श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 130 माझ महला ४ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु आपे ॥ आपे थापे थापि उथापे ॥ सभ महि वरतै एको सोई गुरमुखि सोभा पावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी निरंकारी नामु धिआवणिआ ॥ तिसु रूपु न रेखिआ घटि घटि देखिआ गुरमुखि अलखु लखावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ तू दइआलु किरपालु प्रभु सोई ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ गुरु परसादु करे नामु देवै नामे नामि समावणिआ ॥२॥ तूं आपे सचा सिरजणहारा ॥ भगती भरे तेरे भंडारा ॥ गुरमुखि नामु मिलै मनु भीजै सहजि समाधि लगावणिआ ॥३॥ अनदिनु गुण गावा प्रभ तेरे ॥ तुधु सालाही प्रीतम मेरे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई जाचा गुर परसादी तूं पावणिआ ॥४॥ अगमु अगोचरु मिति नही पाई ॥ अपणी क्रिपा करहि तूं लैहि मिलाई ॥ पूरे गुर कै सबदि धिआईऐ सबदु सेवि सुखु पावणिआ ॥५॥ रसना गुणवंती गुण गावै ॥ नामु सलाहे सचे भावै ॥ गुरमुखि सदा रहै रंगि राती मिलि सचे सोभा पावणिआ ॥६॥ मनमुखु करम करे अहंकारी ॥ जूऐ जनमु सभ बाजी हारी ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥७॥ आपे करता दे वडिआई ॥ जिन कउ आपि लिखतु धुरि पाई ॥ नानक नामु मिलै भउ भंजनु गुर सबदी सुखु पावणिआ ॥८॥१॥३४॥ {पन्ना 130} पद्अर्थ: आदि = सब की शुरुआत। पुरखु = सर्व व्यापक। अपरंपरु = जिसका परला छोर नही मिल सकता। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है।1। निरंकारी नामु = आकार रहित प्रभू का नाम। रेखिआ = चिन्ह चक्र। घटि घटि = हरेक घट में। अलखु = अदृष्ट।1। रहाउ। प्रभू = मालिक। परसादु = कृपा। नामे नामि = नाम में ही नाम में ही।2। सचा = सदा स्थिर। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। भीजै = तरो तर हो जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3। अनदिनु = हर रोज। गावा = मैं गाऊँ। प्रीतम = हे प्रीतम। जाचा = मैं मांगता हूँ। तूं = तूझे।4। अगमु = अगम्य, अपहुँच। अगोचर = जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं। मिति = माप, अंदाजा। सेवि = सेव के।5। रसना = जीभ। सलाहे = सालाहता है। रंगि = प्रेम रंग में।6। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। जूअै = जूए में। गुबारा = अंधेरा।7। दे = देता है। कउ = को। धुरि = धुर से। भउ भंजनु = भय का नाश करने वाला।8। अर्थ: जो परमात्मा (सब का) आरम्भ है। जो सर्व व्यापक है। जिस (की हस्ती) का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। (अपने जैसा) स्वयं ही है। वह स्वयं ही (जगत को) रचता है, रच के खुद ही इसका नाश करता है। वह परमात्मा सब जीवों में स्वयं ही स्वयं मौजूद है (फिर भी वही मनुष्य उसके दर पे) शोभा पाता है जो गुरू के सन्मुख रहता है।1। मैं उन लोगों से सदा सदके कुर्बान हूँ, जो निराकार परमात्मा का नाम सिमरते हैं। उस परमात्मा का कोई खास रूप नहीं, कोई खास चक्र चिन्ह नहीं बयान किया जा सकता। (वैसे) वह हरेक शरीर में बसता दिखाई देता है। उस अदृष्ट प्रभू को गुरू की शरण पड़ के ही समझा जा सकता है।1। रहाउ। (हे प्रभू!) तू दया का घर है, कृपा का श्रोत है। तू ही सब जीवों का मालिक है। तेरे बगैर तेरे बिना और कोई जीव नहीं है। (जिस मनुष्य पे) गुरू कृपा करता है उसे तेरा नाम बख्शता है। वह मनुष्य तेरे नाम में ही मस्त रहता है।2। (हे प्रभू!) तू स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, तू खुद ही सब को पैदा करने वाला है (तेरे पास) तेरी भगती के खजाने भरे पड़े हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसे (गुरू की ओर से) तेरा नाम मिल जाता है। उसका मन (तेरे नाम की याद में) रसा रहता है। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में समाधि लगाए रखता है (टिका रहता है)।3। हे प्रभू! हे मेरे प्रीतम! (मेरे पर मेहर कर) मैं हर रोज (हर वक्त) तेरे गुण गाता रहूँ। मैं तेरी ही सिफत सालाह करता रहूँ। तेरे बिना मैं किसी और से कुछ ना मांगू। (हे मेरे प्रीतम!) गुरू की कृपा से ही तूझे मिला जा सकता है।4। (हे प्रभू!) तू अपहुँच है। मनुष्य की ज्ञानेंद्रियां की तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती। तू कितना बड़ा है– ये बात कोई जीव नही बता सकता। जिस मनुष्य पे (हे प्रभू!) तू मेहर करता है, उसे तू अपने (चरणों) में मिला लेता है। (हे भाई!) उस प्रभू को पूरे गुरू के शबद के द्वारा ही सिमरा जा सकता है। मनुष्य सतिगुरू के शबद को हृदय में धार के आत्मिक आनंद ले सकता है।5। वह जीभ भाग्यशाली है जो परमात्मा के गुण गाती है। वह मनुष्य सदा स्थिर परमात्मा को प्यारा लगता है, जो परमात्मा के नाम को सलाहते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य की जीभ सदा प्रभू के नाम रंग में रंगी रहती है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा स्थिर प्रभू (के चरणों) में मिल के (लोक परलोक में) शोभा कमाता है।6। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (चाहे अपने द्वारा निर्धारित धार्मिक) कर्म करता है। पर, अहंकार में ग्रस्त रहता है (कि मैं धर्मी हूँ), वह मनुष्य (जैसे) जूए में अपना जीवन हार देता है। वह मनुष्य जीवन की बाजी हार जाता है। उसके अंदर माया का लोभ (प्रबल रहता) है। उसके अंदर माया के मोह का घोर अंधकार बना रहता है। वह बारंबर जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है।7। (पर जीवों के भी क्या वश?) जिन मनुष्यों के भाग्यों में परमात्मा ने खुद ही अपनी दरगाह से ही नाम सिमरन की दाति का लेख लिख दिया है, उन्हें वह करतार स्वयं ही (नाम सिमरन की) वडिआई बख्शता है। हे नानक! उन (भाग्यशालियों) को (दुनिया के सारे) डर दूर करने वाला प्रभू का नाम मिल जाता है। गुरू के शबद में जुड़ के वह आत्मि्क आनंद लेते हैं।8।1।34। नोट: अंक १ बताता है कि से अष्टपदी महले ४ की है। कुल जोड़ 34। माझ महला ५ घरु १ ॥ अंतरि अलखु न जाई लखिआ ॥ नामु रतनु लै गुझा रखिआ ॥ अगमु अगोचरु सभ ते ऊचा गुर कै सबदि लखावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी कलि महि नामु सुणावणिआ ॥ संत पिआरे सचै धारे वडभागी दरसनु पावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ साधिक सिध जिसै कउ फिरदे ॥ ब्रहमे इंद्र धिआइनि हिरदे ॥ कोटि तेतीसा खोजहि ता कउ गुर मिलि हिरदै गावणिआ ॥२॥ आठ पहर तुधु जापे पवना ॥ धरती सेवक पाइक चरना ॥ खाणी बाणी सरब निवासी सभना कै मनि भावणिआ ॥३॥ साचा साहिबु गुरमुखि जापै ॥ पूरे गुर कै सबदि सिञापै ॥ जिन पीआ सेई त्रिपतासे सचे सचि अघावणिआ ॥४॥ तिसु घरि सहजा सोई सुहेला ॥ अनद बिनोद करे सद केला ॥ सो धनवंता सो वड साहा जो गुर चरणी मनु लावणिआ ॥५॥ पहिलो दे तैं रिजकु समाहा ॥ पिछो दे तैं जंतु उपाहा ॥ तुधु जेवडु दाता अवरु न सुआमी लवै न कोई लावणिआ ॥६॥ जिसु तूं तुठा सो तुधु धिआए ॥ साध जना का मंत्रु कमाए ॥ आपि तरै सगले कुल तारे तिसु दरगह ठाक न पावणिआ ॥७॥ तूं वडा तूं ऊचो ऊचा ॥ तूं बेअंतु अति मूचो मूचा ॥ हउ कुरबाणी तेरै वंञा नानक दास दसावणिआ ॥८॥१॥३५॥ {पन्ना 130} पद्अर्थ: अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। अलखु = अदृष्ट परमात्मा। गुझा = गुप्त, छुपा हुआ। ते = से। सबदि = शबद से।1। कलि महि = जगत में, मनुष्य जीवन में । (नोट: यहाँ किसी खास युग के बढ़िया घटिया होने का जिक्र नहीं चल रहा। जिस समय सतिगुरू जी शारीरिक तौर पर जगत में आए उस समय को कलयुग कहा जा रहा है। सो, साधारण तौर पर ही समय का जिक्र है)। सचे = सदा स्थिर प्रभू ने। धारे = आसरा दिया है।1। रहाउ। साधिक = योग साधना करने वाले योगी। सिध = योग साधना में माहिर योगी। कोटि = करोड़।2। जापे = जपती है, हुकम में चलती है। पवन = हवा। पाइक = टहिलण, सेविका, टहल करने वाली। मनि = मन में।3। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। जापै = दिखता है, प्रतीत होता है, सूझता है। त्रिपतासे = तृप्त हो गए। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। अघावणिआ = तृप्त हो गए।4। घरि = हृदय घर में। सहजा = आत्मिक अडोलता। सुहेला = सुखी, आसान। अनद बिनोद केल = आत्मिक खुशियां आत्मिक आनंद। सद = सदा।5। तैं = तू। समाहा = संवाह्य to collect, प्रबंध किया। उपाहा = पैदा किया। लवै = बराबर। लवै न लावणिआ = बराबरी पे नहीं लाया जा सकता।6। तुठा = प्रसन्न हुआ। मंत्र = उपदेश। ठाक = रुकावट।7। मूचा = बड़ा। वंञा = वंजां, जाता हूँ। दास दसावणिआ = दासों का दास।8। अर्थ: अदृष्ट परमातमा (हरेक जीव के) अंदर (बसता है, पर हरेक जीव अपने अंदर उसके अस्तित्व को) जाच नहीं सकता। (हरेक जीव के अंदर) परमात्मा का श्रेष्ठ अमोलक नाम मौजूद है (परमातमा ने हरेक के अंदर) छुपा के रख दिया है (हरेक जीव को उसकी कद्र नहीं)। (सब जीवों के अंदर बसा हुआ भी परमात्मा) जीवों की पहुँच से परे है। जीवों की ज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे है। सब जीवों की आत्मिक उड़ान से ऊँचा है। (हां) गुरू के शबद में जुड़ने से (जीव को अपने अंदर उसके अस्तित्व की) समझ आ सकती है।1। मैं उन मनुष्यों से सदके कुर्बान जाता हूं, जो मानस जनम में (आ के परमात्मा का नाम सुनते हैं तथा औरों को) नाम सुनाते हैं। सदा स्थिर परमात्मा ने जिन्हें (अपने नाम का) सहारा दिया है, वह संत बन गए। वे उसके प्यारे हो गए। उन भाग्यशालियों ने परमात्मा के दर्शन पा लिए।1। रहाउ। योग साधना करने वाले योगी, योग साधना में माहिर योगी, जिस परमात्मा (की प्राप्ति) की खातिर (जंगलों पहाड़ों में भटकते) फिरते हैं। ब्रह्मा इन्द्र (आदि देवते) जिसको अपने हृदय में सिमरते हैं। तैंतीस करोड़ देवते भी उसकी तलाश करते हैं (पर दीदार नहीं कर सकते। भाग्यशाली मनुष्य) गुरू को मिल के अपने हृदय में (उसके गुण) गाते हैं।2। (हे प्रभू! तेरी बनायी हुई) हवा आठों पहर तेरे हुकम में चलती है। (तेरी पैदा की हुई) धरती तेरे चरणों की टहिलन है सेविका है। चारों खाणियों में पैदा हुए और भांति भांति की बोलियां बोलने वाले सब जीवों के अंदर तू बस रहा है। तू सब जीवों के मन में प्यारा लगता है।3। (हे भाई!) मालिक प्रभू सदा कायम रहने वाला है। गुरू की शरण पड़ने से उसकी सूझ आती है। पूरे गुरू के शबद में जुड़ने से ही उसके साथ जान पहिचान बनती है। जिन मनुष्यों ने उसका नाम अंमृत पिया है, वही (माया की तृष्णा की तरफ से) तृप्त हैं।4। जो मनुष्य गुरू के चरणों में अपना मन जोड़ता है, उसके हृदय घर में आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है। वह मनुष्य सुखी (जीवन व्यतीत करता) है। वह सदा आत्मिक खुशियां आत्मिक आनंद हासिल करता है। वह मनुष्य (असल) धन का मालिक हो गया है। वह मनुष्य बड़ा व्यापारी बन गया है।5। (हे प्रभू! जीव को पैदा करने से) पहले तू (माँ के थनों में उसके वास्ते दूध) रिजक का प्रबंध करता है। फिर तू जीव को पैदा करता है। हे स्वामी! तेरे जितना बड़ा और कोई दाता नहीं है, कोई तेरी बराबरी नहीं कर सकता।6। (हे प्रभू! जिस मनुष्य पे तू प्रसन्न होता है वह तेरा ध्यान धरता है। वह उन गुरमुखों का उपदेश कमाता है जिन्होंने अपने मन को साधा हुआ है। वह मनुष्य (संसार समुंद्र में से) स्वयं पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है। तेरी हजूरी में पहुँचने के राह में उसे कोई रोक नही सकता।7। (हे प्रभू! ताकत व स्मर्था में) तू (सब से) बड़ा है (आत्मिक उच्चता में) तू सबसे ऊँचा है। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। तू बेअंत बड़ी हस्ती वाला है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, मैं तेरे दासों का दास हूँ।8।1।35। नोट: अंक १ बताता है कि ये अष्टपदी महले पंजवें (श्री गुरू अरजुन देव जी) की है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |