श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 142 मः १ ॥ भार अठारह मेवा होवै गरुड़ा होइ सुआउ ॥ चंदु सूरजु दुइ फिरदे रखीअहि निहचलु होवै थाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥२॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: भार अठारह = 18 भार, सारी बनस्पति (प्राचीन ख्याल चला आ रहा है कि यदि हरेक किस्म के पैड़-पौधे के एक-एक पक्ता ले के तोले जाएं तो सारा तोल ‘18 भार’ बनता है। एक भार का वनज है 5 मन कच्चे)। गरुड़ा = मुंह में घुल जाने वाला, रसीला। सुआउ = स्वाद। अर्थ: अगर सारी बनस्पति मेवा बन जाए, जिसका स्वाद बहुत रसीला हो। अगर मेरी रहने की जगह अटल हो जाए तो चाँद और सूरज दोनों (मेरी रहाइश की सेवा करने के लिए) सेवा के लिए लगाए जांए, (तो भी हे प्रभू! मैं इनमें ना फसूँ और) तेरी ही सिफत सालाह करूँ। तेरी उस्तति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।2। मः १ ॥ जे देहै दुखु लाईऐ पाप गरह दुइ राहु ॥ रतु पीणे राजे सिरै उपरि रखीअहि एवै जापै भाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥३॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: देहै = शरीर को। राहु = राहू। दूइ = दोनों राहू व केतू। पाप गरह = पापों के ग्रह, मनहूस तारे। रतु पीणे = ज़ालम। ऐवै = ऐसी। भाउ = प्यार। जापै = प्रगट हो। ऐवै = इस तरह। (पुराणों में कथा है कि मोहनी अवतार की अगुवाई में देवताओं ने समुंद्र मंथन करके 14 रत्न निकाले। उनमें एक था अमृत। जब देवते मिल के अमृत पीने लगे, तो राहू दैंत भी भेस बदल कर बीच में आ बैठा और अमृत पी गया। चंद्रमा और सूर्य ने पहिचान लिया, उन्होंने मोहनी अवतार को बताया जिसने सुदर्शन चक्र से इसका सिर काट दिया। ‘अमृत’ पीने के कारण ये मर ना सका और अब तक वैर लेने के लिए कभी कभी चंद्रमा व सूरज को आ ग्रसता है, तब ग्रहण लगता है)। अर्थ: यदि (मेरे) शरीर को दुख लग जाए, दोनों मनहूस तारे राहू और केतू (मुझ पे लागू हो जाएं), जालिम राजे मेरे सिर पे हों, अगर तेरा प्यार इस तरह (भाव, इन दुखों की शकल में ही मेरे ऊपर) प्रगट हो, तो भी (हे प्रभू! मैं इससे घबरा के तुझे विसार ना दूँ) तेरी ही सिफत सालाह करूँ। तेरी उस्तति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।3। मः १ ॥ अगी पाला कपड़ु होवै खाणा होवै वाउ ॥ सुरगै दीआ मोहणीआ इसतरीआ होवनि नानक सभो जाउ ॥ भी तूहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥४॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: अगी = आग, गरमियों में सूरज की तपती धूप व सेक। पाला = सर्दियों की ठण्ड। वाउ = हवा। मोहणीआ = मन को मोह लेने वालियां। जाउ = नाशवंत। अर्थ: (अगर गरमियों की) धूप और (सर्दियों का) पाला मेरे (पहनने के) कपड़े हों (अर्थात, यदि मैं नंगा रह के धूप और पाला भी सहूँ), अगर सिर्फ हवा मेरी खुराक हो (भाव, अगर मैं पवनाहारी हो जाऊँ, तो भी, हे प्रभू! तेरी सिफत सालाह के सामने ये तुच्छ हैं)। यदि स्वर्ग की अप्सराएं भी मेरे घर में हों, तो भी, हे नानक! ये तो नाशवंत हैं (इनके मोह में फस के मैं तुझे ना विसारूँ) तेरी ही सिफत सालाह करूँ। तेरी उस्तति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।4। पवड़ी ॥ बदफैली गैबाना खसमु न जाणई ॥ सो कहीऐ देवाना आपु न पछाणई ॥ कलहि बुरी संसारि वादे खपीऐ ॥ विणु नावै वेकारि भरमे पचीऐ ॥ राह दोवै इकु जाणै सोई सिझसी ॥ कुफर गोअ कुफराणै पइआ दझसी ॥ सभ दुनीआ सुबहानु सचि समाईऐ ॥ सिझै दरि दीवानि आपु गवाईऐ ॥९॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: बदफैली = बुरी करतूत। गैबाना = छुप के। कलहि = (जो शांति का नाश करे) बिखांध, झगड़ा। वादे = झगड़े में ही। कुफर = झूठ। कुफरगोअ = झूठ बोलने वाला। दझसी = जलेगा। सुबहानु = सुंदर। दोवै राह = (देखो पउड़ी नं:8में) धन और नाम। अर्थ: (जो मनुष्य) छुप के पाप कमाता है और मालिक को (हर जगह हाजिर नाजर नहीं) समझता, उसे पागल समझना चाहिए, वह अपनी अस्लियत को नहीं पहचानता। जगत में (विकारों की) बिखांद (इतनी) बुरी है कि (विकारों में फंसा मनुष्य विकारों के) झमेलों में ही खपता रहता है। प्रभू का नाम छोड़ के बुरे कर्मों व भटकना में खुआर होता है। (मनुष्य जीवन के) दो रास्ते हैं (माया का या नाम का), इस (जीवन में) वही कामयाब होता है जो (दोनों रास्तों में से) एक परमात्मा को याद रखता है, (नहीं तो) झूठ में गलतान हुआ हुआ ही जलता है। जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले प्रभू में जुड़ा हुआ है, उसके लिए सारा जगत ही सुंदर है। वह खुदी मिटा के प्रभू के दर पर प्रभू की दरगाह में सुर्खरू होता है।9। मः १ सलोकु ॥ सो जीविआ जिसु मनि वसिआ सोइ ॥ नानक अवरु न जीवै कोइ ॥ जे जीवै पति लथी जाइ ॥ सभु हरामु जेता किछु खाइ ॥ राजि रंगु मालि रंगु ॥ रंगि रता नचै नंगु ॥ नानक ठगिआ मुठा जाइ ॥ विणु नावै पति गइआ गवाइ ॥१॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: राजि = राज में। रंगु = प्यार। नंगु = बेशर्म, निलज्ज। मुठा = लूटा। अर्थ: (असल में) वह मनुष्य जीवित है जिसके मन में परमात्मा बस रहा है। हे नानक! (बंदगी वाले के बिना) कोई और जीवित नहीं है। अगर नाम-विहीन (देखने को) जीवित (भी) है तो इज्जत गवा के (यहां से) जाता है। जो कुछ (यहां) खाता-पीता है, हराम ही खाता है। जिस मनुष्य को राज में प्यार है, माल में मोह है, वह इस मोह में मस्ताया हुआ बे-शर्म हो के नाचता है (भाव, जलता है, अकड़ता है)। हे नानक! प्रभू के नाम से विहीन मनुष्य ठॅगा जा रहा है, लूटा जा रहा है, इज्जत गवा के (यहाँ से) जाता है।1। मः १ ॥ किआ खाधै किआ पैधै होइ ॥ जा मनि नाही सचा सोइ ॥ किआ मेवा किआ घिउ गुड़ु मिठा किआ मैदा किआ मासु ॥ किआ कपड़ु किआ सेज सुखाली कीजहि भोग बिलास ॥ किआ लसकर किआ नेब खवासी आवै महली वासु ॥ नानक सचे नाम विणु सभे टोल विणासु ॥२॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: कीजहि = किए जाएं। भोग बिलास = रंग रलियां। नेब = चोबदार। खवासी = चौरी बरदार। टोल = पदार्थ। अर्थ: (जिस प्रभू ने सारे सुंदर पदार्थ दिए हैं) अगर वह सच्चा प्रभू दिल में नहीं बसता, तो (स्वादिष्ट भोजन) खाने तथा (सुंदर कपड़े) पहनने का क्या स्वाद?क्या हुआ यदि मेवे, घी, मीठा गुड़, मैदा और मास आदि पदार्थ इस्तेमाल किए? क्या हुआ यदि (सुंदर) कपड़े और आरामदायक सेज मिल गई और अगर मौजें कर लीं? तो क्या बन गया अगर फौज, चौबदार, चौरी बरदार मिल गए और महलों में बसना नसीब हो गया? हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना सारे पदार्थ नाशवंत हैं।2। पवड़ी ॥ जाती दै किआ हथि सचु परखीऐ ॥ महुरा होवै हथि मरीऐ चखीऐ ॥ सचे की सिरकार जुगु जुगु जाणीऐ ॥ हुकमु मंने सिरदारु दरि दीबाणीऐ ॥ फुरमानी है कार खसमि पठाइआ ॥ तबलबाज बीचार सबदि सुणाइआ ॥ इकि होए असवार इकना साखती ॥ इकनी बधे भार इकना ताखती ॥१०॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: महुरा = एक प्रकार का जहर। सिरकार = राज, हकूमत। जुग जुग = हरेक युग में, सदा ही। दीबाणीअै = दीवान में, दरगाह में। फुरमानी = हुकम मानना। खसमि = पति ने। पठाइआ = भेजा। तबलबाज = नगारची (गुरू)। साखती = दुमची (दुमचियां पहन लीं = तैयार हो गए)। ताखती = दौड़, (भाव) दौड़ पड़ी। अर्थ: (प्रभू के दर पे तो) सच्चा नाम (रूपी सौदा) परखा जाता है, जाति के हाथ में कुछ नहीं है (भाव, किसी की जाति वर्ण का कोई लिहाज नहीं होता।) (जाति का अहंकार जहर के समान है) अगर किसी के पास जहर हो (चाहे वह किसी भी जाति का हो) अगर जहर खाएगा तो मरेगा। अकाल-पुरख का यह न्याय हरेक युग में घटित होता है (भाव किसी भी युग में जाति का लिहाज नहीं हुआ)। प्रभू के दर पे, प्रभू की दरगाह में वही इज्जत वाला है जो प्रभू का हुकम मानता है। पति (प्रभू) ने (जीव को) हुकम मानने की कार दे के (जगत में) भेजा है। नगारची गुरू ने शबद के द्वारा यही बात सुनाई है (अर्थात गुरू ने शबद के द्वारा यही ढंढोरा दे दिया है)। (ये ढंढोरा सुन के) कई (गुरमुख) तो सवार हो गए हैं (भाव, इस राह पर चल पड़े हैं), कई लोग तैयार हो गए हैं, कईयों ने असबाब लाद लिए हैं, और कई जल्दी दौड़ पड़े है।10। सलोकु मः १ ॥ जा पका ता कटिआ रही सु पलरि वाड़ि ॥ सणु कीसारा चिथिआ कणु लइआ तनु झाड़ि ॥ दुइ पुड़ चकी जोड़ि कै पीसण आइ बहिठु ॥ जो दरि रहे सु उबरे नानक अजबु डिठु ॥१॥ {पन्ना 142} पद्अर्थ: पलरि = नाड़, पौधे की नाली जिस पर सिट्टा उगा होता है। सणु = समेत। कीसारा = सिॅट्टे के तेज काँटे। कणु = दाने। तनु झाड़ि = (पौधों का) तन झाड़ के। बहिठु = बैठे। अजबु = आश्चर्यजनक तमाशा। अर्थ: जब (गेहूँ आदिक फसल का पौधा) पक जाता है तो (ऊपर ऊपर से) काट लेते हैं। (गेहूँ की) नाड़ और (खेत की) बाड़ पीछे रह जाती है। इसे सिट्टों समेत मसल लेते हैं और हवा में उड़ा के दाने अलग कर लेते है। फिरचक्की के दोनों हिस्से रख के (इन दानों को) पीसने के लिए (प्राणी) आ बैठता है। (पर,) हे नानक! एक आश्चर्यजनक तमाशा देखा है, जो दाने (चक्की के) दर पर (भाव, केंद्र में किल्ली के नजदीक) रहते हैं, वे पिसने से बच जाते हैं (इसी तरह, जो मनुष्य प्रभू के दर पर रहते हैं उन्हें जगत के विकार छूह नहीं सकते)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |