श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 132 माझ महला ५ घरु २ ॥ नित नित दयु समालीऐ ॥ मूलि न मनहु विसारीऐ ॥ रहाउ ॥ संता संगति पाईऐ ॥ जितु जम कै पंथि न जाईऐ ॥ तोसा हरि का नामु लै तेरे कुलहि न लागै गालि जीउ ॥१॥ जो सिमरंदे सांईऐ ॥ नरकि न सेई पाईऐ ॥ तती वाउ न लगई जिन मनि वुठा आइ जीउ ॥२॥ सेई सुंदर सोहणे ॥ साधसंगि जिन बैहणे ॥ हरि धनु जिनी संजिआ सेई ग्मभीर अपार जीउ ॥३॥ हरि अमिउ रसाइणु पीवीऐ ॥ मुहि डिठै जन कै जीवीऐ ॥ कारज सभि सवारि लै नित पूजहु गुर के पाव जीउ ॥४॥ जो हरि कीता आपणा ॥ तिनहि गुसाई जापणा ॥ सो सूरा परधानु सो मसतकि जिस दै भागु जीउ ॥५॥ मन मंधे प्रभु अवगाहीआ ॥ एहि रस भोगण पातिसाहीआ ॥ मंदा मूलि न उपजिओ तरे सची कारै लागि जीउ ॥६॥ करता मंनि वसाइआ ॥ जनमै का फलु पाइआ ॥ मनि भावंदा कंतु हरि तेरा थिरु होआ सोहागु जीउ ॥७॥ अटल पदारथु पाइआ ॥ भै भंजन की सरणाइआ ॥ लाइ अंचलि नानक तारिअनु जिता जनमु अपार जीउ ॥८॥४॥३८॥ {पन्ना 132} पद्अर्थ: दयु = प्यार करने वाला परमात्मा। मूलि न = कभी नही। रहाउ। जितु = जिस (साध-संगति) से। पंथि = रास्ते में। जम कै पंथि = जमों के राह पर, उस राह पे जहां यम से वास्ता पड़े, आत्मिक मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते पर। तोसा = रास्ते का खर्च। कुलहि = कुल को। गालि = गाली, कलंक, बदनामी।1। सांइअै = सांई को। नरकि = नर्क में। सेई = उन्हें। पाईअै = पाया जाता। मनि = मन में। वुठा = बसा हुआ।2। बैहणे = बैठना उठना, मिलना जुलना। संजिआ = सींचा, एकत्र किया। गंभीर = गहरे जिगरे वाले।3। अमिउ = नाम अमृत। रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर। मुहि डिठै = अगर मुंह देख लिया जाए। जीवीअै = आत्मिक जीवन मिले। सभि = सारे। पाव = (शब्द ‘पाउ’ का वचन) पैर।4। जो = जिसे। तिनहि = तिनि ही, उस ने ही (‘तिनहि’ में ‘न’ की ‘ि’ हट गई है। = देखें गुरबाणी व्याकरण)। सूरा = सूरमा। मसतकि = माथे पे।5। मंधे = (मध्य) में। अवगाहीआ = (अवगाह = to bathe oneself into, to plunge) डुबकी लगानी चाहिए। एहि = (‘इह’ का बहुवचन) इन।6। मंनि = मनि, मन में। भावंदा = पसंद। थिरु = कायम।7। भै भंजन = डर दूर करने वाला। अंचलि = आँचल से, पल्ले से। तारिअनु = तारि+उन, उस ने तारे।8। अर्थ: (हे भाई!) सदा ही उस परमात्मा को हृदय में बसाना चाहिए जो सब जीवों पे तरस करता है, उसे अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। रहाउ। (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से परमात्मा का नाम मिलता है। साध-संगति की बरकति से आत्मिक मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते पर नहीं पड़ते। (हे भाई! जीवन सफर वास्ते) परमात्मा का नाम खर्च (अपने पल्ले बांध) ले, (इस तरह) तेरी कुल को (भी) कोई बदनामी नहीं आएगी।1। जो मनुष्य खसम परमात्मा का सिमरन करते हैं उन्हें नर्क में नहीं डाला जाता। (हे भाई!) जिनके मन में परमात्मा आ बसता है, उन्हें कोई दुख कलेष छू नहीं सकता।2। वही मनुष्य सोहने सुंदर (जीवन वाले) हैं, जिनका उठना बैठना साधसंगति में है। जिन लोगों ने परमात्मा का नाम धन इकट्ठा कर लिया, वे बेअंत गहरे जिगरे वाले बन जाते हैं।3। (हे भाई!) परमात्मा का नाम अमृत पीना चाहिए। (ये नाम अमृत) सारे रसों का श्रोत है। (हे भाई!) परमात्मा के सेवक का दर्शन करने से आत्मिक जीवन मिलता है, (इस वास्ते तू भी) सदा गुरू के पैर पूज (गुरू की शरण पड़ा रह, और इस तरह) अपने सारे काम सर कर ले।4। जिस मनुष्य को परमात्मा ने अपना (सेवक) बना लिया है, उसने ही पति प्रभू का सिमरन करते रहना है। जिस मनुष्य के माथे पे (प्रभू की इस दाति के) भाग्य जाग जाएं, वह (विकारों से टक्कर ले सकने के स्मर्थ) शूरवीर बन जाते हैं। वह (मनुष्यों में) श्रेष्ठ मनुष्य माने जाते हैं।5। हे भाई! अपने मन में ही डुबकी लगाओ और प्रभू के दर्शन करो-यही है दुनिया के सारे रसों का भोग। यही है दुनिया की बादशाहियां। (जिन मनुष्यों ने परमात्मा को अपने अंदर ही देख लिया, उनके मन में) कभी कोई विकार पैदा नहीं होता। वह सिमरन की सच्ची कार में लग के (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।6। जिस मनुष्य ने करतार को अपने मन में बसा लिया, उसने मानस जनम का फल प्राप्त कर लिया। (हे जीव स्त्री!) अगर तुझे कंत हरी अपने मन में प्यारा लगने लग जाए, तो तेरा ये सुहाग सदा के लिए (तेरे सिर पर) कायम रहेगा।7। (परमात्मा का नाम सदा कायम रहने वाला धन है, जिन्होंने) यह सदा कायम रहने वाला धन ढूँढ लिया, जो लोग सदा डर नाश करने वाले परमात्मा की शरण में आ गए, उन्हें, हे नानक! परमात्मा ने अपने साथ लगा के (संसार समुंद्र से) पार लंघा लिया। उन्होंने मानस जन्म की बाजी जीत ली।8।4।38। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |