श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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असुनि प्रेम उमाहड़ा किउ मिलीऐ हरि जाइ ॥ मनि तनि पिआस दरसन घणी कोई आणि मिलावै माइ ॥ संत सहाई प्रेम के हउ तिन कै लागा पाइ ॥ विणु प्रभ किउ सुखु पाईऐ दूजी नाही जाइ ॥ जिंन्ही चाखिआ प्रेम रसु से त्रिपति रहे आघाइ ॥ आपु तिआगि बिनती करहि लेहु प्रभू लड़ि लाइ ॥ जो हरि कंति मिलाईआ सि विछुड़ि कतहि न जाइ ॥ प्रभ विणु दूजा को नही नानक हरि सरणाइ ॥ असू सुखी वसंदीआ जिना मइआ हरि राइ ॥८॥ {पन्ना 135}

पद्अर्थ: असुनि = असू में। उमाहड़ा = उछाला। जाइ = जा के। किउं = कैसे? किसी न किसी तरह। मनि = मन में। तनि = तन में। घणी = बहुत। आणि = ला के। माइ = हे मां! हउ = मैं! तिन कै पाइ = उनके चरणों में। जाइ = जगह। रसु = स्वाद, आनंद। रहे आघाइ = तृप्त हो गए, तृष्णा छू नहीं सकती। आपु = स्वै भाव। लड़ि = पल्ले। कंति = कंत ने। कतहि = किसी और जगह। मइआ = मेहर।

अर्थ: हे मां! (भाद्रों की तपश भरी घुटन गुजरने के बाद) असू (की मीठी मीठी ऋतु) में (मेरे अंदर प्रभू पति के) प्यार का उछाला आ रहा है। (मन तड़फता है कि) किसी ना किसी तरह चल के प्रभू पति को मिलूँ। मेरे मन में मेरे तन में प्रभू के दर्शन की बड़ी प्यास लगी हुई है (चिक्त चाहता है कि) कोई (उस पति को) ला के मेल करा देवे। (ये सुन के कि) संत जन प्रेम बढ़ाने में सहायता किया करते हैं, मैं उनके चरणों में लगी हूँ। (हे माँ!) प्रभू के बगैर सुख आनंद नहीं मिल सकता (क्योंकि सुख आनंद की) और कोई जगह ही नहीं।

जिन (भाग्यशालियों) ने प्रभू प्यार का स्वाद (एक बार) चख लिया है (उन्हें माया के स्वाद भूल जाते हैं, माया की ओर से) वे तृप्त हो जाते हैं। स्वै भाव छोड़ के वे सदा अरदासें ही करते रहते हैं– हे प्रभू! हमें अपने साथ जोड़ के रखो।

जिस जीव-स्त्री को पति प्रभू ने अपने साथ मिला लिया है, वह (उस मिलाप में से) विछुड़ के अन्य किसी जगह नहीं जाती। (क्योंकि) हे नानक! (उसे निश्चय आ जाता है कि सदीवी सुख के वास्ते) प्रभू की शरण के बिना और कोई जगह नहीं है। वह सदा प्रभू की शरण पड़ी रहती है।

असू (की मीठी मीठी ऋतु) में वह जीव सि्त्रयां सुखी बसती हैं, जिनपे परमात्मा की कृपा होती है।8।

कतिकि करम कमावणे दोसु न काहू जोगु ॥ परमेसर ते भुलिआं विआपनि सभे रोग ॥ वेमुख होए राम ते लगनि जनम विजोग ॥ खिन महि कउड़े होइ गए जितड़े माइआ भोग ॥ विचु न कोई करि सकै किस थै रोवहि रोज ॥ कीता किछू न होवई लिखिआ धुरि संजोग ॥ वडभागी मेरा प्रभु मिलै तां उतरहि सभि बिओग ॥ नानक कउ प्रभ राखि लेहि मेरे साहिब बंदी मोच ॥ कतिक होवै साधसंगु बिनसहि सभे सोच ॥९॥ {पन्ना 135}

पद्अर्थ: कतकि = कार्तिक (की ठण्डी बहार) में। काहू जोगु = किसी के जिम्मे, किसी के माथे। विआपनि = जो डाल देते हैं। राम ते = रॅब से। लगनि = लग जाते हैं। जनम विजोग = जन्मों के विछोड़े, लम्बी जुदाई। माइआ भोग = माया की मौजें, दुनिया की ऐश। विचु = बिचौलापन। किस थै = (और) किस के पास? रोज = नित्य। कीता = अपना किया। धुरि = धुर से, प्रभू की हजूरी से। सभि = सारे। बियोग = बिछोड़े का दुख। कउ = को। प्रभू = हे प्रभू! बंदी मोच = हे कैद से छुड़ाने वाले! बिनसहि = नाश हो जाते हैं। सोच = फिक्र।

अर्थ: कार्तिक (की सुहावनी ऋतु) में (भी अगर प्रभू पति से विछोड़ा रहा तो ये अपने) किए कर्मों का नतीजा है, किसी और के माथे कोई दोश नहीं लगाया जा सकता। परमेश्वर की याद से टूटने से (दुनिया के) सारे दुख कलेश आ चिपकते हैं। जिन्होंने (इस जन्म में) परमात्मा की याद से मुंह मोड़े रखा, उन्हें (फिर) लम्बे विछोड़े पड़ जाते हैं। जिन माया की मौजों (की खातिर प्रभू को भुला दिया था, वह भी) एक पल में दुखदायी हो जाती हैं। (उस दुखी हालत में) कहीं भी नित्य रोने रोने का लाभ नहीं होता, (क्योंकि दुख तो है विछोड़े के कारण, और विछोड़े को दूर) कोई बिचोलापन नही कर सकता। (दुखी जीव की अपनी) कोई पेश नही चलती। (पिछले कर्मों अनुसार) धुर से ही लिखे लेखों की बिधि आ बनती है। (हां!) अगर सौभाग्य से प्रभू (स्वयं) आ मिले, तो बिछोड़े से पैदा हुए सारे दुख मिट जाते हैं।

(नानक की तो यही बिनती है–) हे माया के बंधनों से छुड़ाने वाले मेरे मालिक! नानक को (माया के मोह से) बचा ले।

कार्तिक (की मजेदार ऋतु) में जिन्हें साध-संगति मिल जाए, उनके (विछोड़े वाली) सारी चिंताएं फिक्रेंसमाप्त हो जाती हैं।9।

मंघिरि माहि सोहंदीआ हरि पिर संगि बैठड़ीआह ॥ तिन की सोभा किआ गणी जि साहिबि मेलड़ीआह ॥ तनु मनु मउलिआ राम सिउ संगि साध सहेलड़ीआह ॥ साध जना ते बाहरी से रहनि इकेलड़ीआह ॥ तिन दुखु न कबहू उतरै से जम कै वसि पड़ीआह ॥ जिनी राविआ प्रभु आपणा से दिसनि नित खड़ीआह ॥ रतन जवेहर लाल हरि कंठि तिना जड़ीआह ॥ नानक बांछै धूड़ि तिन प्रभ सरणी दरि पड़ीआह ॥ मंघिरि प्रभु आराधणा बहुड़ि न जनमड़ीआह ॥१०॥ {पन्ना 135}

पद्अर्थ: मंघरि = मंघर में। माहि = महीने मे। पिर संगि = पति के साथ। किआ गणी = मैं क्या बताऊँ? बयान नहीं हो सकती। जि = जिन्हें। साहिबि = साहिब ने। राम सिउ = परमात्मा से। साध सहेलड़ीआह संगि = सत्संगियों के साथ। बाहरी = बिना। ते = से। दिसहि = दिखती है। खड़ीआह = सावधान,सुचेत। कंठि = गले में (भाव हृदय में)। बांछै = मांगता है। दरि = दर पर। बहुड़ि = फिर, पुनः।

अर्थ: मंघर (के ठण्डे मीठे) महीने में वह जीव-सि्त्रयां सुंदर लगती हैं, जो हरी पति के साथ बैठी होती हैं। जिन्हें मालिक प्रभू ने अपने साथ मिला लिया, उनकी शोभा बयान नहीं हो सकती। सत्संगी सहेलियों की संगति में प्रभू के साथ (चिक्त जोड़ के) उनका शरीर उनका मन सदा खिला रहता है।

पर जो जीव सि्त्रयां सत्संगियों (की संगति) से वंचित रह जाती है, वह एकेली (छुटॅड़) ही रहती हैं (जैसे सड़े हुए तिलों का पौधा खेत में बेआसरा ही रहता है। अकेली बगैर पति जिंद को देख के कामादिक कई वैरी आ के घेर लेते हैं, और) उनका (विकारों से उपजा) दुख कभी उतरता नहीं। वे जमों के वश पड़ी रहती हैं।

जिन जीव-सि्त्रयों ने पति प्रभू का साथ भोगा है, वह (विकारों के हमलों से) सदा सावधान दिखती हैं (विकार उन पर चोट नहीं कर सकते, क्योंकि) परमात्मा के गुणानुवाद उनके हृदय में परोए रहते हैं, जैसे हीरे जवाहरात व लालों का हार गले में डाला होता है।

नानक उन सत्संगियों के चरणों की धूड़ मांगता है जो प्रभू के दर पर पड़े रहते हैं, जो प्रभू की शरण में रहते हैं। मंघर में परमात्मा का सिमरन करने से दुबारा जनम मरण का चक्र नही पड़ता।10।

पोखि तुखारु न विआपई कंठि मिलिआ हरि नाहु ॥ मनु बेधिआ चरनारबिंद दरसनि लगड़ा साहु ॥ ओट गोविंद गोपाल राइ सेवा सुआमी लाहु ॥ बिखिआ पोहि न सकई मिलि साधू गुण गाहु ॥ जह ते उपजी तह मिली सची प्रीति समाहु ॥ करु गहि लीनी पारब्रहमि बहुड़ि न विछुड़ीआहु ॥ बारि जाउ लख बेरीआ हरि सजणु अगम अगाहु ॥ सरम पई नाराइणै नानक दरि पईआहु ॥ पोखु सुोहंदा सरब सुख जिसु बखसे वेपरवाहु ॥११॥ {पन्ना 135}

पद्अर्थ: पोखि = पोह में। तुखारु = कक्कर, कोहरा। न विआपई = जोर नहीं डालता। कंठि = गले में, गले से (हृदय में)। नाहु = नाथ, पति। बेधिआ = बेधा जाता है। चरनारबिंद = चरण+अरविंद, चरण कमल। दरसनि = दीदार में। साहु = एक एक स्वास। बिरती। लाहु = लाभ। बिखिआ = माया। साधू = गुरू। गुण गाहु = गुणों की विचार, गुणों में चुभी। जह ते = जिस प्रभू से। समाहु = लिव। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। पारब्रहमि = पारब्रह्म ने। बारि जाउ = मैं वारने जाती हूँ। बेरिया = वारी। अगम = अपहुँच। अगाहु = अगाध, गहरे जिगरे वाला। सरम = लाज। सरम पई = इज्जत रखनी पड़ी। दरि = दर पे। सुोहंदा = (असल शब्द ‘सोहंदा’ है, उच्चारण ‘सुहंदा’ करना है। अक्षर ‘स’ के साथ ‘ो’ और ‘ु’ दोनों मात्राएं इस्तेमाल हुई हैं) सुंदर लगता है।

अर्थ: पोह के महीने जिस जीव स्त्री के गले से (हृदय में) प्रभू पति लगा हुआ हो उसे कक्कर (मन की कठोरता, कोरापन) जोर नहीं डाल सकते। (क्योंकि) उसकी बिरती प्रभू के दीदार की तांघ में जुड़ी रहती है। उसका मन प्रभू के सोहने चरणों में बेधा रहता है।

जिस जीव स्त्री ने गोबिंद गोपाल का आसरा लिया है, उसने प्रभू पति की सेवा का लाभ कमाया है। माया उसको छू नहीं सकती। गुरू को मिल के उसने प्रभू की सिफत सालाह में डुबकी लगाई है। जिस परमात्मा से उसने जन्म लिया है, उसी में वह जुड़ी रहती है। उसकी लिव प्रभू की प्रीति में लगी रहती है। पारब्रह्म ने (उसका) हाथ पकड़ कर (उसे अपने चरणों में) जोड़ा हुआ है, वह मुड़ (उसके चरणों से) बिछुड़ती नहीं। (पर) वह सज्जन प्रभू बड़ा अपहुँच है, बड़ा गहरा है, मैं उससे लाखो बार कुर्बान हूँ। हे नानक! (वह बड़ा दयालु है) दर पर गिरने से उस प्रभू को इज्जत रखनी ही पड़ती है।

जिस प रवह बेपरवाह प्रभू मेहर करता है, उसे पोह का महीना सुहावना लगता है उसे सारे ही सुख मिल जाते हैं।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh