श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 145 सलोकु मः १ ॥ तुधु भावै ता वावहि गावहि तुधु भावै जलि नावहि ॥ जा तुधु भावहि ता करहि बिभूता सिंङी नादु वजावहि ॥ जा तुधु भावै ता पड़हि कतेबा मुला सेख कहावहि ॥ जा तुधु भावै ता होवहि राजे रस कस बहुतु कमावहि ॥ जा तुधु भावै तेग वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि ॥ जा तुधु भावै जाहि दिसंतरि सुणि गला घरि आवहि ॥ जा तुधु भावै नाइ रचावहि तुधु भाणे तूं भावहि ॥ नानकु एक कहै बेनंती होरि सगले कूड़ु कमावहि ॥१॥ {पन्ना 145} पद्अर्थ: तुधु भावै = अगर तेरी रजा हो। वावहि = (साज) बजाते हैं। जलि = पानी में। बिभूता = राख। रस कस = कई किस्म के स्वादिष्ट भोजन। मुंडी = गर्दन। दिसंतरि = अन्य देशों में। सुणि = सुन के। नाइ = नाम में। तुधु भाणे = जो तेरी रजा मतें है। तूं = तूझे। भावहि = प्यारे लगते हैं। अर्थ: जब तेरी रजा होती है (भाव, ये तेरी रजा है कि कई जीव साज) बजाते हैं और गाते हैं। (तीर्थों के) जल में स्नन करते हैं। कई (शरीर पर) राख मलते हैं और कई सिंञी का नाद बजाते हैं। कई जीव कुरान आदि धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं और अपने आप को मुल्ला व शेख कहलवाते हैं। कोई राजे बन जाते हैं तो कई स्वादिष्ट भोजन बाँटते हैं। कोई तलवार चलाते हैं और गर्दन से सिर अलग हो जाते हैं। कोई परदेस जाते हैं (वहाँ की) बातें सुन के (मुड़ अपने) घर आते हैं। (हे प्रभू! ये भी तेरी रजा ही है कि कई जीव) तेरे नाम में जुड़ते हैं। जो तेरी रजा में चलते हैं वे तुझे प्यारे लगते हैं। नानक एक अर्ज करता है (कि रजा में चले बिना) और सारे (जिनका ऊपर जिक्र किया है) झूठ कमा रहे हैं (अर्थात वह सौदा करते हैं जो व्यर्थ जाता है)।1। मः १ ॥ जा तूं वडा सभि वडिआंईआ चंगै चंगा होई ॥ जा तूं सचा ता सभु को सचा कूड़ा कोइ न कोई ॥ आखणु वेखणु बोलणु चलणु जीवणु मरणा धातु ॥ हुकमु साजि हुकमै विचि रखै नानक सचा आपि ॥२॥ {पन्ना 145} पद्अर्थ: धातु = माया। जा = जब। अर्थ: जब (ये बात ठीक है कि) तू बड़ा (प्रभू जगत का करतार है, तो जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा ही बडप्पन है। (क्योंकि) अच्छे से अच्छाईआं ही उत्पन्न होतीं हैं। (जब ये यकीन बन जाए कि) तू ही सच्चा प्रभू सृजनहार है (तो) हरेक जीव सच्चा (दिखता है क्योंकि हरेक जीव में तू स्वयं मौजूद है तो फिर इस जगत में) कोई झूठा नहीं हो सकता। (जो कुछ बाहर दिखावे मात्र दिखाई दे रहा है ये) कहना देखना, ये बोल-चाल, ये जीना व मरना (ये सब कुछ) माया-रूप है। (असलियत नहीं है, असलियत तो प्रभू स्वयं ही है)। हे नानक! वह सदा कायम रहने वाला प्रभू (अपनी) हुकम (रूपी सत्ता) रच के सब जीवों को उस हुकम में चला रहा है। पउड़ी ॥ सतिगुरु सेवि निसंगु भरमु चुकाईऐ ॥ सतिगुरु आखै कार सु कार कमाईऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त नामु धिआईऐ ॥ लाहा भगति सु सारु गुरमुखि पाईऐ ॥ मनमुखि कूड़ु गुबारु कूड़ु कमाईऐ ॥ सचे दै दरि जाइ सचु चवांईऐ ॥ सचै अंदरि महलि सचि बुलाईऐ ॥ नानक सचु सदा सचिआरु सचि समाईऐ ॥१५॥ {पन्ना 145} पद्अर्थ: निसंगु = शर्म उतार के, सच्चे दिल से। सारु = श्रेष्ठ। लाहा = लाभ, नफा। चवांईअै = बोलें। सचि = सच्चे के द्वारा। सचिआरु = सॅच के व्यापारी। अर्थ: अगर सच्चे दिल से गुरू का हुकम मानें, तो भटकना दूर हो जाती है। वही काम करना चाहिए, जो गुरू करने के लिए कहे। अगर सतिगुरू मेहर करे, तो प्रभू का नाम सिमरा जा सकता है। गुरू के सन्मुख होने से प्रभू का बंदगी-रूप सबसे बढ़िया लाभ मिलता है। पर मन के पीछे चलने वाला मनुष्य निरा झूठ निरा अंधकार ही कमाता है। अगर सच्चे प्रभू के चरणों में जुड़ के सच्चे का नाम जपें, तो इस सच्चे नाम के द्वारा सच्चे प्रभू की हजूरी में जगह मिलती है। हे नानक! (जिसके पल्ले) सदा सत्य है वह सच का व्यापारी है वह सच में लीन रहता है।15। सलोकु मः १ ॥ कलि काती राजे कासाई धरमु पंख करि उडरिआ ॥ कूड़ु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चड़िआ ॥ हउ भालि विकुंनी होई ॥ आधेरै राहु न कोई ॥ विचि हउमै करि दुखु रोई ॥ कहु नानक किनि बिधि गति होई ॥१॥ {पन्ना 145} पद्अर्थ: कलि = कलियुगी स्वभाव। काती = छुरी। कासाई = कसाई, जालिम। पंख = पर। अमावस = अंधेरी रात। कह = कहां? हउ = मैं। विकुंनी = व्याकुल। दुखु रोई = दुख रो रही है। किनि बिधि = किस तरह? गति = मुक्ति, खलासी। अर्थ: ये घोर कलियुगी स्वाभाव (मानों) छुरी है (जिसके कारण) राजे जालिम हो रहे हैं (इस वास्ते) धर्म पंख लगा के उड़ गया है। झूठ (मानो) अमावस की रात है, (इसमें) सत्य रूपी चंद्रमा कहीं भी चढ़ा दिखाई नहीं देता। मैं इस चंद्रमा को ढूँढ-ढूँढ के व्याकुल हो गई हूँ, अंधेरे में कोई रास्ता दिखता नहीं। (इस अंधेरे) में (सृष्टि) अहंकार के कारण दुखी हो रही है। हे नानक! कैसे इससे मुक्ति हो?।1। मः ३ ॥ कलि कीरति परगटु चानणु संसारि ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥ जिस नो नदरि करे तिसु देवै ॥ नानक गुरमुखि रतनु सो लेवै ॥२॥ {पन्ना 145} पद्अर्थ: संसारि = संसार में। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है। अर्थ: इस कलयुगी स्वभाव (-रूपी अंधकार को दूर करने) के लिए (प्रभू की) सिफत सालाह (स्मर्थ) है। (ये सिफत सालाह) जगत में प्रचण्ड प्रकाश है, (पर) कोई (विरला) जो गुरू के सन्मुख होता है (इस प्रकाश का आसरा ले कर इस अंधेरे में से) पार लांघ जाता है। हे नानक! प्रभू जिस पर मेहर की नजर करता है, उसको (ये कीर्ति रूप प्रकाश) देता है। वह मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के (नाम-रूप) रत्न ढूँढ लेता है।2। नोट: पहला श्लोक गुरू नानक देव जी का है। जिस में उन्होंने सिर्फ सवाल उठाया है कि इस कलियुगी स्वभाव में से जीव की मुक्ति कैसे हो। दूसरे श्लोक में गुरू अमरदास जी ने उक्तर दिया है कि प्रभू की उस्तति, सिफत सालाह ही इससे बचाती है। सो, ये श्लोक उचारने वाले गुरू अमरदास जी के पास गुरू नानक देव जी का उपरोक्त श्लोक मौजूद था। ये बात अनहोनी सी है, कि अकेला यही श्लोक गुरू अमरदास जी को कहीं से बा–सबब् मिल गया होगा। दरअसल बात ये है कि गुरू नानक देव जी ने अपनी सारी बाणी अपने हाथों लिखी और संभाली हुई गुरू अंगद देव जी को दी। और उन्होंने गुरू अमरदास जी को। (देखें मेरी पुस्तक ‘गुरबाणी और इतिहास बारे’)। पउड़ी ॥ भगता तै सैसारीआ जोड़ु कदे न आइआ ॥ करता आपि अभुलु है न भुलै किसै दा भुलाइआ ॥ भगत आपे मेलिअनु जिनी सचो सचु कमाइआ ॥ सैसारी आपि खुआइअनु जिनी कूड़ु बोलि बोलि बिखु खाइआ ॥ चलण सार न जाणनी कामु करोधु विसु वधाइआ ॥ भगत करनि हरि चाकरी जिनी अनदिनु नामु धिआइआ ॥ दासनि दास होइ कै जिनी विचहु आपु गवाइआ ॥ ओना खसमै कै दरि मुख उजले सचै सबदि सुहाइआ ॥१६॥ {पन्ना 145} पद्अर्थ: मेलिअनु = मेले हैं उस (प्रभू) ने। खुआइअनु = गवाए हैं उसने। बिखु = जहर। सार = समझ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। दासनिदास = दासों के दास। सुहाइआ = सुंदर लगते हैं। अर्थ: (जगत में ये रोज देख रहे हैं कि) भगतों और दुनियादारों का जोड़ नहीं बनता। (पर, जगत-रचना में प्रभू की तरफ से ये कोई कमी नहीं है)। करतार खुद तो कमी छोड़ने वाला नहीं है, और किसी के भुलेखा डालने पर (भी) भुलेखा खाता नहीं (ये उसकी रजा है कि) उसने खुद ही भक्तों को (अपने चरणों से) जोड़ा हुआ है। वे पूर्णतया बंदगी रूपी कार्र-व्यवहार करते हैं। दुनियादारों को भी उसने खुद ही तोड़ा हुआ है। वह झूठ बोल बोल के (आत्मिक मौत का मूल) विष खा रहे हैं। उनको ये समझ ही नहीं आई कि यहां से चले भी जाना है। सो, वह काम-क्रोध रूपी जहर (जगत में) बढ़ा रहे हैं। (उसकी अपनी रजा में) भगत उस प्रभू की बंदगी कर रहे हैं, वह हर वक्त नाम सिमर रहे हैं। जिन मनुष्यों ने प्रभू के सेवकों का सेवक बन के अपने अंदर से अहंकार को दूर किया है, प्रभू के दर पे उनके मुंह उजले होते हैं। सच्चे शबद के कारण वे प्रभू दर पर शोभा पाते हैं।16। सलोकु मः १ ॥ सबाही सालाह जिनी धिआइआ इक मनि ॥ सेई पूरे साह वखतै उपरि लड़ि मुए ॥ दूजै बहुते राह मन कीआ मती खिंडीआ ॥ बहुतु पए असगाह गोते खाहि न निकलहि ॥ तीजै मुही गिराह भुख तिखा दुइ भउकीआ ॥ खाधा होइ सुआह भी खाणे सिउ दोसती ॥ चउथै आई ऊंघ अखी मीटि पवारि गइआ ॥ भी उठि रचिओनु वादु सै वर्हिआ की पिड़ बधी ॥ सभे वेला वखत सभि जे अठी भउ होइ ॥ नानक साहिबु मनि वसै सचा नावणु होइ ॥१॥ {पन्ना 145-146} पद्अर्थ: सबाही = सुबह के समय, अंमृत बेला। इक मनि = एक मन हो के। दूजै = दूसरे पहर (दिन चढ़े)। असगाह = जगत के झमेले (-रूपी) अथाह समुंद्र। तीजे = तीसरे पहर। मुहि = मुंह में। गिराह = ग्रास, रोटी। भउकीआ = चमकियां। ऊँघ = ऊँघना, नींद। पवारि = परलोक में (भाव,) गहरी नींद में। (ये आम प्रचलित है कि कई बार किसी मनुष्य के प्राण यम भुलेखे से ले जाते हैं और फिर मोड़ जाते हैं। इतना समय उस मनुष्य को ‘पवारि गिआ’ कहा जाता है)। वादु = झगड़ा। पिड़ = अखाड़ा। अर्थ: जो मनुष्य सुबह ही प्रभू की सिफत सालाह करते हैं, एक मन हो के प्रभू को सिमरते हैं। समय सिर (भाव, अमृत बेला में) मन से युद्ध करते हैं (भाव, आलस में से निकल के बंदगी का उद्यम करते हैं), वही पूरे शाह हैं। दिन चढ़े मन की वासनाएं बिखर जाती हैं। मन कई रास्तों से दौड़ता है। मनुष्य दुनिया के धंधों के गहरे समुंद्र में पड़ जाता है। यहां ही इतने गोते खाता है (भाव, फंसता है) कि निकल नहीं सकता। तीसरे पहर भूख और प्यास दोनों चमक पड़ती हैं। रोटी खाने में (जीव) लग जाते हैं। (जब) जो कुछ खया होता है भस्म हो जाता है, तो और खाने की तमन्ना पैदा होती है। चौथे पहर नींद आ दबोचती है। आँखें बंद करके गहरी नींद के आगोश में सो जाता है। नींद से उठता है फिर वही जगत का झमेला। जैसे, मनुष्य ने (यहां) सैकड़ों साल जीने का कुश्ती मैदान बनाया हुआ है। (सो, अमृत बेला ही सिमरने के लिए जरूरी है, पर) जब (अमृत बेला के अभ्यास से) आठों पहर परमात्मा का डर-अदब (मन में) टिक जाए तो सारे बेला-वक्तों में (मन प्रभू चरणों में जुड़ सकता है)। (इस तरह) हे नानक! (अगर आठों पहर) मालिक मन में बसा रहे, तो सदा टिके रहने वाला (आत्मिक) स्नान प्राप्त होता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |