श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 147 सलोकु मः १ ॥ पहिरा अगनि हिवै घरु बाधा भोजनु सारु कराई ॥ सगले दूख पाणी करि पीवा धरती हाक चलाई ॥ धरि ताराजी अ्मबरु तोली पिछै टंकु चड़ाई ॥ एवडु वधा मावा नाही सभसै नथि चलाई ॥ एता ताणु होवै मन अंदरि करी भि आखि कराई ॥ जेवडु साहिबु तेवड दाती दे दे करे रजाई ॥ नानक नदरि करे जिसु उपरि सचि नामि वडिआई ॥१॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: हिवै = हिम, बर्फ में। बाधा = बाँधू, बाँध लूं, बना लूँ। सारु = लोहा। पाणी = करि = पानी करके, पानी की तरह, (भाव) बड़े आसान ढंग से। हाक = आवाज (भाव, हुकम)। (शब्द ‘हाक’ का अर्थ ‘हिक के’ करना गलत है, इसके लिए शब्द ‘हाकि’ होना चाहिए, जैसे,‘करि’ का अर्थ हुआ ‘कर के’, ‘नथि’ बना नाथ के’ तथा ‘आखि’ हुआ ‘कह के’)। ताराजी = तराजू। अंबरु = आकाश। टंकु = चार मासे का तोल। मावा = समा सकूँ। रजाई = रजा का मालिक प्रभू। दे दे करे = दातें दे दे के और दातें दे। अर्थ: अगर मैं आग (भी) पहन लूँ, (या) बर्फ में घर बनां लूँ (अर्थात, अगर मेरे मन में इतनी ताकत आ जाए कि मैं आग में और बरफ में बैठ सकूँ) लोहे को भोजन बना लूँ (लोहा खा सकूँ)। अगर मैं सारे ही दुख बड़ी ही आसानी से उठा सकूँ, सारी धरती को अपने हुकम में चला सकूँ। अगर मैं सारे आसमान को तराजू पे रखके और दूसरे छाबे में चार मासे का बाँट रख के तोल सकूँ। अगर मैं अपने शरीर को इतना बढ़ा सकूँ कि कहीं समा ही न सकूँ। सारे जीवों को नाथ डाल के चलाऊँ (भाव अपने हुकम में चलाऊँ)। अगर मेरे मन में इतना बल आ जाए कि जो चाहे करूँ व कह के औरों से करवाऊँ (तो भी ये सब कुछ तुच्छ है)। पति प्रभू जितना बड़ा खुद है उतनी ही बड़ी उसकी बख्शिशें हैं। अगर रजा का मालिक सांई और भी बेअंत (ताकतों की) दातें मुझे दे दे, (ता भी ये तुच्छ हैं)। (असल बात) हे नानक! (ये है कि वह) जिस बंदे पर मेहर की नजर करता है, उसे (अपने) उच्चे नाम के द्वारा मान सम्मान बख्शता है (भाव, इन मानसिक ताकतों से बढ़ करनाम की बरकति है)।1। मः २ ॥ आखणु आखि न रजिआ सुनणि न रजे कंन ॥ अखी देखि न रजीआ गुण गाहक इक वंन ॥ भुखिआ भुख न उतरै गली भुख न जाइ ॥ नानक भुखा ता रजै जा गुण कहि गुणी समाइ ॥२॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: आखणु = मुंह। इक वंन = एक रंग के, एक एक किस्म के। गुणी = गुणों के मालिक प्रभू में। भुखिआ = भूख की हालत में। गली = बाते करने से (भाव) समझाने से। अर्थ: मुंह बोल बोल के तृप्त नहीं होता (भाव, बातें करने का चस्का खत्म नहीं होता)। कान (बातें) सुनने से नहीं तृप्त होते। आँखें (रंग-रूप) देख-देख के तृप्त नहीं होती। (ये सारी इंद्रयां) एक एक किस्म के गुणों के गाहक हैं (अपने अपने रसों की गाहकी में तृप्त नहीं होते। रसों के अधीन हुई इन इंद्रियों का चस्का नहीं हटता)। समझाने से भी भूख मिट नहीं सकती। हे नानक! तृष्णा का मारा हुआ मनुष्य तभी तृप्त हो सकता है, अगर गुणों के मालिक परमात्मा के गुण उचार के उस में लीन हो जाए।2। पउड़ी ॥ विणु सचे सभु कूड़ु कूड़ु कमाईऐ ॥ विणु सचे कूड़िआरु बंनि चलाईऐ ॥ विणु सचे तनु छारु छारु रलाईऐ ॥ विणु सचे सभ भुख जि पैझै खाईऐ ॥ विणु सचे दरबारु कूड़ि न पाईऐ ॥ कूड़ै लालचि लगि महलु खुआईऐ ॥ सभु जगु ठगिओ ठगि आईऐ जाईऐ ॥ तन महि त्रिसना अगि सबदि बुझाईऐ ॥१९॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: विणु सचे = सदा स्थिर रहने वाले के बिना, अगर प्रभू को विसार दें, प्रभू को बिसारने से। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। बंनि = बाँध के, जकड़ के। छारु = मिट्टी, राख। छारु रलाईअै = मिट्टी में मिल जाता है। (पंजाबी में शब्द ‘छारु’ में सदा ‘ु’ लगती है। अधिकरण आदि कारकों में भी यही रूप रहता है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। महलु = प्रभू के रहने की जगह। खुआईअै = गवा लेता है। ठगि = ठॅग ने, झूठ रूपी ठॅग ने। अगि = आग ने (इस शब्द का जोड़ सदा ‘ि’से खत्म होता है)। अर्थ: अगर प्रभू का नाम बिसार दें, तो बाकी सब कुछ झूठ ही कमाते हैं। (इस झूठ में मन इतना खचित हो जाता है कि) नाम से टूटे हुए झूठ के व्यापारी को माया के बंधन जकड़ के भटकाते फिरते हैं। (इसका) यह नकारा शरीर मिट्टी में ही मिल जाता है (भाव, ऐसे ही व्यर्थ चला जाता है), जो कुछ खाता पहनता है वह बल्कि और तृष्णा को बढ़ाता है। प्रभू का नाम बिसार के झूठ में लगने से प्रभू का दरबार प्राप्त नहीं होता। झूठे लालच में फंस के प्रभू का दर गवा लेते हैं (और इस करके ये जगत) जनम मरण के चक्कर में पड़ा हुआ है। (मनुष्य के) शरीर में ये (जो) तृष्णा की आग है, ये केवल गुरू के शबद द्वारा ही बुझ सकती है।19। सलोक मः १ ॥ नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु ॥ रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि धिआनि ॥ पति के साद खादा लहै दाना कै सिरि दानु ॥१॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: गुरु संतोख = संतोष स्वरूप गुरू। रसि = (प्रेम रूप) रस से। रसिआ = पूरन तौर पे भरा हुआ। पकै = पकता है, (ज्ञान फल) पकता है। करमि = (प्रभू की) बख्शिश से। धिआनि = ध्यान से, ध्यान जोड़ने से। खादा = खाने वाला, ज्ञान फल खाने वाला। पति के साद लहै = (प्रभू) पति के (मेल का) आनंद लेते हैं। लहै = लेता है। दाना कै सिरि = दान सब से श्रेष्ठ बख्शिश। अर्थ: हे नानक! (पूर्ण) संतोष (-स्वरूप) गुरू ( मानो एक) वृक्ष है (जिसे) धर्म (रूपी) फल (लगता) है और ज्ञान (रूपी) फल लगता है। प्रेम जल से रसा हुआ (ये वृक्ष) सदैव हरा रहता है। (परमात्मा की) बख्शिश से (प्रभू चरणों में) ध्यान जोड़ने से यह (ज्ञान फल) पकता है (भाव, जो मनुष्य प्रभू की मेहर से प्रभू चरणों में सुरति जोड़ता है उसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है)। (इस ज्ञान फल को) खाने वाला मनुष्य प्रभू-मिलन का आनंद पाता है, (मनुष्य के लिए प्रभू दर से) ये सबसे बड़ी बख्शिश है।1। मः १ ॥ सुइने का बिरखु पत परवाला फुल जवेहर लाल ॥ तितु फल रतन लगहि मुखि भाखित हिरदै रिदै निहालु ॥ नानक करमु होवै मुखि मसतकि लिखिआ होवै लेखु ॥ अठिसठि तीरथ गुर की चरणी पूजै सदा विसेखु ॥ हंसु हेतु लोभु कोपु चारे नदीआ अगि ॥ पवहि दझहि नानका तरीऐ करमी लगि ॥२॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: बिरखु = वृक्ष। पत = पत्र, पत्ते। परवाला = मूंगा (गुरू के बचन)। तितु = उस (गुरू रूपी) वृक्ष को। मुखि भाखित = मुंह से उचारे हुए बचन। निहालु = प्रसन्न। करमु = बख्शिश। मुखि = मुंह पे। अठसठि = अढ़सठ। विसेख = विशेष, बढ़िया। हंसु = र्निदयता। हेतु = मोह। कोप = गुस्सा। दझहि = जलते हैं। करमी = बख्शिश द्वारा। लगि = (चरणों से) लग के। अर्थ: (गुरू मानो) सोने का वृक्ष है, मोंगा (श्रेष्ठ वचन) उसके पत्ते हैं। उस (गुरू) वृक्ष को, मुंह से उचारे हुए (श्रेष्ठ वचन रूपी) फल लगते हैं। (गुरू) अपने हृदय में सदा खिला रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर हो, जिसके मुंह माथे पे भाग्य हों, वह गुरू के चरणों में लग के (गुरू के चरणों को) अढ़सठ तीर्थों से भी विशेष जान के (गुरू चरणों को) पूजता है। र्निदयता, मोह, लोभ और क्रोध - ये चारों आग की नदियां (जगत में चल रही) हैं। जो जो मनुष्य इन नदियों में घुसते हैं जल जाते हैं। हे नानक! प्रभू की मेहर से (गुरू के चरण) लग के (इन नदियों से) पार लांघना होता है।2। पउड़ी ॥ जीवदिआ मरु मारि न पछोताईऐ ॥ झूठा इहु संसारु किनि समझाईऐ ॥ सचि न धरे पिआरु धंधै धाईऐ ॥ कालु बुरा खै कालु सिरि दुनीआईऐ ॥ हुकमी सिरि जंदारु मारे दाईऐ ॥ आपे देइ पिआरु मंनि वसाईऐ ॥ मुहतु न चसा विलमु भरीऐ पाईऐ ॥ गुर परसादी बुझि सचि समाईऐ ॥२०॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: मारि = मार के, (तृष्णा को) मार के । (नोट: इसी तृष्णा का जिक्र पउड़ी नं:18 और 19 में है)। किनि = किस ने? किसी विरले ने। धाईअै = भागता है, भटकता है। बुरा = खराब। खै = क्षै, नाश करने वाला। जंदारु = (फारसी: जंदाल, गवार, अवैड़ा। ये शब्द आम तौर पर शब्द ‘जम’ के साथ बरता जाने करके अकेला भी ‘जम’ के अर्थों में इस्तेमाल होता है) जम, यम। दाईअै = दांव लगा के। मंनि = मन में। मुहतु = महूरत, पल मात्र। चसा = निमख मात्र। विलंमु = ढील। भरीअै पाईअै = जब पाई भर जाती है। पाई = चार टोपे का नाप, (भाव) जीव को मिले हुए सारे श्वासों का अंदाजा। अर्थ: (हे बंदे) (इस तृष्णा को) मार के जीवित ही मर (ता कि अंत को) पछताना ना पड़े। किसी बिरले को समझ आई है, कि ये संसार झूठा है, (आम तौर पर जीव तृष्णा के अधीन हो के) जगत के धंघे में भटकता फिरता है और सत्य के साथ प्यार नहीं डालता, (ये बात याद नहीं रखता कि) बुरा काल, नाश करने वाला काल दुनिया के सिर पे (हर वक्त खड़ा) है। ये जम प्रभू के हुकम में (हरेक के) सिर पे (मौजूद) है और दाव लगा के मारता है। (जीव के भी क्या बस?) प्रभू खुद ही अपना प्यार बख्शता है (और जीव के) मन में (अपना आप) बसाता है। जब श्वास पूरे हो जाते हैं, पलक मात्र भी यहां ढील नहीं दी जा सकती। (ये बात) सत्गुरू की मेहर से (कोई विरला ही) समझ के सत्य से जुड़ता है।20। सलोकु मः १ ॥ तुमी तुमा विसु अकु धतूरा निमु फलु ॥ मनि मुखि वसहि तिसु जिसु तूं चिति न आवही ॥ नानक कहीऐ किसु हंढनि करमा बाहरे ॥१॥ {पन्ना 147} पद्अर्थ: तिसु = उस मनुष्य के। चिति = चिक्त। हंडनि = भटकते हैं। करमा बाहरे = कर्मों से हीन। अर्थ: (हे प्रभू!) जिस मनुष्य के चिक्त में तू नहीं बसता, उसके मन में और मुंह में तुमी तुंमा, जहिर, अॅक, धतूरा तथा नीम रूप फल बस रहे हैं (भाव, उसके मन में भी कड़वाहट है और मुंह से भी कड़वे वचन बोलता है)। हे नानक! ऐसे बदनसीब लोग भटकते फिरते हैं, (प्रभू के बिना और) किस के आगे (इनकी व्यथा) बताएं? (भाव, प्रभू खुद ही इनका यह रोग दूर करने वाला है)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |