श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 131 माझ महला ५ ॥ कउणु सु मुकता कउणु सु जुगता ॥ कउणु सु गिआनी कउणु सु बकता ॥ कउणु सु गिरही कउणु उदासी कउणु सु कीमति पाए जीउ ॥१॥ किनि बिधि बाधा किनि बिधि छूटा ॥ किनि बिधि आवणु जावणु तूटा ॥ कउण करम कउण निहकरमा कउणु सु कहै कहाए जीउ ॥२॥ कउणु सु सुखीआ कउणु सु दुखीआ ॥ कउणु सु सनमुखु कउणु वेमुखीआ ॥ किनि बिधि मिलीऐ किनि बिधि बिछुरै इह बिधि कउणु प्रगटाए जीउ ॥३॥ कउणु सु अखरु जितु धावतु रहता ॥ कउणु उपदेसु जितु दुखु सुखु सम सहता ॥ कउणु सु चाल जितु पारब्रहमु धिआए किनि बिधि कीरतनु गाए जीउ ॥४॥ गुरमुखि मुकता गुरमुखि जुगता ॥ गुरमुखि गिआनी गुरमुखि बकता ॥ धंनु गिरही उदासी गुरमुखि गुरमुखि कीमति पाए जीउ ॥५॥ हउमै बाधा गुरमुखि छूटा ॥ गुरमुखि आवणु जावणु तूटा ॥ गुरमुखि करम गुरमुखि निहकरमा गुरमुखि करे सु सुभाए जीउ ॥६॥ गुरमुखि सुखीआ मनमुखि दुखीआ ॥ गुरमुखि सनमुखु मनमुखि वेमुखीआ ॥ गुरमुखि मिलीऐ मनमुखि विछुरै गुरमुखि बिधि प्रगटाए जीउ ॥७॥ गुरमुखि अखरु जितु धावतु रहता ॥ गुरमुखि उपदेसु दुखु सुखु सम सहता ॥ गुरमुखि चाल जितु पारब्रहमु धिआए गुरमुखि कीरतनु गाए जीउ ॥८॥ सगली बणत बणाई आपे ॥ आपे करे कराए थापे ॥ इकसु ते होइओ अनंता नानक एकसु माहि समाए जीउ ॥९॥२॥३६॥ {पन्ना 131} पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। मुकता = माया के बंधनों से आजाद। जुगता = प्रभू चरणों में जुड़ा हुआ। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला। बकता = वक्ता, प्रभू के गुण वर्णन करने वाला। गिरही = गृहस्ती।1। किनि बिधि = किस तरीके से? कउण करम = (अच्छे) कौन से कर्म? निहकरमा = किरत करते हुए भी वासना रहित।2। इह बिधि = ये ढंग।3। अखरु = शबद। धावतु = (विकारों की ओर) दौड़ता (मन)। सम = एक जैसा।4। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। धंनु = धन्य, भाग्यशाली।5। सुभाऐ = प्रेम में टिक के।6। अर्थ: वह कौन सा मनुष्य है जो माया के बंधनों से आजाद रहता है और प्रभू के चरणों में जुड़ा रहता है? वह कौन सा मनुष्य है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है और उसकी सिफत सालाह करता है? (अच्छा) गृहस्ती कौन हो सकता है? माया से निर्लिप कौन है? वह कौन सा मनुष्य है जो (मनुष्य जन्म की) कद्र समझता है?।1। मनुष्य (माया के मोह के बंधनों में) कैसे बंध जाता है और कैसे (उन बंधनों से) स्वतंत्र होता है? किस तरीके से जनम मरन का चक्र खत्म होता है? अच्छे काम कौन से है? वह कौन सा मनुष्य है जो दुनिया में बिचरता हुआ भी वासना रहित है? वह कौन सा मनुष्य है जो स्वयं सिफत सालाह करता है तथा (औरों से भी) करवाता है?।2। सुखी जीवन देने वाला कौन है? कौन दुखों में घिरा हुआ है? सन्मुख किस को कहा जाता है? बेमुख किसे कहते हैं? प्रभू चरणों में किस तरह मिल सकते हैं? मनुष्य प्रभू से कैसे बिछुड़ जाता है? ये जाच कौन सिखाता है?।3। वह कौन सा शबद है जिससे विकारों की तरफ दौड़ता मन टिक जाता है (ठहर जाता है) ? वह कौन सा उपदेश है जिस पे चल के मनुष्य दुख सुख एक समान सह सकता है? वह कौन सा जीवन ढंग है जिससे मनुष्य परमात्मा को सिमर सके? किस तरह परमात्मा की सिफत सालाह करता रहे?।4। गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य माया के बंधनों से आजाद रहता है और परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है। गुरू की शरण में रहने वाला मनुष्य ही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है और प्रभू की सिफत सालाह करता है। गुरू के सनमुख रहने वाला मनुष्य ही भाग्यशाली गृहस्ती है। वह दुनिया की किर्त-कार करता हुआ भी निर्लिप रहता है। वही मनुष्य जन्म की कद्र समझता है।5। (अपने मन के पीछे चल के मनुष्य अपने ही) अहंकार के कारण (माया के बंधनों में) बंध जाता है। गुरू की शरण पड़ के (इन बंधनों से) आजाद हो जाता है। गुरू के बताए राह पे चलने से मनुष्य के जनम मरन का चक्र समाप्त हो जाता है। गुरू के सन्मुख रह के अच्छे काम हो सकते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य दुनिया की किर्त कार करता हुआ भी वासना रहित रहता है। ऐसा मनुष्य जो कुछ भी करता है प्रभू के प्रेम में टिक के करता है।6। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सुखी जीवन वाला है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य नित्य दुखी रहता है। गुरू के बताए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य परमात्मा की तरफ मुंह रखने वाला है। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा रॅब से मुंह मोड़े रखता है। गुरू के सन्मुख रहने से परमात्मा को मिल सकते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा परमातमा से विछुड़ जाता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही (सही जीवन की) जाच सिखाता है।7। गुरू के मुंह से निकले शबद ही वह बोल हैं जिसकी बरकति से विकारों की तरफ दौड़ता मन खड़ा हो जाता है। गुरू से मिला उपदेश ही (ये स्मर्था रखता है कि मनुष्य उस के आसरे) दुख सुख को एक समान करके सहता है। गुरू की राह पे चलना ही ऐसी जीवन चाल है कि इस के द्वारा मनुष्य परमातमा का ध्यान धर सकता है और परमात्मा की सिफत सालाह करता है।8। (पर, गुरमुख और मनमुख--ये) सारी रचना परमात्मा ने स्वयं ही बनायी है, (सब जीवों में व्यापक हो के) वह स्वयं ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है। वह स्वयं ही जगत की सारी खेल चला रहा है। हे नानक! वह स्वयं ही अपने एक स्वरूप से बेअंत रूपों रंगों वाला बना हुआ है। (यह सारा बहुरंगी जगत) उस एक में ही लीन हो जाता है।8।2।36। माझ महला ५ ॥ प्रभु अबिनासी ता किआ काड़ा ॥ हरि भगवंता ता जनु खरा सुखाला ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता तूं करहि सोई सुखु पावणिआ ॥१॥ हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि मनि तनि भावणिआ ॥ तूं मेरा परबतु तूं मेरा ओला तुम संगि लवै न लावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ तेरा कीता जिसु लागै मीठा ॥ घटि घटि पारब्रहमु तिनि जनि डीठा ॥ थानि थनंतरि तूंहै तूंहै इको इकु वरतावणिआ ॥२॥ सगल मनोरथ तूं देवणहारा ॥ भगती भाइ भरे भंडारा ॥ दइआ धारि राखे तुधु सेई पूरै करमि समावणिआ ॥३॥ अंध कूप ते कंढै चाड़े ॥ करि किरपा दास नदरि निहाले ॥ गुण गावहि पूरन अबिनासी कहि सुणि तोटि न आवणिआ ॥४॥ ऐथै ओथै तूंहै रखवाला ॥ मात गरभ महि तुम ही पाला ॥ माइआ अगनि न पोहै तिन कउ रंगि रते गुण गावणिआ ॥५॥ किआ गुण तेरे आखि समाली ॥ मन तन अंतरि तुधु नदरि निहाली ॥ तूं मेरा मीतु साजनु मेरा सुआमी तुधु बिनु अवरु न जानणिआ ॥६॥ जिस कउ तूं प्रभ भइआ सहाई ॥ तिसु तती वाउ न लगै काई ॥ तू साहिबु सरणि सुखदाता सतसंगति जपि प्रगटावणिआ ॥७॥ तूं ऊच अथाहु अपारु अमोला ॥ तूं साचा साहिबु दासु तेरा गोला ॥ तूं मीरा साची ठकुराई नानक बलि बलि जावणिआ ॥८॥३॥३७॥ {पन्ना 131-132} पद्अर्थ: काड़ा = फिक्र, चिंता। भगवंता = सब सुखों का मालिक। खरा = बहुत। मान = मन का।1। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। ओला = आसरा। लवै = नजदीक। लवै न लावणिआ = बराबरी का नहीं।1। रहाउ। घटि घटि = हरेक शरीर में। तिनि = उस ने। जनि = जन में। तिनि जनि = उस जन ने। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। अंतरि = में।2। भाइ = प्रेम से। सेई = वही लोग। करमि = बख्शिश से।3। कूप = कूआँ। अंध कूप ते = माया के मोह के अंधे कूएं से। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाले = देखता है। करि = करके। सुणि = सुन के।4। गरभ महि = पेट में। रंग रते = प्रेम रंग में रंगे हुए।5। समाली = मैं संभालूं, मैं याद करूँ। तुधु = तुझे ही। नदरि निहाली = नजर से मैं देखता हूं।6। सहाई = मददगार। काई = कोई। सरणि = शरण्य, a protector, रक्षा करने के स्मर्थ। जपि = जप के।7। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। गोला = गुलाम। मीरा = मालिक। साची = सदा कायम रहने वाली। ठकुराई = माल्कियत।8। अर्थ: (जिस मनुष्य को ये यकीन हो कि मेरे सिर पर) अबिनाशी प्रभू (रक्षक है, उसे) कोई चिंता फिक्र नहीं होता। (जब मनुष्य को ये निश्चय हो कि) सब सुखों का मालिक हरी (मेरा रक्षक है) तो वह बहुत आसान जीवन व्यतीत करता है। हे प्रभू जिसे ये निश्चय है कि तू जिंद का प्राणों का, मन का सुख दाता है, और जो कुछ तू करता है वही होता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद माणता है।1। (हे प्रभू!) मैं तेरे से सदके हूँ कुर्बान हूं। गुरू की शरण पड़ने से तू मन में, दिल में प्यारा लगने लग जाता है। हे प्रभू! तू मेरे लिए पर्बत (के समान सहारा) है, तू मेरा आसरा है। मैं तेरे साथ किसी और को बराबरी का दर्जा नहीं दे सकता।1। रहाउ। हे प्रभू! तू पारब्रह्म (हरेक हृदय में बस रहा) है। जिस मनुष्य को तेरा भाणा मीठा लगने लग जाए, उस मनुष्य ने तूझे हरेक हृदय में बसा हुआ देख लिया है। हरेक जगह में तू ही तू ही, सिर्फ एक तू ही बस रहा है।2। हे प्रभू! सब जीवों की मन मांगी मुरादें तू ही पूरी करने वाला है। तेरे घर में भक्ति धन के, प्रेम धन के खजाने भरे पड़े हैं। जो लोग तेरी पूरी मेहर से तेरे में लीन रहते हैं, दया करके उनको तू (माया के हमलों से) बचा लेता है।3। (हे भाई!) परमात्मा अपने सेवकों पर मेहर करता है। उनको मेहर की नजर के साथ देखता है, उन्हें माया के मोह के अंधे कूएं में से निकाल के बाहर किनारे पर चढ़ा देता हैं वह सेवक अविनाशी प्रभू के गुण गाते रहते हैं। (हे भाई! प्रभू के गुण बेअंत हैं) कहने से, सुनने से (उसके गुणों का) खात्मा नहीं हो सकता है।4। हे प्रभू! इस लोक में परलोक में तू ही (सब जीवों का) रक्षक है। माँ के पेट में ही (जीवों की) पालना करता है। उन लोगों को माया (की तृष्णा) की आग छू नहीं सकती, जो तेरे प्रेम रंग में रंगे हुए तेरे गुण गाते रहते हैं।5। हे प्रभू! मैं तेरे कौन कौन से गुण कह के याद करूँ? मैं अपने मन में तन में तूझे ही बसता देख रहा हूँ। हे प्रभू! तू ही मेरा मालिक है। तेरे बिना मैं किसी और को (तेरे जैसा मित्र) नहीं समझता।6। हे प्रभू! जिस मनुष्य वास्ते तू रक्षक बन जाता है, उसे कोई दुख कलेष छू नहीं सकता। तू ही उसका मालिक है, तू ही उसका रक्षक है, तू ही उसे सुख देने वाला है। साध-संगति में तेरा नाम जप के वह तुझे अपने हृदय में प्रत्यक्ष देखता है।7। हे प्रभू! (आत्मिक जीवन में) तू (सब जीवों से) ऊँचा है, तू (मानो, गुणों का समुंद्र) है, जिसकी गहराई नहीं मापी जा सकती। तेरी हस्ती का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। तेरा मुल्य नहीं पड़ सकता (किसी भी पदार्थ के बदले तेरी प्राप्ति नहीं हो सकती)। तू सदा कायम रहने वाला मालिक है। मैं तेरा दास हूँ, गुलाम हूँ। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) तू (मेरा) मालिक है; तेरी मल्कियत सदा कायम रहने वाली है। मैं तुझसे सदा सदके हूँ, कुर्बान हूँ।8।3।37। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |