श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ दस बालतणि बीस रवणि तीसा का सुंदरु कहावै ॥ चालीसी पुरु होइ पचासी पगु खिसै सठी के बोढेपा आवै ॥ सतरि का मतिहीणु असीहां का विउहारु न पावै ॥ नवै का सिहजासणी मूलि न जाणै अप बलु ॥ ढंढोलिमु ढूढिमु डिठु मै नानक जगु धूए का धवलहरु ॥३॥ {पन्ना 138}

पद्अर्थ: बालतणि = बालपन में। रवण = काम चेष्टा वाली उम्र। रवणि = काम चेष्टा वाली अवस्था में। पुरु = भरी जवानी, पूर्ण यौवन। पगु = पैर। खिसै = फिसलता है, नीचे को खिसकता है। सिहजासणी = सेज+आसनी, मंजे पे आसन रखने वाला। अप बलु = अपना बल, अपना आप। धवलहरु = धवल घर, मंदिर, सफेद पलस्तर वाला मकान।

अर्थ: दस सालों का (जीव) बालपन में (होता है)। बीस वर्षों का हो के काम चेष्टा वाली अवस्था में पहुँचता है, तीस सालों का हो के खूबसूरत कहलाता है। चालिस सालों की उम्र तक भर जवान होता है। पचास पे पहुँच के पैर (जवानी से नीचे) खिसकने लग पड़ता है। साठ सालों पे बुढ़ापा आ जाता है, सक्तर सालों का जीव अक्ल से हीन होने लग पड़ता है, और अस्सी सालों का काम काज के लायक नहीं रहता। नब्बे साल का चारपाई से ही नहीं हिल सकता, अपने आप को भी संभाल नहीं सकता।

हे नानक! मैंने ढूँढा है, तलाशा है। ये जगत सफेद पलस्तरी मंदिर है (अर्थात, देखने को सुंदर है) पर है धूएं का (भाव सदा कायम रहने वाला नहीं)।3।

पउड़ी ॥ तूं करता पुरखु अगमु है आपि स्रिसटि उपाती ॥ रंग परंग उपारजना बहु बहु बिधि भाती ॥ तूं जाणहि जिनि उपाईऐ सभु खेलु तुमाती ॥ इकि आवहि इकि जाहि उठि बिनु नावै मरि जाती ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ रंगि हरि रंगि राती ॥ सो सेवहु सति निरंजनो हरि पुरखु बिधाती ॥ तूं आपे आपि सुजाणु है वड पुरखु वडाती ॥ जो मनि चिति तुधु धिआइदे मेरे सचिआ बलि बलि हउ तिन जाती ॥१॥ {पन्ना 138}

पद्अर्थ: अगंमु = जिस तक पहुँच ना हो सके। रंग परंग = कई रंगों की। उपारजना = पैदा की। तुमारी = तेरा ही। इकि = कई जीव। चलूलिआ = (फारसी में चूँ+लालह) लालह फूल जैसा लाल, गाढ़े लाल रंग वाले। सो निरंजनो = उस माया रहित प्रभू को। बिधाती = विधाता, सृजनहार। सुजाणु = सुजान, माहिर।

अर्थ: हे (प्रभू!) तू सृजनहार है। सब में मौजूद है। (फिर भी) तेरे तक किसी की पहुँच नहीं है। तूने स्वयं (सारी) सृष्टि पैदा की है। ये रचना तूने कई रंगों कई किस्मों, कई तरीकों से बनाई है। (जगत का ये) सारा तमाशा तेरा ही (बनाया हुआ) है। (इस तमाशे के भेद को) तू स्वयं ही जानता है, जिसने (खेल बनाया हुआ) है। (इस तमाशे में) कई जीव आ रहे हैं, कई (तमाशा देख के) चलते जा रहे हैं। (पर जो) ‘नाम’ से वंचित हैं, वह मर के (भाव दुखी हो के) जाते हैं। पर वे मनुष्य जो गुरू के सन्मुख हैं वे (प्रभू के) प्यार में गहरे रंगे हुए हैं, वे निरोल हरी के प्यार में रंगे हुए हैं।

(हे भाई!) जो प्रभू सब में व्यापक (पुरुष) है, जगत का रचनहार है, सदा स्थिर रहने वाला है और माया से रहित है, उसे सिमरो।

हे प्रभू! तू सबसे बड़ी हस्ती वाला है, तू स्वयं ही सब कुछ जानने वाला है। हे मेरे सच्चे (साहिब!) जो तुझे मन लगा के चिक्त लगा के सिमरते हैं, मैं उनसे सदके जाता हूँ।1।

सलोक मः १ ॥ जीउ पाइ तनु साजिआ रखिआ बणत बणाइ ॥ अखी देखै जिहवा बोलै कंनी सुरति समाइ ॥ पैरी चलै हथी करणा दिता पैनै खाइ ॥ जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ जा भजै ता ठीकरु होवै घाड़त घड़ी न जाइ ॥ नानक गुर बिनु नाहि पति पति विणु पारि न पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद, तनु = शरीर। बणत = घाड़त। अखी = आँखों से। कंनी = कानों में। सुरति = सुनने की सक्ता। समाइ = टिकी हुई है, मौजूद है। अंधु = अंधों वाला काम। पारि ना पाइ = पार नहीं लांघता। पति = इज्जत, प्रभू की मेहर।

अर्थ: (प्रभू ने) जिंद डाल के (मनुष्य का) शरीर बनाया है, (क्या सोहणी) घाढ़त घढ़ के रखी है। आँखों से यह देखता है, जीभ से बोलता है। (इस के) कानों में सुनने की शक्ति मौजूद है। पैरों से चलता है, हाथों से (काम) करता है, और (प्रभू का) दिया खाता पहनता है। पर, जिस (प्रभू) ने (इसके शरीर को) बनाया सवारा है, उसे ये पहचानता (भी नहीं)। अंधा मनुष्य (अर्थात आत्मिक जीवन से बे-समझ) अंधों वाला काम करता है।

जब (ये शरीर रूपी बरतन) टूट जाता है, तो (ये तो) ठीकरा हो जाता है (भाव, किसी काम का नहीं रहता) और मुड़ के ये (शारीरिक) बनतर बन भी नहीं सकती। हे नानक! (अंधा मनुष्य) गुरू (की शरण) के बिना बख्शिश से वंचित रह जाता है, और प्रभू की मेहर के बिना (इस मुश्किल में से ) पार नहीं लांघ सकता।1।

मः २ ॥ देंदे थावहु दिता चंगा मनमुखि ऐसा जाणीऐ ॥ सुरति मति चतुराई ता की किआ करि आखि वखाणीऐ ॥ अंतरि बहि कै करम कमावै सो चहु कुंडी जाणीऐ ॥ जो धरमु कमावै तिसु धरम नाउ होवै पापि कमाणै पापी जाणीऐ ॥ तूं आपे खेल करहि सभि करते किआ दूजा आखि वखाणीऐ ॥ जिचरु तेरी जोति तिचरु जोती विचि तूं बोलहि विणु जोती कोई किछु करिहु दिखा सिआणीऐ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ हरि इको सुघड़ु सुजाणीऐ ॥२॥ {पन्ना 138}

पद्अर्थ: देंदे थावहु = देने वाले की अपेक्षा। सुरति = सूझ। मति = अक्ल। किआ करि आखि = क्या कह कर? क्या कह के? किन शब्दों में। अंतरि बहि कै = अंदर बैठ के, (भाव) छुप के। पापि कमाणै = अगर बुरे काम करें। चहु कुंडी = चहूँ कूटों में, हर तरफ। दिखा = देखूँ।

अर्थ: मन के पीछे चलने वाला मनुष्य को ऐसा समझ लो (कि उसको) देने वाले (परमात्मा) की अपेक्षा (उसका) दिया हुआ (पदार्थ) अच्छा लगता है। उस मनुष्य की सूझ, अक्ल और सियानप (इतनी नीची है कि) शब्दों में बयान नहीं की जा सकती। (वह अपनी ओर से) छुप के (बुरे) काम करता है, (पर जो कुछ वह करता है) वह हर जगह दिखाई दे जाता है (कुदरत का नियम ही ऐसा है कि) जो मनुष्य भला काम करता है, उसका नाम ‘धर्मी’ पड़ जाता है। बुरे काम करने वाला मनुष्य बुरा ही समझा जाता है।

(पर बुरा किसे कहें?) (हे प्रभू!) सारे चमत्कार तू खुद ही कर रहा है। तुझसे अलग और किसे कहें? (जीव के अंदर) जब तक तेरी ज्योति मौजूद है, तब तक उस ज्योति में तू (स्वयं ही) बोलता है। जब तेरी ज्योति निकल जाए, तब कोई भला कुछ करे तो सही, हम भी परख के देखें (भाव, तेरी ज्योति के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता; मनमुख में भी तेरी ज्योति है)। हे नानक! गुरू की शरण आए मनुष्य को (हर जगह) एक ही सियाना और सुजान प्रभू ही दिखाई देता है।

पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे धंधै लाइआ ॥ मोह ठगउली पाइ कै तुधु आपहु जगतु खुआइआ ॥ तिसना अंदरि अगनि है नह तिपतै भुखा तिहाइआ ॥ सहसा इहु संसारु है मरि जमै आइआ जाइआ ॥ बिनु सतिगुर मोहु न तुटई सभि थके करम कमाइआ ॥ गुरमती नामु धिआईऐ सुखि रजा जा तुधु भाइआ ॥ कुलु उधारे आपणा धंनु जणेदी माइआ ॥ सोभा सुरति सुहावणी जिनि हरि सेती चितु लाइआ ॥२॥ {पन्ना 138}

पद्अर्थ: ठगउली = ठग बूटी। आपहु = अपने आप से। खुआइआ = गवा लिया। नह तिपतै = नहीं तृप्ति होती। सहसा = संशय, तौखला। सुखि = सुख में। रजा = तृप्त हो गया। माइआ = माँ। जणेदी = पैदा करने वाली।

अर्थ: (हे प्रभू!) तू खुद ही जगत पैदा करके खुद ही (इसे) जंजाल में डाल देता है। (माया के) मोह की ठग बूटी खिला के तू जगत को अपने आप से (भाव, अपनी याद से) वंचित कर देता है। (जगत के) अंदर तृष्णा की आग (जल रही) है। (इस वास्ते ये माया की) प्यास व भूख का मारा हुआ तृप्त नहीं होता। ये जगत है ही तौखला (रूप), (इस तौखले में पड़ा जीव) पैदा होता मरता व जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। (माया का यह) मोह गुरू (की शरण) के बिना टूटता नहीं, (ज्यादातर जीव) और और (धार्मिक) कर्म करके हार चुके हैं।

प्रभू का नाम गुरू की शिक्षा के द्वारा ही सिमरा जा सकता है। (हे प्रभू!) जब तुझे भाए (तो जीव तेरे नाम के) सुख में (टिक के) तृप्त होते हैं। धन्य है (उस जीव को) पैदा करने वाली माँ, (नाम की बरकति से वह) अपना खानदान (ही विकारों से) बचा लेती है। जिस मनुष्य ने प्रभू के साथ चिक्त जोड़ा है, (जगत में उसकी) शोभा होती है और उसकी सुंदर सूझ हो जाती है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh