श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जीअ की बिरथा सो सुणे हरि सम्रिथ पुरखु अपारु ॥ मरणि जीवणि आराधणा सभना का आधारु ॥ ससुरै पेईऐ तिसु कंत की वडा जिसु परवारु ॥ ऊचा अगम अगाधि बोध किछु अंतु न पारावारु ॥ सेवा सा तिसु भावसी संता की होइ छारु ॥ दीना नाथ दैआल देव पतित उधारणहारु ॥ आदि जुगादी रखदा सचु नामु करतारु ॥ कीमति कोइ न जाणई को नाही तोलणहारु ॥ मन तन अंतरि वसि रहे नानक नही सुमारु ॥ दिनु रैणि जि प्रभ कंउ सेवदे तिन कै सद बलिहार ॥२॥ {पन्ना 137}

पद्अर्थ: जीअ की = जिंद की। बिरथा = व्यथा, पीड़ा। संम्रिथ = स्मर्थ, हरेक किस्म की ताकत रखने वाला। पुरखु = सब में व्यापक। मरणि जीवणि = सारी उम्र। आधारु = आसरा। ससुरै = ससुराल में, परलोक में। पेईअै = पेके घर में, इस लोक में। जिसु = जिस (कंत) का। अगाधि बोध = जिसका बोध अगाध है, अथाह ज्ञान का मालिक। छारु = स्वाह, राख, चरण धूड़। दैआल = दय+आलय, दया का घर। आदि जुगादी = शुरू से ही। सुमारु = गिनती, अंदाजा। तिन कै = उन से। सद = सदा।2।

अर्थ: परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, सब में व्यापक है और बेअंत है, वही जिंद का दुख दर्द सुनता है। सारी ही उम्र उसकी आराधना करनी चाहिए, वह सब जीवों का आसरा उम्मीद है। (सृष्टि के बेअंत ही जीव) जिस प्रभू पति का (बेअंत) बड़ा परिवार है, जीव स्त्री लोक परलोक में उसके आसरे ही रहि सकती है। वह परमात्मा (आत्मा उड़ानों में) सब से ऊँचा है, अपहुँच है, अथाह ज्ञान का मालिक है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, इस पार उस पार का छोर नहीं ढूँढा जा सकता।

वही सेवा उस प्रभू को पसंद आती है, जो उसके संत जनों के चरणों की धूड़ बन के की जाए। वह गरीबों का खसम सहारा है। वह विकारों में डूबे जीवों को बचाने वाला है। वह करतार शुरू से ही (जीवों की) रक्षा करता आ रहा है, उसका नाम सदा कायम रहने वाला है। कोई जीव उसका मूल्य नहीं पा सकता। कोई जीव उसकी हस्ती का अंदाजा नहीं लगा सकता। हे नानक! वह प्रभू जी हरेक जीव के मन में तन में मौजूद है। उस प्रभू के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता।

मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो दिन रात प्रभू का सिमरन करते रहते हैं।2।

संत अराधनि सद सदा सभना का बखसिंदु ॥ जीउ पिंडु जिनि साजिआ करि किरपा दितीनु जिंदु ॥ गुर सबदी आराधीऐ जपीऐ निरमल मंतु ॥ कीमति कहणु न जाईऐ परमेसुरु बेअंतु ॥ जिसु मनि वसै नराइणो सो कहीऐ भगवंतु ॥ जीअ की लोचा पूरीऐ मिलै सुआमी कंतु ॥ नानकु जीवै जपि हरी दोख सभे ही हंतु ॥ दिनु रैणि जिसु न विसरै सो हरिआ होवै जंतु ॥३॥ {पन्ना 137}

पद्अर्थ: अराधनि = आराधते हैं। सद = सदा। बखसिंदु = बख्शने वाला। जीउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। दितीनु = दिती उनि, उसने दी है। जपीअै = जपना चाहिए। मंतु = मंत्र, जाप। मनि = मन में। नराइणो = नारायण। भगवंतु = भाग्यशाली। जीअ की = जिंद की। लोचा = तांघ। दोख = पाप। हंतु = नाश हो जाते हैं। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला (जैसे सूखा हुआ वृक्ष पानी से हरा हो जाता है, जी पड़ता है)।3।

अर्थ: जिस (परमात्मा) ने (सब जीवों की) जिंद (जीवात्मा) बनाई है, (सबका) शरीर पैदा किया है। मेहर करके सबको जिंद दी है। जो सब जीवों पर बख्शिश करने वाला है, जिसको संत जन सदा ही आराधते हैं, गुरू के शबद के द्वारा उसका सिमरन करना चाहिए, उसका पवित्र नाम जपना चाहिए। वह परमात्मा सबसे बड़ा मालिक (ईश्वर) है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता।

जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसता है उसे भाग्यशाली कहना चाहिए। जिसे मालिक पति प्रभू मिल जाता है उसकी जीवात्मा की हरेक तमन्ना पूरी हो जाती है। नानक (भी) उस हरी का जाप जप के आत्मिक जीवन हासिल कर रहा है।

जिस मनुष्य को ना दिन ना रात, किसी भी वक्त परमात्मा नहीं भूलता उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं, वह मनुष्य आत्मिक जीवन वाला हो जाता है (जैसे पानी के बगैर सूख रहा पेड़ पानी से हरा हो जाता है)।3।

सरब कला प्रभ पूरणो मंञु निमाणी थाउ ॥ हरि ओट गही मन अंदरे जपि जपि जीवां नाउ ॥ करि किरपा प्रभ आपणी जन धूड़ी संगि समाउ ॥ जिउ तूं राखहि तिउ रहा तेरा दिता पैना खाउ ॥ उदमु सोई कराइ प्रभ मिलि साधू गुण गाउ ॥ दूजी जाइ न सुझई किथै कूकण जाउ ॥ अगिआन बिनासन तम हरण ऊचे अगम अमाउ ॥ मनु विछुड़िआ हरि मेलीऐ नानक एहु सुआउ ॥ सरब कलिआणा तितु दिनि हरि परसी गुर के पाउ ॥४॥१॥ {पन्ना 137}

पद्अर्थ: पूरणो = पूर्ण। कला = शक्ति। सरब कला पूरणो = सारी शक्तियों से भरपूर। प्रभू = हे प्रभू! मंञु = मेरा। थाउ = जगह, आसरा। हरी = हे हरी! ओट = सहारा, आसरा। गही = पकड़ी। जीवों = मैं जीवित हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। प्रभ = हे प्रभू! समाउ = समाऊँ, मैं समाया रहूँ। मिलि = मिल के। साधू = गुरू। जाइ = जगह। अगिआन बिनासन = हे अज्ञान के नाश करने वाले! तम हरन = हे अंधेरा दूर करने वाले! अमाउ = अमाप, अमित। हरि = हे हरी! सुआउ = स्वार्थ, मनोरथ। तितु = उस में। दिनि = दिन में। तिति दिनि = उस दिन में। हरि = हे हरी! परसी = मैं परसूँ, मैं छूऊँ। पाउ = पैर।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू सारी शक्तियों से भरपूर है। मैं निमाणी का तू आसरा है। हे हरी! मैंने अपने मन में तेरी ओट ली है, तेरा नाम जपके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है।

हे प्रभू! अपनी मेहर कर मैं तेरे संत जनों की चरण धूड़ में समाया रहूँ। जिस हाल में तू मुझे रखता है मैं (खुशी से) उसी हाल में रहता हूँ। जो कुछ तू मुझे देता है वही मैं पहनता हूँ, वही मैं खाता हूँ।

हे प्रभू! मुझसे वही उद्यम करा (जिसकी बरकति से) मैं गुरू को मिल केतेरे गुण गाता रहूँ। (तेरे बिना) मुझे और कोई जगह नहीं सूझती। तेरे बिना मैं और किस के आगे फरियाद करूँ?

हे अज्ञानता का नाश करने वाले हरी! हे (मोह का) अंधकार दूर करने वाले हरी! हे (सब से) ऊँचे! हे अपहुँच! हे अमित हरी! नानक का ये मनोरथ है कि (नानक के) विछुड़े हुए मन को (अपने चरणों में) मिला हे। हे हरी! (मुझ नानक को) उस दिन सारे ही सुख (प्राप्त हो जाते हैं) जब मैं गुरू के चरण छूता हूँ।4।1।

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वार माझ की तथा सलोक महला १

पउड़ीवार भाव:

(1) इस बहुरंगी जगत में जीव ‘नाम’ के बिना दुखी हो रहा है।

(2) बहुरंगी पदार्थों के मोह में जीव करतार को भूल जाता है और इसके अंदर तृष्णा की आग भड़कती है।

(3) ये बहुरंगी जगत है तो प्रभू का अपना स्वरूप; पर अहंम्, अहंकार व लोभ के कारण जीव को इस असलियत की समझ नहीं पड़ती।

(4) मूर्ख, पराई वस्तु को अपनी जान के भोगों में प्रवृति होता है और दुख उठाता है।

(5) जब तक जीव के अंदर तृष्णा की अग्नि भड़की हुई है, तब तक जंगल में जा के डेरा लगाने से भी शांति नहीं मिलती।

(6) विद्या प्राप्त करके आगू प्रचारक बन के भी जीव का अपना कुछ नहीं सँवरता। मूर्ख, मूर्ख ही रहता है।

(7) जब तक जीव कच्चे का व्यापारी है तब तक माया में फंसा हुआ है, तब तक ये कंगाल ही है दुखी है।

(8) मूर्ख इस बाग़ मिलख घर बार को अपना समझता है, ये ‘अपनत्व’ ही इसके दुखों का मूल है।

(9) ‘अपनत्व’ में पड़ कर जीव ‘स्वै’ को नहीं पहचानता। माया के पदार्थों के मोह में दिवाना है और खपता दुखी होता है।

(10) बहुरंगी पदार्थों के भोग मोहरे की तरह हैं, जो भी इनमें बसा, वही मारा गया। चाहे वह किसी भी जाति का हो। ‘जाति’ भी मदद नहीं करती।

(11) बहुरंगी पदार्थों की ‘आशाएं’ बना बना के जीव मौत को भी भुला देता है। अपने आप को ठीक समझता है। नमक हारम जीव प्रभू के उपकार भुला के दुखी होता है।

(12) जब तक जीव के अंदर ‘माया’ वाला ‘खोट’ है तब तक वह ईश्वरीय दरगाह से दूर है। पर जिसे गुरू की शरण प्राप्त हो जाए वह खोटे से खरा हो जाता है।

(13) गुरू के सन्मुख होने से ‘अपनत्व’ (माया से पकड़) का नाश होता है। बहुरंगी पदार्थों की जगह जीव करतार को सच्चा साथी समझने लग पड़ता है।

(14) पर, गुरू के सन्मुख तभी हो सकता है अगर प्रभू की मेहर हो। गुरू की शिक्षा पे चल के ‘नाम’ सिमर के ‘स्वै’ गवाता है। इस तरह प्रभू में जुड़ने से सुखी होते हैं।

(15) गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलने से प्रभू का नाम प्राप्त होता है और प्रभू में लीन हो जाते हैं।

(16) पर, जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं वे अहंकार के कारण दुखी होते हैं।

(17) ‘नाम’, पूरे गुरू से ही मिलता है। पर, पूरे गुरू का रास्ता त्याग के मन के पीछे चलने वाले दुनिया के धंधों में ही ठॅगे जाते हैं (भटकते रह जाते हैं) और जिंदगी व्यर्थ गवा लेते हैं।

(18) आत्मा के लिए ‘भाव’रूपी ‘भोजन’ सतिगुरू से ही मिलता है। गुरू ने प्रसन्न हो के ये दाति जिसे दी, उसकी आत्मा पुल्कित रहती है।

(19) जगत तृष्णा की आग में जल रहा है। ज्यों ज्यों लालच में प्रवृति होता है, ये आग और भड़कती है। गुरू के शबद के द्वारा ये बुझती है।

(20) दुनिया के सिर पे हर समय मौत का सहम कायम है। दुनिया के पदार्थों का साथ निभता नहीं, पर धंधों में फंसा जीव समझता नहीं। ये समझ सतिगुरू की मेहर से ही आती है।

(21) मनुष्य पिछली बनीं ‘वादियों’ के आसरे चलता है। धार्मिक पुस्तकों के पाठ व व्याख्यान या धार्मिक भेष के द्वारा बनीं ‘वादियों’ की लकीर में से निकल के ही ‘नाम’ में लीन हो सकते हैं। सतिगुरू के शबद के द्वारा सिफत सालाह ही प्रभू में जोड़ती है।

(22) जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा सिफत सालाह करते हैं, वे पति प्रभू के नजदीक होने के कारण सुंदर लगते हैं। उनसे प्रभू पति प्यार करता है।

(23) पति प्रभू की सिफत सालाह करके ढाढी का हृदय-कमल खिल उठता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटकते। ये सच्चा रास्ता उसे गुरू से मिलता है।

(24) जिस मनुष्य पे प्रभू मेहर करे, उसे सतिगुरू की सिफत सालाह की दाति देता है। उसके अंदर से ही नाम रत्न मिल जाता है। उसके अंदर प्रकाश हो जाता है।

(25) जिस पर गुरू मेहरवान होता है, उसे ‘नाम’ मिलता है। कोई चिंता-फिक्र व मौत का डर उसे छू नहीं सकते।

(26) प्रभू के दर से सिफत सालाह की दाति ही मांगनी चाहिए। ‘नाम’ की दाति जिन्हें मिलती है वे प्रभू का रूप हो जाते हैं।

(27) जिन्हें सिफत सालाह की दाति मिलती है, सिफति ही उनकी जिंदगी का आसरा बन जाती है। सिफत सालाह ही उनके लिए आदर सत्कार है क्योंकि सिफत के द्वारा उन्हें सिफतों का मालिक मिल जाता है।

सम्पूर्ण भाव:

(1) ये बहुरंगी जगत करतार ने रचा है और करतार का रूप है। पर, जीव इसके मोह में तृष्णा अधीन हो के करतार को विसार के अस्लियत भूल जाता है और दुखी होता है। (१ से ४)

(2) इस तृष्णा की आग से बचने के लिए ना जंगल में डेरा, ना विद्वता, ना ऊँची जाति सहायता कर सकते हैं। इस बाग़ मिलख घर बार को ‘अपना’ समझना मूर्खता है। ये ‘अपनत्व’ ही मनुष्य को पागल किए रखता है। ये मोहरा है, जो इसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है। क्योंकि, इस ‘अपनत्व’ से पैदा हुई ‘आशाओं’ के कारण जीव करतार दातार को विसार देता है। (५ से ११)

(3) ये (माया की) ‘अपनत्व’ गुरू की शरण पड़ने से मिटती है; गुरू से नाम मिलता है, प्रेम प्राप्त होता है, जो आत्मा की खुराक है। ज्यों ज्यों ये आत्मिक खुराक मिलती है तृष्णा की आग बुझती है मौत का सहम दूर होता जाता है और परमात्मा सच्चा साथी प्रतीत होने लग पड़ता है। (१२ से २०)

(4) मनुष्य पिछली बनी ‘वादियों’ के आसरे चलता है। इन लकीरों में से कोई धार्मिक भेष अथवा पाठ-व्याख्यान निकाल नहीं सकते। जब गुरू के शबद के द्वारा मनुष्य सिफत सालाह में लगता है तो इसका हृदय खिलने लग पड़ता है। इसके अंदरनाम रत्न से प्रकाश हो जाता है, और कोई चिंता-फिक्र व मौत का डर इसे छू नहीं सकता।

सो, प्रभू दर से सिफत सालाह ही की दाति मांगें। ज्यों ज्यों सिफत सालाह में जुड़ते हैं, यही जिंदगी का आसरा बन जाती है। दुनिया के आदर सम्मान इसके समक्ष तुच्छ प्रतीत होते हैं। क्योंकि सिफत सालाह के द्वारा सिफतों का मालिक मिल पड़ता है। (२१ से २७)

मुख्य भाव:

करतार के रचे बहुरंगी जगत की ममता मनुष्य के लिए दुखों का मूल है। गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम सिमरने से ही इससे बच सकते हैं। जंगलवास, विद्या, उच्च जाति, धार्मिक भेष, पाठ अथवा कोई सियानप चातुर्य इससे बचा नहीं सकते। प्रभू के दर से गुरू की शरण व सिमरन की दाति ही सदैव मांगें।

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तथा = और।

अर्थ: राग माझ की ये वार और इसके साथ दिए हुए शलोक गुरू नानक देव जी के उचारे हुए हैं।

पर, इसका ये भाव नहीं कि इस ‘वार’ की पउड़ियां और शलोक गुरू नानक देव जी ने इकट्ठे ही उचारे थे। ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियों’ का संग्रह है। ‘वार’ का असल रूप केवल ‘पउड़ियां’ हैं। गुरू ग्रंथ साहिब की बीड़ तैयार करने के समय ये शलोक गुरू अरजन देव जी ने मिला दिए थे। ‘वारों’ के साथ दर्ज करने के बाद जो शलोक ज्यादा बच रहे, वह उन्होंने आखिर में इकट्ठे लिख दिए और शीर्षक लिखा ‘सलोक वारां ते वधीक’।

इस ‘वार’ की सारी बनावट को थोड़ा गौर से देखने से ये बात स्पष्ट दिखाई देने लगती है कि पहिले सिर्फ ‘पउड़ियां’ थीं। ‘बनावट’ में निम्नलिखित बातें ध्यान रखने योग्य है;

(1) कुल 27 पउड़ियां हैं और हरेक पउड़ी की आठ आठ तुकें हैं।

(2) 27 पउड़ियों में से सिर्फ 14 ऐसी हैं, जिनके साथ शलोक सिर्फ गुरू नानक देव जी के हैं।

(3) पर, इन शलोकों की गिनती हरेक पउड़ी के साथ एक जैसी नहीं। 10 पउड़ियों के साथ दो दो शलोक हैं और निम्नलिखित 4 पउड़ियों के शलोक इस प्रकार हैं;

पउड़ी नं: १ के साथ 3 श्लोक

पउड़ी नं: ७ के साथ 3 श्लोक

पउड़ी नं: ९ के साथ 4 श्लोक

पउड़ी नं: १३ के साथ 7 श्लोक

(4) पउड़ी नं: ३, १८, २२ और २५ के साथ कोई भी श्लोक गुरू नानक देव जी का नहीं है।

(5) बाकी रह गई 9 पउड़ियां; इनके साथ एक एक श्लोक गुरू नानक देव जी का है, एक एक व अन्य गुरू साहिबानों का।

हरेक ‘पउड़ी’ में तुकों की गिनती एक जैसी होने के कारण ये स्पष्ट प्रतीत होता है कि गुरू नानक देव जी ने ये ‘वार’ लिखते वक्त ‘काव्य’ सहजता का भी ख्याल रखा है। पर जिस कवि गुरू ने पउड़ियों की संरचना पर इतना ध्यान दिया है, उस संबंधी ये नहीं कहा जा सकता कि श्लोक लिखने के समय कहीं दो दो लिख दिये, कहीं 3, कहीं 4 कहीं7 लिख दिए और कई पउड़ियां खाली ही रहने दीं।

असल बात ये है कि ‘वार’ का पहला स्वरूप सिर्फ –पउड़ियां हैं। श्लोक गुरू अरजन देव जी ने दर्ज किए हैं।

मलक मुरीद तथा चंद्रहड़ा सोहीआ की धुनी गावणी ॥

मुरीद खान और चंद्रहड़ा, दो राजपूत सरदार हुए हैं अकबर के दरबार में। पहले की जाति थी ‘मलिक’ तथा दूसरे की ‘सोही’। दोनों की आपस में लगती थी। एक बार बादशाह ने मुरीद खान को काबुल की मुहिम पे भेजा, उसने वैरी को जीत तो लिया, पर राज प्रबंध में कुछ देर लग गई। चंद्रहड़े ने अकबर के पास चुगली लगा दी कि मुरीद खान आकी हो के बैठा है। सो, मलिक के विरुद्ध फौज दे के इसे भेजा गया। दोनों जंग में आपस में लड़के मारे गए। ढाढियों ने इस जंग की ‘वार’ लिखी, देश में प्रचलित हुई। गुरू अरजन साहिब ने ऊपर लिखे शीर्षक में हिदायत की है कि गुरू नानक देव जी की ये माझ की वार उस धुनि (सुर) में गानी है जिसमें मुरीद खान वाली गाई जाती है।

मुरीद खान वाली वार का नमूना;
“काबल विच मुरीद खां फड़िआ वड जोर।”

ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥
सलोकु मः १ ॥

गुरु दाता गुरु हिवै घरु गुरु दीपकु तिह लोइ ॥ अमर पदारथु नानका मनि मानिऐ सुखु होइ ॥१॥

पद्अर्थ: हिवै घरु = बर्फ का घर, ठण्उ का श्रोत। दीपकु = दिया। तिहु लोइ = त्रिलोकी में। अमर = ना मरने वाला, ना खत्म होने वाला। मनि मानीअै = अगर मन मान जाए, यदि मन पतीज जाए।

अर्थ: सतिगुरू (नाम की दाति) देने वाला है। गुरू ठण्ड का श्रोत है। गुरू (ही) त्रिलोकी में प्रकाश करने वाला है। हे नानक! कभी ना समाप्त होने वाला (नाम रूपी) पदार्थ (गुरू से मिलता है)। जिसका मन गुरू में पतीज जाए, वह सुखी हो जाता है।1।

मः १ ॥ पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥ दूजै माइ बाप की सुधि ॥ तीजै भया भाभी बेब ॥ चउथै पिआरि उपंनी खेड ॥ पंजवै खाण पीअण की धातु ॥ छिवै कामु न पुछै जाति ॥ सतवै संजि कीआ घर वासु ॥ अठवै क्रोधु होआ तन नासु ॥ नावै धउले उभे साह ॥ दसवै दधा होआ सुआह ॥ गए सिगीत पुकारी धाह ॥ उडिआ हंसु दसाए राह ॥ आइआ गइआ मुइआ नाउ ॥ पिछै पतलि सदिहु काव ॥ नानक मनमुखि अंधु पिआरु ॥ बाझु गुरू डुबा संसारु ॥२॥

पद्अर्थ: पहिलै = पहली अवस्था में। पिआरि = प्यार से। थण दुध = थनों के दूध में। सुधि = सूझ। भया = भाई। भाभी = भौजाई। बेब = बहिन। धातु = धौड़, कामना। संजि = (पदार्थ) इकट्ठे करके। सिगीत = संगी, साथी। दसाऐ = पूछता है। मुइआ = खत्म हो गया, भूल गया। अंधु = अंधा, अज्ञानता वाला।

अर्थ: (अगर मनुष्य की सारी उम्र को दस हिस्सों में बाँट दें, तो इसकी सारी उम्र के किए उद्यमों की तसवीर कुछ इस तरह बनती है:) पहली अवस्था में (जीव) प्यार से (माँ के) थनों के दूध से व्यस्त होता है; दूसरी अवस्था में (भाव, जब थोड़ा सा बड़ा होता है) (इसे) माँ और पिता की समझ हो जाती है। तीसरी अवस्था में (पहुँचे हुए जीव को) भाई व बहिन की पहचान हो जाती है। चौथी अवस्था में खेलों में प्यार के कारण (जीवों में खेल खेलने की रुची) उपतजी है। पाँचवीं अवस्था में खाने पीने की लालसा बनती है। छेवीं अवस्था में (पहुँच के जीव के अंदर) काम (जागता है जो) जाति कुजाति नहीं देखता। सातवीं अवस्था में (जीव पदार्थ) इकट्ठे करके (अपना) घर का बसेरा बनाता है। आठवीं अवस्था में (जीव के अंदर) गुस्सा (पैदा होता है जो) शरीर का नाश करता है। (उम्र के) नौवें हिस्से में केस सफेद हो जाते हैं और साँस खींच के आते हैं (भाव, दम चढ़ने लग जाता है); दसवें दर्जे पे जा के जल के राख हो जाता है।

जो साथी (शमशान तक साथ) जाते हैं, वे ढाहें मार के रोते हैं। जीवात्मा (शरीर में से) निकल के (आगे के) राह पूछता है। जीव जगत में आया और चला गया। (जगत में उसका) नाम भी भूल गया। (उसके मरने के) बाद पत्तलों पे (पिण्ड भरा के) कौओं को ही बुलाते हैं (उस जीव को कुछ नहीं पहुँचता)।

हे नानक! मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का (जगत से) प्यार अंधों वाला प्यार है। गुरू (की शरण आए) बगैर जगत (इस ‘अंधे प्यार’ में) डूब रहा है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh