श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 139 सलोकु मः २ ॥ अखी बाझहु वेखणा विणु कंना सुनणा ॥ पैरा बाझहु चलणा विणु हथा करणा ॥ जीभै बाझहु बोलणा इउ जीवत मरणा ॥ नानक हुकमु पछाणि कै तउ खसमै मिलणा ॥१॥ {पन्ना 139} अर्थ: अगर आँखों के बिना देखें (अर्थात, अगर पराया रूप देखने वाली आदत से हट के जगत को देखें), कानों से बिना सुनें (भाव, अगर निंदा सुनने की वृक्ति से हटा के बरतें), अगर बिना पैरों के चलें (भाव, यदि गलत मार्ग पर चलने से पैरों को रोके रखें), यदि हाथों के बिना काम करें (भाव, अगर पराया नुकसान करने से रोक के हाथों का बरतें), यदि जीभ के बिना बोलें (अर्थात, पराई निंदा रस से बचा के जीभ से काम लें), – इस तरह जीते हुए मरना है। हे नानक! पति प्रभू का हुकम पहचाने तो ही उससे मिल सकते हैं (भाव, यदि ये समझ लें कि पति प्रभू द्वारा आँख आदि इंद्रियों को कैसे इस्तेमाल करने का हुकम है, तो उस प्रभू से मिल सकते हैं)।1। मः २ ॥ दिसै सुणीऐ जाणीऐ साउ न पाइआ जाइ ॥ रुहला टुंडा अंधुला किउ गलि लगै धाइ ॥ भै के चरण कर भाव के लोइण सुरति करेइ ॥ नानकु कहै सिआणीए इव कंत मिलावा होइ ॥२॥ पद्अर्थ: साउ = स्वाद, आनंद। रुहला = लूला, पैर के बगैर। टुंडा = हाथ के बगैर। धाइ = दौड़ के, भाग के। भै के = (प्रभू के) डर से। कर = हाथ। भाव = प्यार। लोइण = आँखें। सुरति = ध्यान। इव = इस तरह। अर्थ: (परमात्मा, कुदरति में बसता) दिखाई दे रहा है। (उसकी जीवन रौं सारी रचना) में सुनी जा रही है। (उसके कामों से) प्रतीत हो रहा है (कि वह कुदरति में मौजूद है, फिर भी उसके मिलाप का) स्वाद (जीव को) हासिल नहीं होता। (ऐसा क्यों?) इसलिए कि प्रभू को मिलने के लिए (जीव के पास) ना पैर हैं, ना हाथ हैं और ना ही आँखें हैं। (फिर ये) भाग के कैसे (प्रभू के) गले जा लगे? यदि (जीव प्रभू के) डर (में चलने) को (अपने) पैर बनाए, प्यार के हाथ बनाए और (प्रभू की) याद (में जुड़ने) को आँखें बनाए, तो नानक कहता है, हे सुजान जीवस्त्री!इस तरह पति प्रभू से मेल होता है।2। पउड़ी ॥ सदा सदा तूं एकु है तुधु दूजा खेलु रचाइआ ॥ हउमै गरबु उपाइ कै लोभु अंतरि जंता पाइआ ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू सभ करे तेरा कराइआ ॥ इकना बखसहि मेलि लैहि गुरमती तुधै लाइआ ॥ इकि खड़े करहि तेरी चाकरी विणु नावै होरु न भाइआ ॥ होरु कार वेकार है इकि सची कारै लाइआ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है इकि अलिपतु रहे जो तुधु भाइआ ॥ ओहि अंदरहु बाहरहु निरमले सचै नाइ समाइआ ॥३॥ {पन्ना 139} पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। खड़े = खड़े हो के, सचेत हो के। इकि = कई जीव। कलत्र = स्त्री। अलिप्त = निर्लिप, निर्मोह। ओहि = (‘ओहु’ का बहुवचन) वह जीव। नाइ = नाम में। अर्थ: (हे प्रभू!) तू सदा ही एक (स्वयं ही स्वयं) है। ये (तुझसे अलग दिखता तमाशा) तूने खुद ही रचा है। (तूने ही जीवों के अंदर) अहंकार पैदा करके, जीवों के अंदर लोभ (भी) डाल दिया है। (इसलिए) सारे ही जीव तेरी ही परोई हुई कार कर रहे है। जैसे तुझे भाए वैसे इनकी रक्षा कर। कई जीवों को तू बख्शता है (और अपने चरणों में) जोड लेता है। गुरू की शिक्षा में तूने स्वयं ही उनको लगाया है। (ऐसे) कई जीव सुचेत हो के तेरी बंदगी कर रहे हैं। तेरे नाम (की याद) के बिना कोई और काम उन्हें नहीं भाता (भाव, किसी और काम की खातिर तेरा नाम भुलाने को वे तैयार नहीं)। जिन ऐसे लोगों को तूने इस सच्ची कार में लगाया है, उन्हें (तेरा नाम विसार के) कोई और काम करना बुरा लगता है। ये जो पुत्र, स्त्री व परिवार है, (हे प्रभू!) जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं, वे इनसे निर्मोही रहते हैं। तेरे सदा कायम रहने वाले नाम में जुड़े हुए वह लोग अंदर बाहर से निर्मल रहते हैं।3। सलोकु मः १ ॥ सुइने कै परबति गुफा करी कै पाणी पइआलि ॥ कै विचि धरती कै आकासी उरधि रहा सिरि भारि ॥ पुरु करि काइआ कपड़ु पहिरा धोवा सदा कारि ॥ बगा रता पीअला काला बेदा करी पुकार ॥ होइ कुचीलु रहा मलु धारी दुरमति मति विकार ॥ ना हउ ना मै ना हउ होवा नानक सबदु वीचारि ॥१॥ {पन्ना 139} पद्अर्थ: सुइने कै परबति = सोने के सुमेर पर्वत पर। करी = मैं बना लूँ। कै = या, यद्यपि,चाहे। पइआलि = पाताल में। पाणी पइआलि = नीचे पानी में। उरधि = उल्टा, ऊँचा। सिरि भारि = सिर के भार। पुरु = पूरे तौर पे। सदाकारि = सदा ही। कुचीलु = गंदा। मलुधारी = मैला। अर्थ: मैं (चाहे) सोने के (सुमेर) पर्वत पर गुफा बनां लूँ, चाहे नीचे पानी में (जा के रहूँ); चाहे धरती में रहूँ, चाहे आकाश में उल्टा सिर भार खड़ा रहूं। चाहे शरीर को पूरी तरह से कपड़ों से ढक लूँ, चाहे शरीर को सदा ही धोता रहूँ। चाहे मैं सफेद, लाल, पीले या काले कपड़े पहन के (चार) वेदों का उच्चारन करूँ, या फिर (सरेवड़ियों की तरह) गंदा व मैला रहूँ - ये सारे बुरी मति के बुरे काम (विकार) ही हैं। हे नानक! (मैं तो ये चाहता हूँ कि सतिगुरू के) शबद को विचार के (मेरा) अहंकार ना रहे।1। मः १ ॥ वसत्र पखालि पखाले काइआ आपे संजमि होवै ॥ अंतरि मैलु लगी नही जाणै बाहरहु मलि मलि धोवै ॥ अंधा भूलि पइआ जम जाले ॥ वसतु पराई अपुनी करि जानै हउमै विचि दुखु घाले ॥ नानक गुरमुखि हउमै तुटै ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपे नामो आराधे नामे सुखि समावै ॥२॥ {पन्ना 139} पद्अर्थ: वसत्र = कपड़े। पखालि = धो के। आपे = स्वयं ही, अपनी ओर से। संजमि = संजमी, जिसने काम आदिक विकारों को वस में कर लिया है, ऋषि, तपस्वी। अंतरि = मन में। भूलि = भूल के, टूट के । जम जाले = मौत के जाल में, उस धंधे रूपी जाल में जहां सदा मौत का डर बना रहे। दुखु घाले = दुख सहता है। नामे = नाम के द्वारा ही। सुखी = सुख में। अर्थ: (जो मनुष्य नित्य) कपड़े धो के शरीर धोता है (और सिर्फ कपड़े और शरीर स्वच्छ रखने से ही) अपनी ओर से तपस्वी बन बैठता है। (पर) मन में लगी हुई मैल की उसको खबर नहीं, (सदा शरीर को) बाहर से मल मल के धोता है। (वह) अंधा मनुष्य (सीधे राह से) भटक के मौत का डर पैदा करने वाले जाल में फंसा हुआ है, अहंकार में दुख सहता है। क्योंकि, पराई वस्तु (शरीर व अन्य पदार्थों आदिक) को अपनी समझ बैठता है। हे नानक! (जब) गुरू के सन्मुख हो के (मनुष्य का) अहम् दूर होता है, तबवह प्रभू का नाम सिमरता है, नाम जपता है। नाम ही याद करता है व नाम ही की बरकति से सुख में टिका रहता है।2। पवड़ी ॥ काइआ हंसि संजोगु मेलि मिलाइआ ॥ तिन ही कीआ विजोगु जिनि उपाइआ ॥ मूरखु भोगे भोगु दुख सबाइआ ॥ सुखहु उठे रोग पाप कमाइआ ॥ हरखहु सोगु विजोगु उपाइ खपाइआ ॥ मूरख गणत गणाइ झगड़ा पाइआ ॥ सतिगुर हथि निबेड़ु झगड़ु चुकाइआ ॥ करता करे सु होगु न चलै चलाइआ ॥४॥ {पन्ना 139} पद्अर्थ: हंसि = जीव। संजोगु मेलि = संजोग मेल के, जोड़ मिथ के। तिन ही = उन ही, उन्हीं (जिनि का विलोम तिनि। यहां ‘तिनि’ के ‘न’ की ‘ि’ मात्रा हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ ‘वाक्य रचना’ में अंक ‘ही’ )। जिनि = जिस (प्रभू) ने। तिन ही = उसी (प्रभू) ने ही। तिन ही = उसने ही। सबाइआ = सारे। हरखहु = खुशी से। गणत गणाए = लेखा लिख के। मूरख गणत गाणाइ = मूर्खों वाले काम कर करके। झगड़ा = जनम मरन का लंबा झमेला। सु होगु = वही होगा। अर्थ: शरीर व जीव (आत्मा) का संयोग निर्धारित करके (परमात्मा ने इनको मानस जन्म में) इकट्ठा कर दिया है। जिस (प्रभू) ने (शरीर व जीव को) पैदा किया है उसने ही (इनके लिए) विछोड़ा (भी) बना रखा है। (पर इस विछोड़े को भुला के) मूर्ख (जीव) भोग भोगता रहता है, जो सारे दुखों का (मूल बनता) है। पाप कमाने के कारण (भोगों के) सुख से रोग पैदा होते हैं (भोगों की) खुशी से चिंता (और अंत को) विछोड़ा पैदा करके जनम मरण का लंबा झमेला अपने सिर ले लेता है। जनम मरन के चक्र को खत्म करने की ताकत सतिगुरू के हाथ में है, (जिस को गुरू मिलता है उसका ये) झमेला खत्म हो जाता है। (जीवों की कोई) अपनी चलाई सियानप चल नहीं सकती। जो करतार करता है वही होता है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |