श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 155 गउड़ी चेती महला १ ॥ अवरि पंच हम एक जना किउ राखउ घर बारु मना ॥ मारहि लूटहि नीत नीत किसु आगै करी पुकार जना ॥१॥ स्री राम नामा उचरु मना ॥ आगै जम दलु बिखमु घना ॥१॥ रहाउ ॥ उसारि मड़ोली राखै दुआरा भीतरि बैठी सा धना ॥ अम्रित केल करे नित कामणि अवरि लुटेनि सु पंच जना ॥२॥ ढाहि मड़ोली लूटिआ देहुरा सा धन पकड़ी एक जना ॥ जम डंडा गलि संगलु पड़िआ भागि गए से पंच जना ॥३॥ कामणि लोड़ै सुइना रुपा मित्र लुड़ेनि सु खाधाता ॥ नानक पाप करे तिन कारणि जासी जमपुरि बाधाता ॥४॥२॥१४॥ {पन्ना 155} पद्अर्थ: अवरि = (शब्द ‘अवर’ का बहुवचन) और, विरोधी, दुश्मन। पंच = पाँच। हम = मैं। ऐक जना = अकेला। किउ राखउ = मैं कैसे बचाऊँ? घर बारु = घर घाट, सारा घर। मना = हे मेरे मन! नीत नीत = सदा ही। करी = मैं करूँ। जना = हे भाई!।1। उचरु = उचार, बोल। आगै = सामने। जम दलु = यम का दल, यमराज की फौज। बिखमु = मुश्किल (करने वाला)। घना = बहुत।1। रहाउ। मड़ोली = शरीर-मठ। उसारि = सृजना करके। दुआरा = दरवाजे (कान नाक आदि)। भीतरि = में। सा धन = वह जीव स्त्री। अंम्रित = अपने आप को अमर जानने वाली। केल = चोज तमाशे, रंग रलियां। कामणि = जीव स्त्री। लुटेनि = लूटते रहते हैं। सु = वह। पंच जना = कामादिक पाँचों जन।2। देहुरा = मंदिर। ऐक जना = अकेली। जम डंडा = यम का डण्डा। गलि = गले में।3। कामणि = पत्नी। रुपा = चाँदी। लुड़ेनि = तलाशते हैं, मांगते हैं। खाधाता = खाने के पदार्थ। तिन कारणि = इन स्त्री मित्रों के खातिर। जासी = जाएगा। जमपुरि = यम की नगरी में। बाधाता = बंधा हुआ।4। नोट: अंक “4।2।14” में अंक 2 का भाव है कि ‘गउड़ी चेती’ का यह दूसरा शबद है। ‘गउड़ी’ के अब तक कुल 14 शबद हो गए हैं। अर्थ: हे मेरे मन! मेरे वैरी (कामादिक) पाँच हैं। मैं अकेला हूँ। मैं (इनसे) सारा घर कैसे बचाऊँ? हे भाई! ये पाँचों मुझे नित्य मारते लूटते रहते हैं, मैं किस के पास शिकायत करूँ?।1। हे मन! परमात्मा का नाम सिमर, सामने यमराज की तगड़ी फौज दिख रही है (भाव, मौत आने वाली है)।1। रहाउ। परमात्मा ने ये शरीर बना के (इसके नाक-कान आदि) दस दरवाजे बना दिए। (उसके हुकम अनुसार) इस शरीर में जीव स्त्री आ टिकी। पर ये जीव स्त्री अपने आप को अमर जान के सदा (दुनिया वाले) रंग तमाशे करती रहती है, और वह वैरी कामादिक पाँचो जने (अंदर से भले गुण) लुटते जा रहे हैं।2। (यम की फौज ने आखिर) शरीर मठ गिरा के मंदिर लूट लिया, जीव स्त्री अकेली ही पकड़ी गई। जम का डण्डा सिर पर बजा, जम का संगल गले में पड़ा, वह (लूटने वाले) पाँचों जने भाग लिए (साथ छोड़ गए)।3। (सारी उम्र जब तक जीव जीवित रहा) पत्नी सोना-चाँदी (के गहने) मांगती रहती है। संबंधी मित्र, खान-पीने के पदार्थ मांगते रहते हैं। हे नानक! इनकी ही खातिर जीव पाप करता रहता है, आखिर (पापों के कारण) बंधा हुआ यम की नगरी में धकेला जाता है।4।2।14। गउड़ी चेती महला १ ॥ मुंद्रा ते घट भीतरि मुंद्रा कांइआ कीजै खिंथाता ॥ पंच चेले वसि कीजहि रावल इहु मनु कीजै डंडाता ॥१॥ जोग जुगति इव पावसिता ॥ एकु सबदु दूजा होरु नासति कंद मूलि मनु लावसिता ॥१॥ रहाउ ॥ मूंडि मुंडाइऐ जे गुरु पाईऐ हम गुरु कीनी गंगाता ॥ त्रिभवण तारणहारु सुआमी एकु न चेतसि अंधाता ॥२॥ करि पट्मबु गली मनु लावसि संसा मूलि न जावसिता ॥ एकसु चरणी जे चितु लावहि लबि लोभि की धावसिता ॥३॥ जपसि निरंजनु रचसि मना ॥ काहे बोलहि जोगी कपटु घना ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ कमली हंसु इआणा मेरी मेरी करत बिहाणीता ॥ प्रणवति नानकु नागी दाझै फिरि पाछै पछुताणीता ॥४॥३॥१५॥ {पन्ना 155-156} पद्अर्थ: घट भीतरि = हृदय में। मुंद्रा = (बुरी वासनाओं को रोकें = ये) मुंद्रा। कांइआ = शरीर को (नाशवंत जानना)। खिंथाता = खिंथा, गठड़ी। ते = वही। पंच चेले = पाँच ज्ञानेंद्रिय रूप चेले। कीजहि = करने चाहिए। रावल = हे रावल! हे जोगी! जोग जुगति = योग साधना का जुगती। इव = इस तरह। पावसिता = पावसि, तू पा लेगा। नासति = नास्ति, नहीं है। लावसिता = लावसि, अगर तू लगा ले।1। रहाउ। मूंडि मुंडाइअै = सिर मुंडाने से। मूंडि = सिर।2। पटंबु = ठॅगी, दिखावा। गली = बातों से। मनु = लोगों का मन। लावसि = तू लगाता है। मूलि न = बिल्कुल नहीं। की धावसिता = क्यूँ दौड़ेगा? नहीं भटकेगा। रचसि मना = मन रचा के, मन जोड़ के। कपटु = ठॅगी, झूठ फरेब।1। रहाउ। कमली = पगली। हंसु = जीवात्मा। बिहाणीता = (उम्र) गुजर रही है। नागी = नंगी काया। दाझै = जलती है। पाछै = समय बीत जाने के बाद में।4। अर्थ: हे रावल!अपने शरीर के अंदर ही बुरी भावनाओं को रोक - ये है असल मुंद्रां। शरीर को नाशवंत समझ-इस यकीन को गुदड़ी बना। हे रावल! (तुम औरों को चेले बनाते फिरते हो) अपने पाँचों, ज्ञानेंद्रियों को वश में करो- चेले बनाओ। अपने मन को डण्डा बनाओ (और हाथ में पकड़ो। भाव, काबू करो)।1। (हे रावल!) तू गाजर मूली आदि खाने में मन जोड़ता फिरता है। पर, अगर तू उस गुरू शबद में मन जोड़े (जिस के बिना) कोई और (जीवन राह दिखाने में स्मर्थ) नहीं है। तो तू इस तरह जोग (प्रभू चरणों में जुड़ने) का तरीका ढूँढ लेगा।1। रहाउ। अगर (गंगा के किनारे) सिर मुण्डन से गुरू मिलता है (भाव, तुम तो गंगा के तट पर सिर मुंडवा के गुरू धारण करते हो) तो हमने तो गुरू को ही गंगा बना लिया है, (हमारे लिए गुरू ही महा पवित्र तीर्थ है)। अंधा (रावल) उस एक मालिक को नहीं सिमरता जो तीनों भवनों (के जीवों) को उबारने के स्मर्थ है।2। हे जोगी! तू (योग का) दिखावा करके निरी बातों से ही लोगों का मनोरंजन करता है, पर तेरी अपनी संशय रक्ती मात्र भी दूर नहीं होता। अगर तू एक परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े, तो लब और लोभ के कारण बनी हुई तेरी भटकना दूर हो जाए।3। हे जोगी! ज्यादा ठॅगी-फरेब के बोल क्यूँ बोलता है? अपना मन जोड़ के माया-रहित प्रभू का नाम सिमर।1। रहाउ। जिस मनुष्य का शरीर पागल हुआ हुआ हो (जिसकी ज्ञानेंद्रियां विकारों में पागल हुई पड़ी हों) जिसकी जीवात्मा अंजान हो (जिंदगी का सही रास्ता ना समझता हो) उसकी सारी उम्र माया की ममता में बीत जाती है। (तथा) नानक बिनती करता है कि जब (ममता के सारे पदार्थ जगत में ही छोड़ के) शरीर अकेला ही (शमशान में) जलता है। समय व्यर्थ में गवा के जीव पछताता है।4।3।15। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |