श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ न दादे दिहंद आदमी ॥ न सपत जेर जिमी ॥ असति एक दिगरि कुई ॥ एक तुई एक तुई ॥३॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: दाद = इंसाफ। दिहंद = देने वाले। दादे दिहंद = इंसाफ करने वाले। सपत = सप्त, सात।

अर्थ: ना ही इंसाफ करने वाले (भाव, दूसरों के झगड़े निपटाने वाले) आदमी सदा टिके रहने वाले हैं, ना ही धरती के नीचे (पाताल में) ही सदा रह सकते हैं। सदा स्थिर रहने वाला और दूसरा कौन है?सदा कायम रहने वाला, हे प्रभू! एक तू ही है, एक तू ही है।3।

मः १ ॥ न सूर ससि मंडलो ॥ न सपत दीप नह जलो ॥ अंन पउण थिरु न कुई ॥ एकु तुई एकु तुई ॥४॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: सूर = सूरज। ससि = चंद्रमा। मंडल = दिखाई देता आकाश। दीप = द्वीप, पुरातन काल से इस धरती के सात हिस्से निहित किये गए हैं, हरेक को द्वीप कहा गया है। केंद्रिय द्वीप का नाम ‘जंबू द्वीप’ कहा है जिस में हिंदुस्तान देश है। पउण = हवा।

अर्थ: ना सूरज ना चंद्रमा, ना यह दिखता आकाश, ना धरती के सप्त द्वीप। ना पानी, ना अन्न, ना हवा- कोई भी स्थिर रहने वाला नहीं। सदा कायम रहने वाला, हे प्रभू! एक तू ही है, एक तू ही है।

मः १ ॥ न रिजकु दसत आ कसे ॥ हमा रा एकु आस वसे ॥ असति एकु दिगर कुई ॥ एक तुई एकु तुई ॥५॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: दसत = हाथ। दसत आ कसे = किसी और सख्श के हाथ में। हमा = (हमह) सब। रा = (फारसी) को। वसे = बस, काफी।

अर्थ: (जीवों का) रिजक (परमात्मा के बिना) किसी और के हाथ में नहीं है। सब जीवों को बस एक प्रभू की आस है (क्योंकि, सदा स्थिर) और है ही कोई नहीं। सदा रहने वाला, हे प्रभू! एक तू ही है, एक तू ही है।5।

मः १ ॥ परंदए न गिराह जर ॥ दरखत आब आस कर ॥ दिहंद सुई ॥ एक तुई एक तुई ॥६॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: परंदऐ गिराह = परिंदों के पल्ले। ज़र = धन। आब = पानी। दिहंद = देने वाला।

अर्थ: परिंदों के पल्ले धन नही है। वे (प्रभू के बनाए हुए) रुखों व पानी का आसरा ही लेते हैं। उनको रोजी देने वाला वही प्रभू है। (हे प्रभू! इनका रिजक दाता) एक तू ही है, एक तू ही है।6।

मः १ ॥ नानक लिलारि लिखिआ सोइ ॥ मेटि न साकै कोइ ॥ कला धरै हिरै सुई ॥ एकु तुई एकु तुई ॥७॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: लिलारि = लिलाट, माथे पर। कला = सक्ता। हिरै = चुरा लेता है, ले जाता है।

अर्थ: हे नानक! (जीव के) माथे पर (जो कुछ करतार द्वारा) लिखा गया है, उसे कोई मिटा नहीं सकता। (जीव के अंदर) वही सक्ता डालता है, और वही छीन लेता है। (हे प्रभू!जीवों को सक्ता देने वाला और छीनने वाला) एक तू ही है, एक तू ही है।7।

पउड़ी ॥ सचा तेरा हुकमु गुरमुखि जाणिआ ॥ गुरमती आपु गवाइ सचु पछाणिआ ॥ सचु तेरा दरबारु सबदु नीसाणिआ ॥ सचा सबदु वीचारि सचि समाणिआ ॥ मनमुख सदा कूड़िआर भरमि भुलाणिआ ॥ विसटा अंदरि वासु सादु न जाणिआ ॥ विणु नावै दुखु पाइ आवण जाणिआ ॥ नानक पारखु आपि जिनि खोटा खरा पछाणिआ ॥१३॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपि = खुद ही (शब्द ‘आपु’ और ‘आपि’ का फर्क समझनेयोग्य है)। नीसाणिआ = नीसाण, राहदारी, परवाना। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी (जैसे सोनार, लोहार)।

अर्थ: (हे प्रभू!) तेरा हुकम सदा स्थिर रहने वाला है। गुरू के सन्मुख होने से इसकी समझ पड़ती है। जिसने गुरू की मति ले के स्वैभाव दूर कर लिया है, उसने तुझे सदा कायम रहने वाले को पहिचान लिया है। हे प्रभू! तेरा दरबार सदा स्थिर है (इस तक पहुँचने के लिए गुरू का) शबद राहदारी है। जिन्होंने सच्चे शबद को विचारा है वे सच में लीन हो जाते हैं।

(पर) मन के पीछे चलने वाले झूठ (ही) फैलाते हैं, भटकना में भटके रहते हैं। उनका वासा गंदगी में ही रहता है। (शबद का) आनंद वह नहीं समझसके; परमात्मा के नाम के बिना दुख पा के जनम मरण (के चक्र में पड़े रहते हैं)।

हे नानक! परखने वाला प्रभू खुद ही है, जिस ने खोटे खरे को पहिचाना है (भाव, प्रभू स्वयं ही जानता है कि खोटा कौन है और खरा कौन है)।13।

सलोकु मः १ ॥ सीहा बाजा चरगा कुहीआ एना खवाले घाह ॥ घाहु खानि तिना मासु खवाले एहि चलाए राह ॥ नदीआ विचि टिबे देखाले थली करे असगाह ॥ कीड़ा थापि देइ पातिसाही लसकर करे सुआह ॥ जेते जीअ जीवहि लै साहा जीवाले ता कि असाह ॥ नानक जिउ जिउ सचे भावै तिउ तिउ देइ गिराह ॥१॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: असगाह = गहरे पानी। गिराह = ग्राह, रोटी। किअ साह = क्या सांस? श्वास की क्या जरूरत? शब्द ‘किआ’ की जगह ‘कि’ बरता गया है। इस ‘वार’ में शब्द ‘किआ’ बहुत बार आया है; जैसे ‘किआ मैदा...’, ‘मछी तारू किआ करे’, इस शब्द ‘कि’ और ‘किआ’ का भाव मिलता है। पर शब्द ‘कि’ को तथा ‘असाह’ को अलग करके ‘कि’ का अर्थ ‘क्या आश्चर्य’, ‘क्या बड़ी बात’ करना अशुद्ध है। ‘गुरबाणी’ में और जगह भी ऐसा प्रमाण मिलना चाहिए। सो, पद छेद ‘किअ+साह’ चाहिए।

अर्थ: इन शेरों, बाजों, चरगों, कुहियों (आदि मासाहारियों को अगर चाहे तो) घास खिला देता है (अर्थात उनके माँस खाने की बृति तबदील कर देता है)। जो घास खाते हैं उन्हे मास खिला देता है– सो प्रभू ऐसे राह चला देता है। (प्रभू) बहती नदियों में टिब्वे दिखा देता है, रेतीली जगहों में गहरे पानी बना देता है। कीड़े को बादशाही (तख्त) के ऊपर स्थापित कर देता है (बैठा देता है), (और बादशाहों के) लश्करों को राख कर देता है। जितने भी जीव (जगत में) जीवित हैं, साँस ले के जीवत है (अर्थात तब तक जीवित हैं जब तक साँस लेते हैं, पर अगर प्रभू) जीवित रखना चाहे, तो ‘श्वासों’ की भी क्या मुथाजगी?

हे नानक! जैसे जैसे प्रभू की रजा है, वैसे वैसे (जीवों) को रोजी देता है।1।

मः १ ॥ इकि मासहारी इकि त्रिणु खाहि ॥ इकना छतीह अम्रित पाहि ॥ इकि मिटीआ महि मिटीआ खाहि ॥ इकि पउण सुमारी पउण सुमारि ॥ इकि निरंकारी नाम आधारि ॥ जीवै दाता मरै न कोइ ॥ नानक मुठे जाहि नाही मनि सोइ ॥२॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: पाहि = मिलते हैं। पउण = हवा, श्वास। पउण सुमारी = श्वासों को गिनने वाले, प्राणयाम करने वाले। पउण सुमारि = साँसों के गिनने में, प्राणयाम में। आधारि = आसरे में। जीवै = जीता है (भाव, रखवाला, रक्षक)। मुठे जाहि = ठॅगे जाते हैं। कोइ = जो कोई, जो मनुष्य।

अर्थ: कई जीव माँस खाने वाले हैं, कई घास खाने वाले है। कई प्राणियों को कई किस्मों के स्वादिष्ट भोजन मिलते हैं, और कई मिट्टी में (रह कर) मिट्टी खाते हैं।

कई प्रणायाम के अभ्यासी प्रणायाम में लगे रहते हैं। कई निरंकार के उपासक (उसके) नाम के आसरे जीते हैं।

जो मनुष्य (ये मानता है कि) सिर पे दाता रक्षक है वह (प्रभू को विसार के आत्मिक मौत) नहीं मरता। हे नानक! वे जीव ठगे जाते हैं, जिनके मन में वह प्रभू नहीं है।2।

पउड़ी ॥ पूरे गुर की कार करमि कमाईऐ ॥ गुरमती आपु गवाइ नामु धिआईऐ ॥ दूजी कारै लगि जनमु गवाईऐ ॥ विणु नावै सभ विसु पैझै खाईऐ ॥ सचा सबदु सालाहि सचि समाईऐ ॥ विणु सतिगुरु सेवे नाही सुखि निवासु फिरि फिरि आईऐ ॥ दुनीआ खोटी रासि कूड़ु कमाईऐ ॥ नानक सचु खरा सालाहि पति सिउ जाईऐ ॥१४॥ {पन्ना 144}

पद्अर्थ: करमि = मेहर से। विसु = जहर। पैझै खाईअै = जो कुछ पहनते और खाते हैं। सुखि = सुख में। रासि = पूँजी।

अर्थ: पूरे सतिगुरू की बताए हुए कर्म भी (प्रभू की) मेहर से ही किए जा सकते हैं। गुरू की मति से स्वै भाव गवा के प्रभू का नाम सिमरा जा सकता है। (प्रभू की बंदगी बिसार के) और कामों में व्यस्त रहने से मानस जनम व्यर्थ जाता है, (क्यूँकि) नाम को बिसार के जो कुछ भी पहनते खाते हैं, वह (आत्मिक जीवन के वास्ते) ज़हर (समान) हो जाता है।

सतिगुरू का सच्चा शबद गाने से सच्चे प्रभू में जुड़ते हैं। गुरू की बताई कार करे बिना सुख में (मन का) टिकाव नहीं हो सकता, मुड़ मुड़ जनम (मरण) में आते जाते हैं। दुनिया (का प्यार) खोटी पूँजी है, ये कमायी झूठ (का व्यापार है)।

हे नानक! सिर्फ सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करके (यहां से) आदर से जाते हैं।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh