श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 141 मः १ ॥ हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसु गाइ ॥ गुरु पीरु हामा ता भरे जा मुरदारु न खाइ ॥ गली भिसति न जाईऐ छुटै सचु कमाइ ॥ मारण पाहि हराम महि होइ हलालु न जाइ ॥ नानक गली कूड़ीई कूड़ो पलै पाइ ॥२॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: हामा भरे = सिफारिश करता है (किसी मुसलमान के साथ विचार होने के कारण उनके ही अकीदे का जिक्र किया है)। मुरदारु = मसाले पराया हक। भिसति = बहिश्त में। छुटै = निजात मिलती है, मुक्ति हासिल होती है। कमाइ = कमा के, अमली जीवन में बरतने से। मारण = मसाले (बहस आदि चतुराई की बातें)। कूड़ीई गली = (बहिस आदि की) झूठी बातों से। पलै पाइ = मिलता है। अर्थ: हे नानक! पराया हक मुसलमान के लिए सूअर है और हिन्दू के लिए गाय है। गुरू पैग़ंबर तभी सिफारिश करते हैं अगर मनुष्य पराया हक ना मारे। निरी बातों से बहिश्त नही जाया जा सकता। सॅच को (भाव, जिसे सच्चा रास्ता कहते हो, उसे) अमली जीवन में लाने से ही निजात मिलती है। (बहस आदि बातों के) मसाले हराम माल में डालने से वह हक का माल नहीं बन जाते। हे नानक! झूठी बातें करने से झूठ ही मिलता है।2। मः १ ॥ पंजि निवाजा वखत पंजि पंजा पंजे नाउ ॥ पहिला सचु हलाल दुइ तीजा खैर खुदाइ ॥ चउथी नीअति रासि मनु पंजवी सिफति सनाइ ॥ करणी कलमा आखि कै ता मुसलमाणु सदाइ ॥ नानक जेते कूड़िआर कूड़ै कूड़ी पाइ ॥३॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: वखत = वक्त, समय। दुइ = दूसरी। खैर खुदाइ = रॅब से सबका भला मांगना। रासि = रासत, साफ। सनाइ = वडिआई, बड़प्पन। पाइ = डालने से, इज्जत। अर्थ: (मुसलमानों की) पाँच नमाजें हैं, (उनके) पाँच वक्त हैं और पाँचों ही निमाजों के (अलग अलग) पाँच नाम हैं। (पर, हमारे मत में असल निमाजें यूँ हैं–) सच बोलना नमाज का पहला नाम है (भाव, सुबह की पहली नमाज है), हक की कमाई दूसरी नमाज है, रॅब से सबका भला माँगना नमाज का तीसरा नाम है। नीयति को साफ करना मन को साफ रखना ये चौथी नमाज है और परमात्मा की सिफति सालाह व उस्तति करनी ये पाँचवीं नमाज है। (इन पाँचों नमाजों के साथ साथ) उच्च आचरण बनाने जैसी कलमा पढ़ें तो (अपने आप को) मुसलमान कहलवाएं (भाव, तो ही सच्चा मुसलमान कहलवा सकता है)। हे नानक! (इन नमाजों व कलमें से टूटे हुए) जितने भी हैं वे झूठ के व्यापारी हैं और झूठे की इज्जत भी झूठी ही होती है।3। पउड़ी ॥ इकि रतन पदारथ वणजदे इकि कचै दे वापारा ॥ सतिगुरि तुठै पाईअनि अंदरि रतन भंडारा ॥ विणु गुर किनै न लधिआ अंधे भउकि मुए कूड़िआरा ॥ मनमुख दूजै पचि मुए ना बूझहि वीचारा ॥ इकसु बाझहु दूजा को नही किसु अगै करहि पुकारा ॥ इकि निरधन सदा भउकदे इकना भरे तुजारा ॥ विणु नावै होरु धनु नाही होरु बिखिआ सभु छारा ॥ नानक आपि कराए करे आपि हुकमि सवारणहारा ॥७॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: इकि = कई लोग। पाइअनि = मिलते हैं। तुजारा = खजाने। बिखिआ = माया। छार = स्वाह, तुछ, निकम्मा। अर्थ: कई मनुष्य (परमात्मा की सिफत सालाह रूपी) कीमती सौदा कमाते हैं, और कई (दुनिया रूपी) कच्चे के व्यापारी हैं। (प्रभू के गुण-रूप ये) रत्नों के खजाने (मनुष्य के) अंदर ही हैं, पर सतिगुरू के प्रसन्न होने से ही मिलते हैं। गुरू (की शरण आए) बगैर किसी को ये खजाना नहीं मिला। झूठ के व्यापारी अंधे लोग (माया की खातिर ही दर दर पे) तरले करते मर जाते हैं। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं, वे माया में खचित होते हैं। उन्हें असल राह नहीं सूझता। (इस दुखी हालत की) पुकार भी वह लोग किस के सामने करें? एक प्रभू के बगैर और कोई (सहायता करने वाला ही) नहीं है। (नाम रूपी खजाने के बगैर) कई कंगाल सदा (दर दर पे) तरले लेते फिरते हैं, इनके (हृदय रूपी) खजाने (बंदगी रूपी धन से) भरे पड़े हैं। (परमात्मा के) नाम के बिना और कोई (साथ निभने वाला) धन नहीं है, तथा माया का धन राख के (समान) है। (पर) हे नानक! सब (जीवों में बैठा प्रभू) स्वयं ही (काँच का व रत्नों का व्यापार) कर रहा है। (जिनको सुधारता है उनको अपने) हुकम में ही सीधे राह पे डाल लेता है।7। सलोकु मः १ ॥ मुसलमाणु कहावणु मुसकलु जा होइ ता मुसलमाणु कहावै ॥ अवलि अउलि दीनु करि मिठा मसकल माना मालु मुसावै ॥ होइ मुसलिमु दीन मुहाणै मरण जीवण का भरमु चुकावै ॥ रब की रजाइ मंने सिर उपरि करता मंने आपु गवावै ॥ तउ नानक सरब जीआ मिहरमति होइ त मुसलमाणु कहावै ॥१॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: अवलि अउलि = पहले पहल, सबसे पहले । (अक्षर ‘उ’ तथा ‘व’ आपस में बदल जाते हैं क्योंकि दोनों का उच्चारण 'स्थान' एक ही है। इसी ‘वार’ में शब्द ‘पउड़ी’ व ‘पवड़ी’ बरते जा रहे हैं; देखें नं: ९,१०,११)। मसकल = मिसकला, लोहे का जंग उतारने वाला हथियार। माना = मानिंद, तरह। मुसावै = ठगाए, लुटाए, बाँटे। दीन मुहाणै = दीन की अगवाई में, दीन के सन्मुख, धर्म के अनुसार। मरण जीवण = सारी उम्र। आपु = स्वैभाव, अहम्, खुदी। मिहरंमति = मिहर, तरस। अर्थ: (असल) मुसलमान कहलवाना बड़ा ही मुश्किल है। अगर (वैसा) बने तो मनुष्य अपने आप को मुसलमान कहलवाए। (असली मुसलमान बनने के लिए) सबसे पहले (ये जरूरी है कि) मजहब प्यारा लगे। (फिर) जैसे मिसकले से जंग उतारते हैं वैसे ही (अपनी कमाई का) धन (जरूरतमंदों में) बाँट के बरते (और इस तरह दौलत का अहंकार दूर करे)। मजहब की अगुवाई में चल के मुसलमान बने, और सारी उम्र की भटकना मिटा डाले (अर्थात, सारी उम्र कभी मजहब के राह से अलग ना जाए)। रॅब के किए को स्वीकार करे, कादर को ही (सब कुछ करने वाला) माने और खुदी मिटा दे। इस तरह, हे नानक! (रॅब के पैदा किए) सारे लोगों से प्यार करे। ऐसा बने, तो मुसलमान कहलवाए।1। महला ४ ॥ परहरि काम क्रोधु झूठु निंदा तजि माइआ अहंकारु चुकावै ॥ तजि कामु कामिनी मोहु तजै ता अंजन माहि निरंजनु पावै ॥ तजि मानु अभिमानु प्रीति सुत दारा तजि पिआस आस राम लिव लावै ॥ नानक साचा मनि वसै साच सबदि हरि नामि समावै ॥२॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: परहरि = त्याग के, छोड़ के। तजि = छोड़ के। कामिनी = स्त्री। अंजन = कालख, माया का अंधेरा। निरंजनु = वह प्रभू जिस पे माया का अंधकार असर नहीं कर सकता। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री, पत्नी। पिआस = तृष्णा। अर्थ: (अगर मनुष्य) काम, गुस्सा, झूठ व निंदा छोड़ दे, अगर माया का लालच छोड़ के अहंकार (भी) दूर कर ले। अगर विषयों की वासना छोड़ के, स्त्री का मोह त्याग दे तो मनुष्य माया की कालिख में रहता हुआ ही माया-रहित प्रभू को पा लेता है। (यदि मनुष्य) अहंकार दूर करके पुत्र व पत्नी का मोह त्याग दे, अगर (दुनिया के पदार्थों की) आशा और तृष्णा छोड़ के परमात्मा के साथ सुरति जोड़ ले, तो, हे नानक! सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा उसके मन में बस जाता है। गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा के नाम में वह लीन हो जाता है।2। पउड़ी ॥ राजे रयति सिकदार कोइ न रहसीओ ॥ हट पटण बाजार हुकमी ढहसीओ ॥ पके बंक दुआर मूरखु जाणै आपणे ॥ दरबि भरे भंडार रीते इकि खणे ॥ ताजी रथ तुखार हाथी पाखरे ॥ बाग मिलख घर बार किथै सि आपणे ॥ त्मबू पलंघ निवार सराइचे लालती ॥ नानक सच दातारु सिनाखतु कुदरती ॥८॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: सिकदार = चौधरी। पटण = शहर। बंक = सोहने,बाँके। दरबि = धन ने। रीते = वंचित। इकि = एक में। इकि खणे = एक छिन में। ताजी = अरबी नस्ल के घोड़े। तुखार = ऊँठ। पाखर = हउदे, पलाणे। सि = वह। सराइचे = कनातें। लालती = अतलसी। सिनाखतु = पहचान। सचु = सदा कायम रहने वाला। अर्थ: राजे, प्रजा, चौधरी, कोई भी सदा नहीं रहेगा। हाट, शहर, बाजार प्रभू के हुकम में (अंत को) ढहि जाएंगे। सुंदर पक्के (घरों के) दरवाजों को मूर्ख मनुष्य अपने समझता है, (पर ये नहीं जानता कि) धन से भरे हुए खजाने एक पलक में खाली हो जाते हैं। बढ़िया घोड़े, ऊठ,हाथी, हउदे, बाग-जमीनें, घर-घाट, तंबू, निवारी पलंघ और अतलसी कनातें जिन्हें मनुष्य अपने समझता है, कहाँ चले जाते हैं पता नहीं चलता। हे नानक! सदा रहने वाला सिर्फ वही है, जो इन पदार्थों के देने वाला है, उसकी पहचान उसकी रची हुई कुदरति में से होती है।8। सलोकु मः १ ॥ नदीआ होवहि धेणवा सुम होवहि दुधु घीउ ॥ सगली धरती सकर होवै खुसी करे नित जीउ ॥ परबतु सुइना रुपा होवै हीरे लाल जड़ाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥१॥ {पन्ना 141} पद्अर्थ: धेवणा = गाएं। सुंम = श्रोत, चश्मे। जीउ = जिंद, जीव। रुपा = चाँदी। आखण चाउ = तेरी उस्तति करने का चाव। तूं है = तूझे ही। अर्थ: अगर सारी नदियां (मेरे वास्ते) गाएं बन जाएं, (पानी के) चश्में दूध और घी बन जाए, सारी जमीन शक्कर बन जाए, (इन पदार्थों को देख के) मेरी जिंद निक्त प्रसन्न हो। अगर हीरे व लालों से जड़े हुए सोने व चाँदी के पहाड़ बन जाएं, तो भी (हे प्रभू! मैं इन पदार्थों में ना फंसूँ और) तेरी ही सिफत सालाह करूँ। तेरी उस्तति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |