, मन में। गुरि = गुरू के द्वारा।3।

धन = जीव स्त्री। पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। भरमि = भटकना में। भुलाणी = गलत रास्ते पर पड़ गई। दूजै = (प्रभू के बिना) और में। पछोताणी = पछतानी। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक।4।

समाले = (हृदय में) सम्भालती है। सहजि = आत्मिक अडोलता मे। पिर कै रंगि = प्रभू पति के प्रेम रंग में। सबदि = शबद से।5।

दूजा भाउ = (प्रभू के बिना) और प्यार, माया का मोह।6।

काहे आया = व्यर्थ जन्मा। ध्रिग = धृग, तिरस्कार योग्य। चिति = चिक्त में।7।

जिन = जिस (करतार) ने। सिसटि = सृष्टि, दुनिया। पछाणै = पहचान के। धुरि = धुर से, प्रभू की हजूरी से। मसतकि = माथे पर।8।

अर्थ: माया का मोह सारे जगत को व्याप रहा है। सारे ही जीव तीन गुणों के प्रभाव तहत हैं। माया के मोह में हैं। गुरू की कृपा से कोई विरला (एक-आध) मनुष्य (इस बात को) समझता है। वह इन तीन गुणों की मार से ऊपर की आत्मिक अवस्था में टिक के परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़े रखता है।1।

मैं उन मनुष्यों पे से सदा सदके व कुर्बान जाता हूँ, जो गुरू शबद में जुड़ के (अपने अंदर से) माया का मोह जला देते हैं। जो मनुष्य माया का मोह जला लेता है, वह परमात्मा (के चरणों से) अपना चिक्त जोड़ लेता है। वह परमात्मा के दर पे परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है।1। रहाउ।

ये माया ही (भाव, सुखों की कामना और दुखों से डर) देवी देवताओं के रचे जाने का (मूल) कारण है। इस माया ने ही सृम्रितियां व शास्त्र पैदा कर दिए (भाव, सुखों की प्राप्ति व दुखों की निर्विति की खातिर सृम्रितियों व शास्त्रों के द्वारा कर्म-काण्ड रचे गए)। सारे संसार में सुखों की लालसा व दुखों से डर की मानसिकता पसरी हुई है, जिसके कारण जनम मरन के चक्र में पड़ कर दुख पा रहे हैं।2।

इस जगत में (ही) एक रतन (भी है, वह है) परमात्मा के साथ गहरी सांझ का रत्न। (जिस मनुष्य ने वह रत्न) ढूँढ लिया है, जिसने ये रत्न गुरू की कृपा से अपने मन में बसा लिया है (पिरो लिया है), वह मनुष्य पूरे गुरू के द्वारा परमात्मा का नाम सिमरता है, वह मनुष्य मानो, सदा टिके रहने वाला जत कमा रहा है, सत कमा रहा है और संजम कमा रहा है।3।

जो जीव स्त्री इस लोक में माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ी रहती है, वह सदा माया के मोह में मगन रहती है और आखिर में पछताती है। वह जीव स्त्री यह लोक और परलोक दोनों गवा लेती है। उसे स्वप्न में भी आत्मिक आनंद नसीब नहीं होता।4।

जो जीव स्त्री इस लोक में पति प्रभू को (अपने हृदय में) संभाल रखती है, गुरू की कृपा से उसको अपने अंग-संग बसता देखती है। वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है। वह प्रभू पति के प्रेम रंग में रंगी रहती है, वह गुरू के शबद के द्वारा (प्रभू पति के प्रेम को अपने आत्मिक जीवन का) श्रृंगार बनाती है।5।

(जिन भाग्यशाली मनुष्यों) को सतिगुरू मिल गया, उनका मानस जनम कामयाब हो जाता है। गुरू के शबद में जुड़ के वह (अपने अंदर से) माया का प्यार जला लेते हैं। उनके हृदय में एक परमात्मा की (याद ही) हर समय मौजूद रहती है। साध-संगति में मिल के वे परमात्मा के गुण गाते हैं।6।

जो मनुष्य गुरू का आसरा-परना नहीं लेता, वह दुनिया में जैसे आया जैसे ना आया। उसका सारा जीवन ही तिरस्कार-योग्य हो जाता है। वह अपना मानस जनम व्यर्थ गवा जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के चिक्त में (कभी) परमात्मा का नाम नहीं बसता। नाम से टूट के वह बहुत दुख सहता है।7।

(पर, जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने यह जगत रचा है, वही (माया के प्रभाव के इस खेल को) जानता है। वह खुद ही (जीवों की जरूरतें) पहचान के गुरू के शबद द्वारा उन्हें (अपने चरणों में) मिलाता है। हे नानक! उन लोगों को परमात्मा का नाम प्राप्त होता है जिनके माथे पे धुर से ही प्रभू के हुकम अनुसार (नाम की प्राप्ति का) लेख लिखा जाता है।8।1।32।33।

नोट: अंक १ गुरू नानक देव जी की अष्टपदी को बताता है। गुरू अमरदास जी की 32 हैं। कुल जोड़ 33 है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh