श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 154

गउड़ी महला १ ॥ किरतु पइआ नह मेटै कोइ ॥ किआ जाणा किआ आगै होइ ॥ जो तिसु भाणा सोई हूआ ॥ अवरु न करणै वाला दूआ ॥१॥ ना जाणा करम केवड तेरी दाति ॥ करमु धरमु तेरे नाम की जाति ॥१॥ रहाउ ॥ तू एवडु दाता देवणहारु ॥ तोटि नाही तुधु भगति भंडार ॥ कीआ गरबु न आवै रासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥२॥ तू मारि जीवालहि बखसि मिलाइ ॥ जिउ भावी तिउ नामु जपाइ ॥ तूं दाना बीना साचा सिरि मेरै ॥ गुरमति देइ भरोसै तेरै ॥३॥ तन महि मैलु नाही मनु राता ॥ गुर बचनी सचु सबदि पछाता ॥ तेरा ताणु नाम की वडिआई ॥ नानक रहणा भगति सरणाई ॥४॥१०॥ {पन्ना 154}

पद्अर्थ: किरतु = किया हुआ काम, जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों के समूह। पइआ = जो मन में इकट्ठा हुआ पड़ा है। किआ जाणा = मैं क्या समझ सकता हूँ? (कोई नहीं समझ सकता)। आगै = आने वाले जीवन काल में। किआ होइ = क्या होगा?1।

ना जाणा करम = मैं अपने (पिछले किए) कर्म नहीं समझ सकता (कर्मों की सही कीमत नही पा सकता, मैं किए कर्मों को ज्यादा महत्वता दे रहा हूँ)। ना जाणा केवड तेरी दाति = हे प्रभू! तेरी कितनी ही बेअंत दातें मुझे मिल रही हैं, उनको मैं नहीं समझ सकता।1। रहाउ।

ऐवडु = इतना बड़ा। भंडार = खजाने। न आवै रासि = रास नहीं आता, फबता नहीं, कुछ सवार नहीं सकता। पिंडु = शरीर। तेरै पासि = तेरे हवाले, तेरे आसरे।2।

मरि = मेरा स्वैभाव मार के। जीवालहि = तू आत्मिक जीवन देता है। बखशि = बख्श के, मेहर करके। मिलाइ = (अपने चरणों में) जोड़ के। जिउ भावी = जैसे तूझे ठीक लगता है। जपाइ = जपा के। दाना = (मेरे दिल की) जानने वाला। बीना = (मेरे कामों को) देखने वाला। सियति = सिर पर। देइ = दे के।3।

श्राता = रंगा हुआ। सबदि = गुरू के शबद में (जुड़ के)। ताणु = ताकत, आसरा।4।

अर्थ: मैं अपने किए कर्मों की ठीक कीमत नहीं जानता (मैं इन्हें बहुत महत्व देता हूँ), (दूसरी तरफ, हे प्रभू!) तेरी बेअंत दातें मुझे मिल रहीं हैं, उन्हें भी मैं नहीं समझ सकता (ये ख्याल मेरी भारी भूल है कि मेरे किए कर्मों के अनुसार मुझे मिल रहा है– ये तो पूरी तरह से तेरी मेहर है मेहर)। तेरा नाम ही मेरी जात है, तेरा नाम ही मेरा कर्म-धर्म है (मुझे तेरे नाम की ही ओट है। ना मान है किसी किए कर्म-धर्म का, ना किसी ऊँची जाति का)।1। रहाउ।

जन्मों-जन्मांतरों के किए संस्कारों के समूह जो मन में इकट्ठे हुए पड़े हैं (कर्मों के द्वारा) कोई मनुष्य मिटा नहीं सकता। (इसी तरह आगे के लिए भी कर्म-धर्म के अच्छे नतीजों की आस व्यर्थ है) कोई समझ नहीं सकता कि आने वाले जीवनकाल में क्या घटित होगा। (कर्मों का आसरा छोड़ो, प्रभू की रजा में चलना सीखो) जगत में जो कुछ हो रहा है परमात्मा की रजा में हो रहा है। प्रभू के बिना और कोई कुछ करने वाला नहीं है (उसी की भक्ति करो)।1।

हे प्रभू! तू दातें देने वाला इतना बड़ा दाता है (भक्ति की दात भी तू स्वयं ही देता है) तेरे खजानों में भक्ति (की दात) की कोई कमी नहीं है, (अपने किसी अच्छे आचरण के बारे में मनुष्य का) किया हुआ अहंकार कुछ सवार नहीं सकता। मनुष्य की जीवात्मा और शरीर सब कुछ तेरे आसरे ही है। (जैसे तू शरीर की परवरिश के लिए रोजी देता है, वैसे ही जीवात्मा को भी भक्ति की खुराक देने वाला तू ही है)।2।

(हे प्रभू!) तू खुद ही मुझे गुरू की मति दे के, मेरे पर मेहर करके मुझे अपने चरणों में जोड़ के, मेरा स्वैभाव मार के, और जैसे तूझे ठीक लगता है मुझे अपना नाम जपा के मुझे आत्मिक जीवन देता है। तू मेरे दिल की जानता है, तू (मेरी हालत) देखता है, तू मेरे सिर पर (रक्षक) है। मैं सदा तेरे ही आसरे हूँ (मुझे अपने किसी कर्म का आसरा नहीं है)।3।

(हे प्रभू!) जिनका मन (तेरे प्यार में) रंगा हुआ है, उनके शरीर में विकारों की मैल नहीं। गुरू के बचनों पर चल के गुरू के शबद में जुड़ के उन्होंने तूझे सदा कायम रहने वाले को पहचान लिया है (तेरे साथ सांझ डाल ली है), (कर्मों का आसरा लेने की जगह) उन्हें तेरे नाम का ही आसरा है, वे सदा तेरे नाम की ही उपमा करते हैं।

हे नानक! (कह–) वे मनुष्य प्रभू की भक्ति में रते रहते हैं, वे प्रभू की शरण में रहते हैं।4।10।

गउड़ी महला १ ॥ जिनि अकथु कहाइआ अपिओ पीआइआ ॥ अन भै विसरे नामि समाइआ ॥१॥ किआ डरीऐ डरु डरहि समाना ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाना ॥१॥ रहाउ ॥ जिसु नर रामु रिदै हरि रासि ॥ सहजि सुभाइ मिले साबासि ॥२॥ जाहि सवारै साझ बिआल ॥ इत उत मनमुख बाधे काल ॥३॥ अहिनिसि रामु रिदै से पूरे ॥ नानक राम मिले भ्रम दूरे ॥४॥११॥ {पन्ना 154}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव) ने। अकथु = (वह प्रभू) जिसके सारे गुण बयान ना हो सकें। कहाइआ = कहा और कहाया, खुद सिमरा व औरों को सिमरने की प्रेरणा की। अपिओ = अमृत नाम। पाआइआ = पीया और पिलाया, खुद पीया व औरों को पिलाया। अन भै = (दुनिया वाले) और और डर।1।

किआ डरीअै = डरने की जरूरत नहीं रहती, नहीं डरता। डरु = (दुनिया वाला) डर। डरहि = डर में, परमात्मा के उर अदब में। पछाना = जिसने पहचान लिया, जिसने प्रभू के साथ जान-पहिचान डाल ली।1। रहाउ।

जिसु नर रिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। सहजि = सहज में (टिके रह के), अडोल अवस्था में (टिके रहने के कारण)। सुभाइ = प्रभू के प्रेम में (जुड़े रहने करके)।2।

जाहि = जिन लोगों को। सवारै = सुलाए, माया की नींद में सुलाए रखता है। साझ = सांझ, शाम। बिआल = सवेरे। साझ बिआल = सवेरे शाम, हर वक्त। इत = यहां, इस लोक में। उते = वहां, परलोक में। बाधे काले = मौत (के सहम) के बंधे हुए।3।

अहि = दिन। निसि = रात। रिदै = हृदय में। पूरे = पूर्ण। भ्रम = भटकना।4।

अर्थ: जिस मनुष्य ने पूरे गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली, वह (दुनिया के झमेलों में) सहमता नहीं। उसका (दुनिया वाला) सहम (परमात्मा वास्ते उसके हृदय में टिके हुए) डर अदब में समाप्त हो जाता है।1। रहाउ।

(गुरू के शबद में जुड़ के) जिस मनुष्य ने अकॅथ प्रभू को (खुद सिमरा है और) औरों को सिमरन के लिए प्रेरित किया है। उसने खुद नाम-अमृत पीया है तथा औरों को भी पिलाया है। उसे (दुनिया वाले) और सारे सहम भूल जाते हैं क्योंकि वह (सदैव प्रभू के) नाम में लीन रहता है।1।

जिस मनुष्य के हृदय में हरी परमात्मा की नाम-रस पूँजी है, वह (माया की खातिर नहीं डोलता, वह) अडोल अवस्था में टिका रहता है। वह प्रभू के प्यार में जुड़ा रहता है। उसे (प्रभू के दर से) आदर मिलता है।2।

(पर) जिन मनुष्यों को प्रभू हर वक्त (सवेरे शाम) माया की नींद में ही सुलाए रखता है, वे सदा अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य लोक परलोक में ही मौत के सहम के साथ बंधे रहते हैं (जितना समय वे यहां हैं मौत का सहम उनके सिर पे सवार रहता है। इसके बाद भी जनम मरण के चक्र में धक्के खाते हैं)।3।

हे नानक! जिनके हृदय में दिन रात (हर वक्त) परमात्मा बसता है, वह पूर्ण मनुष्य हैं (वे डावाँडोल नहीं होते)। जिन्हें परमात्मा मिल गया उनकी सब भटकनें खत्म हो जाती हैं।4।11।

गउड़ी महला १ ॥ जनमि मरै त्रै गुण हितकारु ॥ चारे बेद कथहि आकारु ॥ तीनि अवसथा कहहि वखिआनु ॥ तुरीआवसथा सतिगुर ते हरि जानु ॥१॥ राम भगति गुर सेवा तरणा ॥ बाहुड़ि जनमु न होइ है मरणा ॥१॥ रहाउ ॥ चारि पदारथ कहै सभु कोई ॥ सिम्रिति सासत पंडित मुखि सोई ॥ बिनु गुर अरथु बीचारु न पाइआ ॥ मुकति पदारथु भगति हरि पाइआ ॥२॥ जा कै हिरदै वसिआ हरि सोई ॥ गुरमुखि भगति परापति होई ॥ हरि की भगति मुकति आनंदु ॥ गुरमति पाए परमानंदु ॥३॥ जिनि पाइआ गुरि देखि दिखाइआ ॥ आसा माहि निरासु बुझाइआ ॥ दीना नाथु सरब सुखदाता ॥ नानक हरि चरणी मनु राता ॥४॥१२॥ {पन्ना 154}

पद्अर्थ: त्रै गुण हितकारु = त्रैगुणी संसार के साथ हित करने वाला। जनमि मरै = पैदा हो के मरता है, पैदा होता मरता रहता है। कथहि = जिक्र करते हैं। आकारु = त्रैगुणी दिखाई देता संसार। कहहि वखिआनु = व्याख्यान कहते हैं, जिक्र करते हैं। तीनि अवसथा = (मन के) तीन हालात। तुरीआवसथा = तुरीय अवस्था, वह हालत जब जीवात्मा और परमात्मा एक रूप हो जाते हैं, जब जीवात्मा प्रभू में लीन हो जाती है। ते = से। सतिगुरू ते = गुरू से, गुरू की शरण पड़ कर। जानु = पहचान, गहरी सांझ बना लो।1।

तरणा = तैर सकते हैं (जनम मरन के चक्र रूप समुंद्र में से)।1। रहाउ।

चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। सभ कोई = हरेक (विचारवान) मनुष्य। मुखि = मुंह में। अरथु बीचारु = अनुभवी ज्ञान, (मुक्ति पदार्थ का) अर्थ व विचार। मुकति = मुक्ति, खलासी, मन के तीनों ही हालातों से आजादी।2।

मुकति आनंदु = आत्मिक स्वतंत्र अवस्था का आनन्द।3।

जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरि दिखाइआ = जिसे गुरू ने दिखा दिया। निरासु = आशा से स्वतंत्र रहना।4।

अर्थ: (जनम मरन का चक्र, जैसे एक चक्रव्यूह है, इस में से) परमात्मा की भक्ति और गुरू की बताई हुई कार करके पार लांघ जाते हैं (जो पार लांघ जाता है उसे) फिर ना जनम होता है ना मौत। (उस अवस्था को तुरीया अवस्था कह लो)।1। रहाउ।

चारों वेद जिस त्रैगुणी संसार का जिक्र करते हैं (जो मनुष्य प्रभू भक्ति से वंचित है और) उसी त्रैगुणी संसार के साथ ही हित करता है वह पैदा होता मरता रहता है। (वह जनम मरण के चक्रव्यूह में पड़ा रहता है)। (ऐसे मनुष्य) जो भी व्याख्या करते हैं मन की तीन अवस्थाओं का ही जिक्र करते हैं (जिस अवस्था में जीवात्मा परमात्मा के साथ एक रूप हो जाती है वह बयान नहीं की जा सकती)। गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ गहरी जान पहिचान बना लो- यह है तुरीया अवस्था।1।

हरेक जीव धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष (मुक्ति) इन चार पदार्थों का जिक्र तो करता है, सिम्रितियों-शास्त्रों के पण्डितों के मुंह से भी यही सुनते हैं। पर, मुक्ति पदार्थ क्या है (वह अवस्था कैसी है जहाँ जीव तीन गुणों के प्रभाव से निर्लिप हो जाता है) गुरू की शरण पड़े बिना इसका अनुभव नहीं हो सकता। ये पदार्थ परमात्मा की भक्ति करने से मिलते हैं।2।

जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है उसे भक्ति की प्राप्ति हो गई। और ये भक्ति गुरू के द्वारा ही मिलती है। परमात्मा की भगती के द्वारा मुक्ति पदार्थ का आनंद लेते हैं। ये सर्वोच्च आनन्द गुरू की शिक्षा पर चलने से ही मिलता है।3।

जिस मनुष्य ने मुक्ति का आनंद हासिल कर लिया, गुरू ने सर्व सुखदाता दीनानाथ प्रभू खुद देख के जिस मनुष्य को दिखा दिया, उसे दुनिया की आशाओं के अंदर रहते हुए भी आसों उम्मीदों से उपराम रहने की जाच गुरू सिखा देता है। हे नानक! उस मनुष्य का मन प्रभू चरणों (के प्यार) में रंगा रहता है।3।

गउड़ी चेती महला १ ॥ अम्रित काइआ रहै सुखाली बाजी इहु संसारो ॥ लबु लोभु मुचु कूड़ु कमावहि बहुतु उठावहि भारो ॥ तूं काइआ मै रुलदी देखी जिउ धर उपरि छारो ॥१॥ सुणि सुणि सिख हमारी ॥ सुक्रितु कीता रहसी मेरे जीअड़े बहुड़ि न आवै वारी ॥१॥ रहाउ ॥ हउ तुधु आखा मेरी काइआ तूं सुणि सिख हमारी ॥ निंदा चिंदा करहि पराई झूठी लाइतबारी ॥ वेलि पराई जोहहि जीअड़े करहि चोरी बुरिआरी ॥ हंसु चलिआ तूं पिछै रहीएहि छुटड़ि होईअहि नारी ॥२॥ तूं काइआ रहीअहि सुपनंतरि तुधु किआ करम कमाइआ ॥ करि चोरी मै जा किछु लीआ ता मनि भला भाइआ ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई अहिला जनमु गवाइआ ॥३॥ हउ खरी दुहेली होई बाबा नानक मेरी बात न पुछै कोई ॥१॥ रहाउ ॥ ताजी तुरकी सुइना रुपा कपड़ केरे भारा ॥ किस ही नालि न चले नानक झड़ि झड़ि पए गवारा ॥ कूजा मेवा मै सभ किछु चाखिआ इकु अम्रितु नामु तुमारा ॥४॥ दे दे नीव दिवाल उसारी भसमंदर की ढेरी ॥ संचे संचि न देई किस ही अंधु जाणै सभ मेरी ॥ सोइन लंका सोइन माड़ी स्मपै किसै न केरी ॥५॥ सुणि मूरख मंन अजाणा ॥ होगु तिसै का भाणा ॥१॥ रहाउ ॥ साहु हमारा ठाकुरु भारा हम तिस के वणजारे ॥ जीउ पिंडु सभ रासि तिसै की मारि आपे जीवाले ॥६॥१॥१३॥ {पन्ना 154-155}

नोट: इस शबद के आखिरी अंक देखो! अंक 6 बताता है कि शबद के 6 बंद हैं। अंक 13 बताता है कि गउड़ी राग में गुरू नानक देव जी का ये 13वां शबद है। अंक 1 नया आया है। ये संकेत है कि कोई नई तब्दीली आई है। अब तक शबद ‘गउड़ी’ के थे। पर शबद नंबर 13 ‘गउड़ी चेती’ का है। ‘गउड़ी चेती’ का ये पहला ही शबद है। 12 शबद ‘गउड़ी’ के 1 शबद ‘गउड़ी चेती’ का, कुल 13 शबद। ‘गउड़ी चेती’ के कुल 5 शबद हैं। वहां आखिरी जोड़ है ।5।17। भाव, 12 शबद ‘गउड़ी’ के 5 शबद ‘गउड़ी चेती’ का, जोड़ 17।

इस शबद में कभी काया को संबोधन किया गया है तो कभी जीवात्मा को।

पद्अर्थ: अंम्रित = (अपने आप को) अमर समझने वाली। काइआ = काया, देह। सुखाली = सुख+आलय, सुख का घर, सुख भोगने वाली। बाजी = खेल। मुचु = बहुत। कमावहि = (हे काया!) तू कमाती है। तूं = तूझे। काइआ = हे काया! धर = धरती। छारो = छार, राख।1।

सिख = शिक्षा। सुक्रितु = सु+कृत, नेक कमाई। रहसी = साथ निभेगी। बहुड़ि = पुनः, मुड़ के।1। रहाउ।

हउ = मैं। निंदा चिंदा = निंदा का चिंतन। लाइतबारी = ऐतबार हटाने वाला कर्म, चुगली। वेलि = स्त्री। जोहहि = तू देखता है। बुरिआई = बुराई। हंसु = जीवात्मा।2।

सुपनंतरि = स्वप्न+अंतरि, सुपने में, नींद में, सोई हुई। मनि = मन में। भला भाइआ = अच्छा लगा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। अहिला = उक्तम।3।

खरी दुहेली = बहुत दुखी। बाबा = हे बाबा! बात = बातचीत।1। रहाउ।

तजी = घोड़े। केरे = के। गवारा = हे गवार! हे मूर्ख! कूजा = मिश्री।4।

नीव = नींव। दिवाल = दिवार। भस = राख। संचे = खजाने। माढ़ी = महल। संपै = धन। केरी = की।5।

हागु = होएगा। भाणा = रजा।1। रहाउ।

वणजारे = व्यापार करने वाले। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। मारि = मार के।6।

अर्थ: ये शरीर अपने आप को अमर जान के सुख भोगने में ही लगा रहता है (ये नहीं समझता कि) ये जगत (एक) खेल (ही) है। हे मेरे शरीर! तू लब-लोभ कर रहा है। तू बहुत झूठ कमा रहा है (व्यर्थ की दौड़-भाग ही कर रहा है), तू (अपने ऊपर लब-लोभ-झूठ आदि के असर में गलत कामों का) भार उठाता जा रहा है। हे मेरे शरीर! मैंने तेरे जैसे ऐसे भटकते देखें हैं जैसे धरती पर राख।1।

हे मेरी जीवात्मा! मेरी शिक्षा ध्यान से सुन। की हुई नेक कमाई ही तेरे साथ निभेगी। (अगर ये मानस जनम गवा लिया), तो दुबारा (जल्दी) वारी नहीं मिलेगी।1। रहाउ।

हे मेरे शरीर! मैं तुझे समझाता हूँ, मेरी नसीहत सुन। तु पराई निंदा का ध्यान रखता है, तू (औरों की) झूठी निंदा करता रहता है। हे जीव! तू पराई स्त्री को (बुरी निगाह से) देखता है, तू चोरियां करता है, और बुराईआं करता है।

हे मेरी काया! जब जीवात्मा चली जाएगी, तू यहां ही रह जाएगा, तू तब छुटॅड़ स्त्री की तरह हो जाएगा।

हे मेरे शरीर! तू (माया की) नींद में ही सोया रहा (तुझे समझ ही नहीं आई कि) तू क्या करतूतें करता रहा। चोरी आदि करके जो धन माल मैं लाता रहा, तुझे वह मन में पसंद आता रहा। (इस तरह) ना इस लोक में शोभा कमायी, ना परलोक में आसरा (मिलने का प्रबंध) मिला। कीमती मानस जनम व्यर्थ गवा डाला।3।

हे भाई! (जीवात्मा के चले जाने पर अब) मैं काया बहुत दुखी हुई हूँ। हे नानक! मेरी अब कोई बात नहीं पूछता।1। रहाउ।

हे नानक! (कह–) हे मूर्ख! बढ़िया घोड़े, सोने-चांदी, कपड़ों के ढेर- कोई भी चीज (मौत के समय) किसी के साथ नहीं जाती। सब यहीं ही रह जाता है। मिश्री, मेवे आदि भी मैंने सब कुछ चख के देख लिया है। (इनमें भी इतना स्वाद नहीं जितना हे प्रभू!) तेरा नाम मीठा है।4।

नींव रख-रख के मकानों की दीवारें खड़ी कीं, पर (मौत आने पर) ये राख की ढेरी की तरह हो गए। इकट्ठे किए हुए (माया के) खजाने किसी को हाथ से नहीं देता, मूर्ख समझता है कि ये सब कुछ मेरा है (पर ये नहीं जानता कि) सोने की लंका सोने का महल (रावण के भी ना रहे, तू क्या बेचारा है) ये धन किसी का नहीं बना रहता।5।

हे मूर्ख अन्जान मन! सुन। उस परमात्मा की रजा ही चलेगी (लब-लोभ आदि को त्याग के उसकी रजा में चलना सीख)।1। रहाउ।

हमारा मालिक प्रभू बड़ा शाहूकार है। हम सारे जीव उसके भेजे हुए वणजारे व्यापारी है (यहां नाम का व्यापार करने आए हुए हैं)। ये जीवात्मा ये शरीर उसी शाह की दी हुई राशि-पूँजी है। वह स्वयं ही मारता और स्वयं ही जीवन देता है।6।1।13।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh