श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माझ महला ५ घरु ३ ॥ हरि जपि जपे मनु धीरे ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरि सिमरि गुरदेउ मिटि गए भै दूरे ॥१॥ सरनि आवै पारब्रहम की ता फिरि काहे झूरे ॥२॥ चरन सेव संत साध के सगल मनोरथ पूरे ॥३॥ घटि घटि एकु वरतदा जलि थलि महीअलि पूरे ॥४॥ पाप बिनासनु सेविआ पवित्र संतन की धूरे ॥५॥ सभ छडाई खसमि आपि हरि जपि भई ठरूरे ॥६॥ करतै कीआ तपावसो दुसट मुए होइ मूरे ॥७॥ नानक रता सचि नाइ हरि वेखै सदा हजूरे ॥८॥५॥३९॥१॥३२॥१॥५॥३९॥ {पन्ना 133}

पद्अर्थ: जपै = जप के। धीरे = धीरज पकड़ता है।1। रहाउ।

भै = सारे डर। सिमरि = सिमर के।1।

काहे झूरै = कोई चिंता फिक्र नहीं रह जाती, क्यूँ झुरेगा?

संत साध के = गुरू के।3।

घटि घटि = हरेक शरीर में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में।4।

धूरै = चरण धूड़।5।

खसमि = खसम ने। ठरूरे = शांत चित्त, सीतल।6।

करतै = करतार ने। तपावसो = (अरबी शब्द ‘तफ़ाहुस’), निर्णय, न्याय। मूरा = गाय भैंस के बच्चे की खाल में भूसा भर के बनाया हुआ पुतला जो बछड़ा या कट्टा सा लगे। अर्थात देखने में जीवित पर असल में मुर्दा।7।

सचि = सदा स्थिर प्रभू में। नाइ = नाम में। हजूरे = अंग संग।8।

अर्थ: परमात्मा का नाम जप जप के (मनुष्य का) मन धैर्यवान हो जाता है (दुनियां के सुखों दुखों में डोलता नहीं)। रहाउ।

सबसे बड़े अकाल-पुरख को सिमर सिमर के सारे डर सहम मिट जाते हैं; दूर हो जाते हैं।1।

जब मनुष्य परमात्मा का आसरा ले लेता है, उसे कोई चिंता, फिक्र छू नहीं सकती।2।

गुरू के चरणों की सेवा करने से (गुरू का दर पे आने से) मनुष्य के मन की सारी जरूरतें पूरी हो जाती है।3।

(यह निश्चय बन जाता है कि) हरेक शरीर में परमात्मा ही बस रहा है; जल में धरती में आकाश में परमात्मा ही व्यापक है।4।

जो मनुष्य संत जनों की चरण धूड़ ले के सारे पापों का नाश करने वाले परमात्मा को सिमरते हैं, वह स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं।5।

परमात्मा का नाम जप के सारी सृष्टि शीतल-मन हो जाती है; सारी सृष्टि को पति प्रभू ने (विकारों की तपश से) बचा लिया।6।

ईश्वर ने यह ठीक न्याय किया है कि विकारी मनुष्य देखने को जीवित दिखाई देते हैं पर असल में आत्मिक मौत मरे हुए होते हैं।7।

हे नानक! जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू के नाम में लीन होता है, वह उसे सदा अपने अंग संग बसता देखता है।8।5।39।

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बारह माहा मांझ महला ५ घरु ४
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

किरति करम के वीछुड़े करि किरपा मेलहु राम ॥ चारि कुंट दह दिस भ्रमे थकि आए प्रभ की साम ॥ धेनु दुधै ते बाहरी कितै न आवै काम ॥ जल बिनु साख कुमलावती उपजहि नाही दाम ॥ हरि नाह न मिलीऐ साजनै कत पाईऐ बिसराम ॥ जितु घरि हरि कंतु न प्रगटई भठि नगर से ग्राम ॥ स्रब सीगार त्मबोल रस सणु देही सभ खाम ॥ प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ मीत सजण सभि जाम ॥ नानक की बेनंतीआ करि किरपा दीजै नामु ॥ हरि मेलहु सुआमी संगि प्रभ जिस का निहचल धाम ॥१॥ {पन्ना 133}

(देखें बारा माहा महला १ तुखारी राग, भाग अठवां, पन्ना133)

पद्अर्थ: किरति = कमाई (performance के अनुसार)। राम = हे प्रभू। कुंट = कूट, पासा। दहदिस = दसों ओर (पूरब, पश्चिम, उक्तर, दक्षिण, चारों ओर, ऊपर, नीचे)। साम = सरन। धेनु = गाय। बाहरी = बिना। साख = खेती, फसल। दाम = पैसे, धन। नाह = पति, खसम। कत = कैसे? बिसराम = सुख। जितु = जिस में। जितु घरि = जिस (हृदय) घर में। भठि = तपती भट्ठी। से = जैसे। ग्राम = गांव। स्रब = सारे। तंबोल = पान के बीड़े। सणु = समेत। देही = शरीर। खाम = कच्चे, नाशवंत, व्यर्थ। सभि = सारे। जाम = जम, जिंद के वैरी। संगि = (अपने) साथ। धाम = टिकाना।

अर्थ: हे प्रभू!हम अपने कर्मों की कमाई के अनुसार (तुझसे) विछुड़े हुए हैं (तुझे बिसारे बैठे हैं), मेहर करके हमें अपने साथ मिलाओ। (माया के मोह में फंस के) चुफेरे हर तरफ (सुखों की खातिर) भटकते रहे हैं। अब, हे प्रभू थक के तेरी शरण आए हैं।

(जैसे) दूध से विहीन गाय किसी काम नही आती, (जैसे) पानी के बिना खेती सूख जाती है (फसल नहीं पकती, और उस खेती में से) धन की कमाई नहीं हो सकती (वैसे ही प्रभू के नाम के बिना हमारा जीवन व्यर्थ चला जाता है)। सज्जन पति प्रभू को मिले बगैर किसी और जगह से सुख नहीं मिलता। (सुख मिले भी कैसे?) जिसके हृदय में पति प्रभू आ बसे, उसके लिए तो (बसते) गाँव और शहर तपती भट्ठी जैसे होते हैं। (स्त्री को पति के बिना) शरीर के सारे श्रृंगार, पानों के बीड़े व अन्य रस (अपने) शरीर समेत व्यर्थ ही प्रतीत होते हैं। (वैसे) मालिक प्रभू पति (की याद) के बिना सारे सज्जन मित्र जिंद के वैरी हो जाते हैं।

(तभी तो) नानक की बेनती है कि (हे प्रभू!) कृपा करके अपने नाम की दाति बख्श। हे हरी! अपने चरणों में (मुझे) जोड़े रख। (और सारे आसरे उम्मीदें नाशवंत हैं) एक तेरा घर सदा अटॅल रहने वाला है।1।

चेति गोविंदु अराधीऐ होवै अनंदु घणा ॥ संत जना मिलि पाईऐ रसना नामु भणा ॥ जिनि पाइआ प्रभु आपणा आए तिसहि गणा ॥ इकु खिनु तिसु बिनु जीवणा बिरथा जनमु जणा ॥ जलि थलि महीअलि पूरिआ रविआ विचि वणा ॥ सो प्रभु चिति न आवई कितड़ा दुखु गणा ॥ जिनी राविआ सो प्रभू तिंना भागु मणा ॥ हरि दरसन कंउ मनु लोचदा नानक पिआस मना ॥ चेति मिलाए सो प्रभू तिस कै पाइ लगा ॥२॥ {पन्ना 133}

पद्अर्थ: चेति = चेत के महीने में। घणा = बहुत। मिलि = मिल के। रसना = जीभ। भणा = उच्चारन। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिसहि = उसे। आऐ गणा = आया समझो। जणा = जानो। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। मणा = मण भर वजन, बहुत। कउ = को। मना = मनि, मन में। तिस कै पाइ = उस मनुष्य के पैरों में। लगा = लगूँ, मैं लगता हूँ।

अर्थ: चेत में (बसंत ऋतु आती है, हर तरफ खिली फुलवाड़ी मन को आनंद देती है, अगर) परमात्मा को सिमरें (तो सिमरन की बरकति से) बहुत आत्मिक आनंद हो सकता है। पर जीभ से प्रभू का नाम जपने की दाति संत जनों को मिल के ही प्राप्त होती है। उसी को जगत में पैदा हुआ जानो (उसी का जनम सफल समझो) जिस ने (सिमरन की सहायता से) अपने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया (क्योंकि) परमात्मा की याद के बिना एक छिन मात्र समय गुजारा हुआ भी व्यर्थ बीता जानो।

जो प्रभू पानी में, धरती में आकाश में जंगलों में हर जगह व्यापक है। अगर ऐसा प्रभू किसी मनुष्य के हृदय में ना बसे, तो उस मनुष्य का (मानसिक) दुख बयान नहीं हो सकता। (पर) जिन लोगों ने उस (सर्व व्यापक) प्रभू का अपने हृदय में बसाया है, उनके बड़े भाग्य जाग पड़ते हैं।

नानक का मन (भी हरी के) दीदार की इच्छा रखता है, नानक के मन में हरी दर्शन की प्यास है। जो मनुष्य मुझे हरी का मिलाप करा दे मैं उसके चरणी लगूंगा।2।

वैसाखि धीरनि किउ वाढीआ जिना प्रेम बिछोहु ॥ हरि साजनु पुरखु विसारि कै लगी माइआ धोहु ॥ पुत्र कलत्र न संगि धना हरि अविनासी ओहु ॥ पलचि पलचि सगली मुई झूठै धंधै मोहु ॥ इकसु हरि के नाम बिनु अगै लईअहि खोहि ॥ दयु विसारि विगुचणा प्रभ बिनु अवरु न कोइ ॥ प्रीतम चरणी जो लगे तिन की निरमल सोइ ॥ नानक की प्रभ बेनती प्रभ मिलहु परापति होइ ॥ वैसाखु सुहावा तां लगै जा संतु भेटै हरि सोइ ॥३॥ {पन्ना 133}

पद्अर्थ: वैसाखि = वैसाख में। किउ धीरनि = कैसे धीरज करें? वाढिआ = पति से बिछुड़ी हुई। बिछोहु = विछोड़ा। प्रेम बिछोहु = प्रेम का अस्तित्व ना होना। माइआ धोहु = धेह रूपी माया, मन मोहनी माया। कलत्र = स्त्री। पलचि = फस के, उलझ के। सगली = सारी (सृष्टि)। धंधै मोहु = धंधों का मोह। खोहि लईअहि = छीने जाते हैं। आगै = पहले ही। दयु = प्यारा प्रभू। विगुचणा = खुआर, दुखी होते हैं। सोइ = शोभा। परापति होइ = to one’s heart’s content, जिससे (मेरे) दिल की रीझ पूरी हो जाए। संतु हरि = हरी संत। भेटै = मिल जाए।

अर्थ: (वैसाख वाला दिन हरेक स्त्री मर्द के वास्ते रीझों वाला दिन होता है, पर) वैसाख में उन सि्त्रयों का दिल कैसे स्थिर हो जो पति से विछुड़ी हुई हैं। जिन के अंदर प्यार (का प्रगटावा) नहीं है। (इस तरह उस जीव को धैर्य कैसे आए जिसे) सज्जन प्रभू विसार के सम-मोहनी माया चिपकी हुई है?

ना पुत्र, ना स्त्री, ना धन, ना ही कोई मनुष्य साथ निभता है। एक अविनाशी परमात्मा ही असल साथी है। नाशवंत धंधों का मोह (सारी लुकाई को ही) व्याप रहा है (माया के मोह में) बार बार फंस के सारा संसार ही (आत्मिक मौत) मर रहा है। एक परमात्मा के नाम के सिमरन के बिना और जितने भी कर्म यहाँ किए जाते हैं, वह सारे मरने से पहले ही छीन लिए जाते हैं (भाव, उच्च आत्मिक अवस्था का अंग नहीं बन सकते)।

प्यार स्वरूपी प्रभू को विसार के खुआरी ही होती है। परमात्मा के बिना जिंद का और कोई साथी नहीं होता। जो लोग प्रभू प्रीतम के चरणों में लगते हैं, उनकी (लोक परलोक में) भली शोभा होती है।

हे प्रभू! (तेरे दर पे) मेरी विनती है कि मुझे तेरा जी-भर के मिलाप नसीब हो। (ऋतु फिरने से चारों तरफ वनस्पति भले ही सुहावनी हो जाए, पर) जिंद को वैसाख का महीना तभी सुहावना लग सकता है जब हरी संत प्रभू मिल जाए।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh