श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि जेठि जुड़ंदा लोड़ीऐ जिसु अगै सभि निवंनि ॥ हरि सजण दावणि लगिआ किसै न देई बंनि ॥ माणक मोती नामु प्रभ उन लगै नाही संनि ॥ रंग सभे नाराइणै जेते मनि भावंनि ॥ जो हरि लोड़े सो करे सोई जीअ करंनि ॥ जो प्रभि कीते आपणे सेई कहीअहि धंनि ॥ आपण लीआ जे मिलै विछुड़ि किउ रोवंनि ॥ साधू संगु परापते नानक रंग माणंनि ॥ हरि जेठु रंगीला तिसु धणी जिस कै भागु मथंनि ॥४॥ {पन्ना 134}

पद्अर्थ: जेठि = जेठ में। हरि जुड़ंदा लोड़ीअै = हरी चरणों में जुड़ना चाहिए। सभि = सारे जीव। निवंनि = निवते हैं, झुकते हैं। सजण दावणि = सज्जन के दामन में, पल्ले में। किसै न देई बंनि = किसी को बांधने नहीं देता, किसी यम आदि को आज्ञा नही देता कि उस जीव को बांध के आगे लगा ले। रंग जेते = जितने भी रंग हैं। नाराइणै = परमात्मा के। भावंनि = प्यारे लगते हैं। करंनि = करते हैं। प्रभि = प्रभू ने। कहीअहि = कहे जाते हैं। विछुड़ि = प्रभू से बिछुड़ के। साधू संगु = साधू के साथ। तिसु = उस (मनुष्य) को। जिस कै मथंनि = जिसके माथे पे।

अर्थ: जिसहरी के आगे सारे ही जीव सिर झुकाते हैं, जेठ के महीने में उस के चरणों में जुड़ना चाहिए। अगर हरी सज्जन से जुड़े रहें तो वह किसी (यम आदि) को आज्ञा नही देता कि बांध के आगे लगा ले (भाव, प्रभू से जुड़ने से जमों का डर नहीं रह जाता)। (लोग हीरे मोती आदि कीमती धन एकत्र करने के लिए दौड़भाग करते हैं, पर उस धन के चोरी हो जाने का भी डर बना रहता है) परमात्मा का नाम हीरे मोती आदि ऐसा कीमती धन है जो चुराया नहीं जा सकता। परमात्मा के जितने भी चमत्कार हो रहे हैं, (नाम धन की बरकति से) वह सारे मन को प्यारे लगते हैं। (ये भी समझ आ जाती है कि) प्रभू स्वयं, और उसके पैदा किए जीव वही कुछ करते हैं जो उस प्रभू को ठीक लगता है।

जिन लोगों को प्रभू ने (अपनी सिफत सालाह की दाति दे के ) अपना बना लिया है, उनको ही (जगत में) वाह वाही मिलती है। (पर, परमात्मा जीवों को अपने उद्यम से नहीं मिल सकता) अगर जीवों के अपने उद्यम से मिल सकता होता, तो जीव उससे बिछुड़ के दुखी क्यूँ होते? हे नानक! (प्रभू के मिलाप का) आनंद (वही लोग) लेते हैं, जिन्हें गुरू मिल जाए। जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जागें, उसे जेठ महीना सुहावना लगता है। उसी को प्रभू मालिक मिलता है।4।

आसाड़ु तपंदा तिसु लगै हरि नाहु न जिंना पासि ॥ जगजीवन पुरखु तिआगि कै माणस संदी आस ॥ दुयै भाइ विगुचीऐ गलि पईसु जम की फास ॥ जेहा बीजै सो लुणै मथै जो लिखिआसु ॥ रैणि विहाणी पछुताणी उठि चली गई निरास ॥ जिन कौ साधू भेटीऐ सो दरगह होइ खलासु ॥ करि किरपा प्रभ आपणी तेरे दरसन होइ पिआस ॥ प्रभ तुधु बिनु दूजा को नही नानक की अरदासि ॥ आसाड़ु सुहंदा तिसु लगै जिसु मनि हरि चरण निवास ॥५॥ {पन्ना 134}

पद्अर्थ: नाहु = खसम। जग जीवन पुरखु = जगत का सहारा प्रभू। संदी = दी। दुयै भाइ = (प्रभू के बिना किसी) दूसरे प्यार में। विगुचीअै = खुआर होते हैं। गलि = गले में। लुणै = काटता है। मथै = माथे पर। रैणि = रात, उम्र। कौ = को। भेटीअै = मिलता है। साधू = गुरू। खलासु = सुर्खरू, आदरयोग। प्रभ = हे प्रभू! होइ = बनी रहे। जिसु मनि = जिस के मन में। निरास = टूटे हुए दिल वाला।

अर्थ: आसाड़ का महीना उस जीव को तपता प्रतीत होता है (वे लोग आसाढ़ के महीने की तरह तपते कलपते रहते हैं) जिनके हृदय में प्रभू पति नहीं बसता। जो जगत के सहारे परमात्मा (का आसरा) छोड़ के लोगों से आस बनाए रखते हैं।

(प्रभू के बिना) किसी और के आसरे रहने से खुआर ही होते हैं (जो भी कोई और सहारे ताकता है) उसके गले में जम की फाही पड़ती है (उसका जीवन सदा सहम में व्यतीत होता है)। (कुदरति का नियम ही ऐसा है कि) मनुष्य जैसा बीज बीजता है। (किए कर्मों अनुसार) जो लेख उसके माथे पर लिखा जाता है, वैसा ही फल वह प्राप्त करता है। (जगजीवन पुरख को विसारने वाली जीव स्त्री की) सारी जिंदगी पछतावों में गुजरती है, वह जगत से टूटे हुए दिल के साथ ही चल पड़ती है।

जिन लोगों को गुरू मिल जाता है, वह परमात्मा की हजूरी में सुर्खरू होते हैं (आदर मान पाते हैं)।

हे प्रभू! (तेरे आगे) नानक की विनती है– अपनी मेहर कर, (मेरे मन में) तेरे दर्शन की तमन्ना बनी रहे, (क्योंकि) हे प्रभू! तेरे बिना मेरा और कोई आसरा उम्मीद नहीं है।

जिस मनुष्य के मन में प्रभू के चरणों का निवास बना रहे, उसे (तपता) आसाढ़ (भी) सुहावना प्रतीत होता है (उसको दुनिया के दुख कलेश भी दुखी नहीं कर सकते)।5।

सावणि सरसी कामणी चरन कमल सिउ पिआरु ॥ मनु तनु रता सच रंगि इको नामु अधारु ॥ बिखिआ रंग कूड़ाविआ दिसनि सभे छारु ॥ हरि अम्रित बूंद सुहावणी मिलि साधू पीवणहारु ॥ वणु तिणु प्रभ संगि मउलिआ सम्रथ पुरख अपारु ॥ हरि मिलणै नो मनु लोचदा करमि मिलावणहारु ॥ जिनी सखीए प्रभु पाइआ हंउ तिन कै सद बलिहार ॥ नानक हरि जी मइआ करि सबदि सवारणहारु ॥ सावणु तिना सुहागणी जिन राम नामु उरि हारु ॥६॥ {पन्ना 134}

पद्अर्थ: सावणि = सावन में। सरसी = स+रसी, रस वाली। हरियावली। कामणी = जीव स्त्री। सच रंगि = सॅचे प्यार में। आधारु = आसरा। बिखिआ रंग = माया के रंग। दिसनि = दिखाई देने लगते हैं। छारु = राख। साधू = गुरू। पीवणहार = पीने लायक। तिणु = घास। मउलिआ = हरा भरा। करमि = मिहर से। मइआ = दया। सबदि = शबद द्वारा। उरि = हृदय में।

अर्थ: जैसे सावन में (वर्षा से बनस्पति हरियावली हो जाती है, वैसे ही वह) जीव स्त्री हरियावली हो जाती है (भाव, उस जीव का हृदय खिल जाता है) जिसका प्यार प्रभू के सुहाने चरणों से बन जाता है। उसका मन उसका तन परमात्मा के प्यार में रंगा जाता है। परमात्मा का नाम ही (उसकी जिंदगी का) आसरा बन जाता है। माया के नाश्वंत चमत्कार उसको सारे राख (बेअर्थ) दिखाई देते हैं। (सावन में जैसे बरखा की बूँद सुंदर दिखती है, वैसे ही प्रभू चरणों में प्यार वाले बंदे को) हरी के नाम की आत्मिक जीवन देने वाली बूँद प्यारी लगती है। गुरू को मिल के वह मनुष्य उस बूँद को पीने के काबिल हो जाता है। (प्रभू की वडिआई की छोटी छोटी बातें उसे मीठीं लगने लगती हैं, जिसे वह गुरू को मिल के बड़े शौक से सुनता है)।

जिस प्रभू के मेल से सारा जगत (वनस्पति आदि) हरा भरा हुआ है, जो सब कुछ करने योग्य है, व्यापक है और बेअंत है, उसे मिलने की मेरे मन में भी तमन्ना है। पर, वह प्रभू स्वयं ही अपनी मेहर से मिलाने में स्मर्थ है। मैं उन गुरमुख सहेलियों से सदके हूँ। सदा कुर्बान हूँ, जिन्होंने प्रभू का मिलाप हासिल कर लिया है।

हे नानक! (विनती कर और कह–) हे प्रभू! मेरे ऊपर मेहर कर, तू स्वयं ही गुरू के शबद के द्वारा (मेरी जिंद को) सँवारने के योग्य है।

सावन का महीना उन भाग्यशाली (जीव सि्त्रयों) के लिए (खुशियां और ठण्डक लाने वाला) है जिन्होंने अपने हृदय (रूपी कण्ठ) में परमात्मा का नाम (रूपी) माला पहनी हुई है।6।

भादुइ भरमि भुलाणीआ दूजै लगा हेतु ॥ लख सीगार बणाइआ कारजि नाही केतु ॥ जितु दिनि देह बिनससी तितु वेलै कहसनि प्रेतु ॥ पकड़ि चलाइनि दूत जम किसै न देनी भेतु ॥ छडि खड़ोते खिनै माहि जिन सिउ लगा हेतु ॥ हथ मरोड़ै तनु कपे सिआहहु होआ सेतु ॥ जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु ॥ नानक प्रभ सरणागती चरण बोहिथ प्रभ देतु ॥ से भादुइ नरकि न पाईअहि गुरु रखण वाला हेतु ॥७॥ {पन्ना 134}

पद्अर्थ: भादुइ = भादों के महीने में। भरमि = भटकन में। भुलाणीआ = गलत रास्ते पर पड़ जाती है। हेतु = हित, प्यार। केतु कारजि = किस काम में। जितु = जिस में। दिनि = दिन में। देह = शरीर। कहसनि = कहेंगे। बिनससी = बिनसेगी, विनाश होगी। प्रेतु = गुजर चुका, अपवित्र। पकड़ि = पकड़ के। न देनी = नहीं देते। सिआहहु = काले (रंग) से। सेतु = सफेद। कपे = काँपते हैं। लूणै = काटता है। खेतु = खेत। संदड़ा = का। बोहिथ = जहाज। ना पाईअहि = नहीं पाऐ जाते। हेतु = हितु, प्यार करने वाला।

अर्थ: (जैसे) भादों (के सीलन भरी तपश) में (मनुष्य बहुत घबराता है, वैसे ही) जिस जीव स्त्री का प्यार प्रभू पति के बिना किसी और के साथ लगता है वह भटकन के कारण जीवन के सही रास्ते से टूट जाती है। वह चाहे लाखों हार श्रृंगार करे, (उसके) किसी काम नहीं आते।

जिस दिन मनुष्य का शरीर नाश होगा (जब मनुष्य मर जाएगा), उस वक्त (सारे साक संगी) कहेंगे कि ये गुजर गया है। (लाश अपवित्र पड़ी है, इसे जल्दी बाहर ले चलो)। जमदूत (जिंद को) पकड़ के आगे लगा लेते हैं। किसी को (ये) भेद नहीं बताते (कि कहां ले चले हैं)। (जिन) संबंधियों के साथ (सारी उम्र बड़ा) प्यार बना रहता है वह पल में साथ छोड़ बैठते हैं।

(मौत आई देख के मनुष्य) बड़ा पछताता है, उसका शरीर तंग होता है, वह काले से सफेद होता है। (घबराहट से एक रंग आता है एक जाता है)। ये शरीर मनुष्य के कर्मों का खेत है। जो कुछ मनुष्य इसमें बीजता है वही फसल काटता है (जैसे कर्म करता है वैसे ही फल पाता है)।

हे नानक! जिन का रक्षक व हितेशी गुरू बनता है, वह नर्क में नहीं डाले जाते। (क्योंकि गुरू की कृपा से) वे प्रभू की शरण में आ जाते हैं। गुरू उन्हें प्रभु के चरण रूपी जहाज (में चढ़ा) देता है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh