श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 136 माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी करि इसनानु ॥ हरि का नामु धिआइ सुणि सभना नो करि दानु ॥ जनम करम मलु उतरै मन ते जाइ गुमानु ॥ कामि करोधि न मोहीऐ बिनसै लोभु सुआनु ॥ सचै मारगि चलदिआ उसतति करे जहानु ॥ अठसठि तीरथ सगल पुंन जीअ दइआ परवानु ॥ जिस नो देवै दइआ करि सोई पुरखु सुजानु ॥ जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु ॥ माघि सुचे से कांढीअहि जिन पूरा गुरु मिहरवानु ॥१२॥ {पन्ना 136} पद्अर्थ: माघ = माघ नक्षत्र वाली पूरनमासी का महीना। माघि = माघ महीने में। (नोट: इस महीने का पहला दिन हिन्दू शास्त्रों के अनुसार बड़ा पवित्र है। हिन्दू सज्जन माघी वाले दिन प्रयाग तीर्थ का स्नान करना बहुत पुन्य का कर्म समझते हैं)। मजनु = चुभ्भी, स्नान। दानु = नामु का दान। जनम करम मलु = कई जनमों के किए कर्मों से पैदा हुई विकारों की मैल। गुमान = अहंकार। कामि = काम में। करोधि = क्रोध में। मोहीअै = ठगे जाते हैं। सुआन = कुत्ता। मारगि = रास्ते पर। उसतति = शोभा। अठसठि = अढ़सठ। परवानु = जाना माना (धार्मिक कर्म)। करि = कर के। सुजानु = सयाना। कांढीअहि = कहे जाते हैं। अर्थ: माघ में (माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदिक तीर्थों पे स्नान करना बड़ा पुन्य का काम समझते हैं, पर तू हे भाई!) गुरमुखों की संगति में (बैठ, यही है तीर्थों का) स्नान, उनकी चरण धूड़ में स्नान कर (निम्रता भाव से गुरमुखों की संगति कर, वहां) परमात्मा का नाम जप, परमात्मा की सिफत सालाह सुन। और सभी को इस नाम की दाति बाँट। (इस तरह) कई जन्मों के किए कर्मों से पैदा हुई विकारों की मैल (तेरे मन में से) उतर जाएगी। तेरे मन में से अहंकार दूर हो जाएगा। (सिमरन की बरकति से) काम-क्रोध में नहीं फसते। लोभ रूपी कुत्ता भी खत्म हो जाता है (लोभ, जिसके असर तले मनुष्य कुत्ते की तरह दर दर भटकता है)। इस सच्चे रास्ते पर चलने से जगत भी शोभा (उस्तति) करता है। अढ़सठ तीर्थों का स्नान, सारे पुंन्य कर्म, जीवों पे दया करनी जो धार्मिक कर्म माने गए हैं (ये सब कुछ सिमरन में ही आ जाता है)। परमात्मा कृपा करके जिस मनुष्य को (सिमरन की दाति) देता है, वह मनुष्य (जिंदगी के सही रास्ते की पहचान वाला) बुद्धिमान हो जाता है। हे नानक! (कह–) जिन्हें प्यारा प्रभू मिल गया है, मैं उनसे सदके जाता हूँ। माघ महीने में सिर्फ वही स्वच्छ लोग कहे जाते हैं, जिन पर पूरा सतिगुरू दयावान होता है, और जिनको सिमरन की दाति देता है।12। फलगुणि अनंद उपारजना हरि सजण प्रगटे आइ ॥ संत सहाई राम के करि किरपा दीआ मिलाइ ॥ सेज सुहावी सरब सुख हुणि दुखा नाही जाइ ॥ इछ पुनी वडभागणी वरु पाइआ हरि राइ ॥ मिलि सहीआ मंगलु गावही गीत गोविंद अलाइ ॥ हरि जेहा अवरु न दिसई कोई दूजा लवै न लाइ ॥ हलतु पलतु सवारिओनु निहचल दितीअनु जाइ ॥ संसार सागर ते रखिअनु बहुड़ि न जनमै धाइ ॥ जिहवा एक अनेक गुण तरे नानक चरणी पाइ ॥ फलगुणि नित सलाहीऐ जिस नो तिलु न तमाइ ॥१३॥ {पन्ना 136} पद्अर्थ: फलगुणि = फागुन (महीने) में। उपारजना = उपज, प्रकाश। राम के सहाई = परमात्मा के साथ मिलने में सहायता करने वाले। सेज = हृदय। जाइ = जगह। वरु = पति प्रभू। गावही = गाती हैं। मंगलु = खुशी का गीत, आत्मिक आनंद पैदा करने वाला गीत, सिफत सालाह की बाणी। अलाइ = उच्चार के, अलाप के। दिसई = दिखता। लवै = नजदीक। लवै न लाइ = पास नहीं लाते, नजदीक का नहीं, बराबरी के लायक नहीं। हलतु = (अत्र) ये लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। सवारिओनु = उस (प्रभू) ने सवार दिया। दितीअनु = उस (प्रभू) ने दी। जाइ = जगह। ते = से। रखिअनु = उस (हरी) ने रख लिए। धाइ = भाग दौड़, भटकना। पाइ = पड़ कर। तिलु = रत्ती भी। तमाइ = तमा, लालच। अर्थ: (सर्दी की ऋतु की कड़ाके की सर्दी के बाद बहार फिरने पे फागुन के महीने में लोग होली के रंग तमाशों के साथ खुशियां मनाते हैं, पर) फागुन में (उन जीव सि्त्रयों के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है, जिनके हृदय में सज्जन हरी प्रत्यक्ष आ बसता है। परमात्मा के साथ मिलने में सहायता करने वाले संत जन मेहर करके उन्हें प्रभू के साथ जोड़ देते हैं। उनकी हृदय सेज सुंदर बन जाती है। उन्हें सारे ही सुख प्राप्त हो जाते हैं। फिर दुखों के लिए (उनके हृदय में) कहीं रत्ती भर जगह भी नहीं रह जाती। उन भाग्यशाली जीव सि्त्रयों की मनोकामना पूरी हो जाती है। उन्हें हरी प्रभू पति मिल जाता है। वह सत्संगी सहेलियों के साथ मिल के गोबिंद की सिफत सालाह के गीत अलाप के आत्मिक आनंद पैदा करने वाली गुरबाणी गाती हैं। परमात्मा जैसा कोई और, उसकी बराबरी कर सकने वाला कोई दूसरा उन्हें कहीं दिखता ही नहीं। उस परमात्मा ने (उन सत्संगियों का) लोक परलोक संवार दिया है, उन्हें (अपने चरणों में लिव लीनता वाली) ऐसी जगह बख्शी है, जो कभी डोलती नहीं। प्रभू ने संसार समुंद्र से उन्हें (हाथ दे के) रख लिया है, जन्मों के चक्र में दुबारा उनकी दौड़ भाग नहीं होती। हे नानक! (कह–) हमारी एक जीभ है, प्रभू के अनेकों ही गुण हैं (हम उन्हें बयान करने के लायक नहीं हैं, पर) जो जीव उसकी चरणों में पड़ते हैं (उसका आसरा ताकते हैं) वह (संसार समुंद्र से) तैर जाते है। फागुन के महीने में (होली आदि में से आनंद ढूँढने की बजाए) सदा उस परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए, जिसे (अपनी उपमा कराने का) रत्ती भर भी लालच नहीं है (इसमें हमारा ही भला है)।13। जिनि जिनि नामु धिआइआ तिन के काज सरे ॥ हरि गुरु पूरा आराधिआ दरगह सचि खरे ॥ सरब सुखा निधि चरण हरि भउजलु बिखमु तरे ॥ प्रेम भगति तिन पाईआ बिखिआ नाहि जरे ॥ कूड़ गए दुबिधा नसी पूरन सचि भरे ॥ पारब्रहमु प्रभु सेवदे मन अंदरि एकु धरे ॥ माह दिवस मूरत भले जिस कउ नदरि करे ॥ नानकु मंगै दरस दानु किरपा करहु हरे ॥१४॥१॥ {पन्ना 136} पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सरे = सिरे चढ़ जाता है। खरे = सुर्खरू। दरगह सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की हजूरी में। निधि = खजाना। भउजलु = संसार समुंद्र। बिखमु = मुश्किल। तिन = उन (लोगों) ने। बिखिआ = माया। जरे = जलते। कूड़ = व्यर्थ झूठे लालच। दुबिधा = दुचिक्तापन, मन की भटकना। सचि = सच्चे प्रभू में। भरे = टिके रहते हैं। धरे = धर के। माह = महीने। दिवस = दिहाड़े। मूरत = महूरत। जिन कउ = जिन पे। हरे = हे हरी! अर्थ: जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है, उनके सारे कारज सफल हो जाते हैं। जिन्होंने प्रभू को पूरे गुरू को आराधा है, वह सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की हजूरी में सुर्खरू रहते हैं। प्रभू के चरण ही सारे सुखों का खजाना है, (जो जीव चरणों में लगते हैं, वह) मुश्किल संसार समुंद्र से (सही सलामत) पार हो जाते हैं। उन्हें प्रभू का प्यार, प्रभू की भक्ति प्राप्त होती है। माया की तृष्णा की आग में वे नहीं जलते। उनके व्यर्थ झूठे लालच खत्म हो जाते हैं। उनके मन से भटकना दूर हो जाती है। वे मुकम्मल तौर पर सदा स्थिर हरी में टिके रहते हैं। वे अपने मन में एक परम जोति परमात्मा को बसा के सदा उसको सिमरते है। जिनपे प्रभू मेहर की नजर करता है (अपने नाम की दाति देता है) उनके वास्ते सारे महीने, सारे दिन, सारे महूरत बढ़िया हैं (संगरांद आदि की पवित्रता के भरम भुलेखे उन्हें नहीं पड़ते)। हे हरी! मिहर कर, मैं नानक (तेरे दर से तेरे) दीदार की दाति माँगता हूँ।14। माझ महला ५ दिन रैणि सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभि रैण ॥ आपु तिआगि सरणी पवां मुखि बोली मिठड़े वैण ॥ जनम जनम का विछुड़िआ हरि मेलहु सजणु सैण ॥ जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण ॥ हरि पिर बिनु चैनु न पाईऐ खोजि डिठे सभि गैण ॥ आप कमाणै विछुड़ी दोसु न काहू देण ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरु नाही करण करेण ॥ हरि तुधु विणु खाकू रूलणा कहीऐ किथै वैण ॥ नानक की बेनंतीआ हरि सुरजनु देखा नैण ॥१॥ {पन्ना 136} पद्अर्थ: रैणि = रजनि, रअणि, रात। सेवी = मैं सेवा करूं। सिमरी = मैं सिमरन करूं। सभि = सारे। आपु = सवै भाव। मुखि = मुंह से। बोली = मैं बोलूं। वैण = वचन, वअण, बोल। जनम जनम का = कई जन्मों के। सैण = सज्जन। जीअ = (जीउ का बहुवचन)। जो जीअ = जो जीव। सुखि = सुख से। भैण = हे बहिन! चैनु = शांति। गैण = णणु, आकाश। आप कमाणै = अपने किए कर्मों अनुसार। काहू = किसी (और) को। प्रभ = हे प्रभू! करण करेण = करने कराने के योग्य। हरि = हे हरी! खाकू = ख़ाक में। कहिअै = (हम जीव) कहें। वैण = बचन, तरले, विनतियां। सुरजनु = उक्तम पुरख। देखा = मैं देखूँ।1। अर्थ: (हे बहिन! प्रभू मेहर करे) मैं अपने गुरू की शरण पड़ूँ, और मैं अपनी जिंदगी के सारे दिन व सारी रातें परमात्मा का सिमरन करती रहूँ। स्वै भाव त्याग के (अहंकार छोड़ के) मैं गुरू की शरण पड़ूं और मुंह से (उसके आगे ये) मीठे बोल बोलूँ (कि हे सतिगुरू!) मुझे सज्जन प्रभू मिला दे। मेरा मन कई जन्मों का उससे विछुड़ा हुआ है। हे बहिन! जो जीव परमात्मा से विछुड़े रहते हैं वे सुख से नहीं बस सकते। मैंने सारे (धरती) आकाश खोज के देख लिए हैं कि प्रभू पति के मिलाप के बिना आत्मिक सुख नहीं मिल सकता। (हे बहिन!) मैं अपने किए कर्मों के अनुसार (प्रभू पति से) विछुड़ी हुई हूँ। (इस बारे) मैं किसी और को दोष नहीं दे सकती। हे प्रभू! मेहर कर, मेरी रक्षा कर, तेरे बगैर और कोई कुछ करने कराने की स्मर्था नहीं रखता। हे हरी! तेरे मिलाप के बिना मिट्टी में मिल जाते हैं। (इस दुख की) तड़प और किसे बताएं? (हे बहिन!) नानक की ये विनती है कि मैं किसी तरह अपनी आँखों से उस उक्तम पुरुष परमात्मा के दर्शन करूँ।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |