श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी चेती महला १ ॥ अउखध मंत्र मूलु मन एकै जे करि द्रिड़ु चितु कीजै रे ॥ जनम जनम के पाप करम के काटनहारा लीजै रे ॥१॥ मन एको साहिबु भाई रे ॥ तेरे तीनि गुणा संसारि समावहि अलखु न लखणा जाई रे ॥१॥ रहाउ ॥ सकर खंडु माइआ तनि मीठी हम तउ पंड उचाई रे ॥ राति अनेरी सूझसि नाही लजु टूकसि मूसा भाई रे ॥२॥ मनमुखि करहि तेता दुखु लागै गुरमुखि मिलै वडाई रे ॥ जो तिनि कीआ सोई होआ किरतु न मेटिआ जाई रे ॥३॥ सुभर भरे न होवहि ऊणे जो राते रंगु लाई रे ॥ तिन की पंक होवै जे नानकु तउ मूड़ा किछु पाई रे ॥४॥४॥१६॥ {पन्ना 156}

पद्अर्थ: अउखध = दवा। अउखध मूलु = दवाओं का मूल, सबसे बढ़िया दवाई। मंत्र मूलु = सबसे बढ़िया मंत्र। ऐकै = एक ही, परमात्मा का नाम ही। द्रिढ़ु = पक्का। हे = हे भाई! पाप करम = बुरे कर्म, विकार।1।

भाई रे = हे भाई! मन साहिबु = मन का मालिक, मन को विकारों से बचा के रखने वाला मालिक। तीनि गुणा = तीनों गुण, तीनों गुणों में प्रवृत शारीरिक इंद्रियां। संसारि समावहि = संसार में उलझे हुए हैं।1। रहाउ।

तनि = तन में। पंड = माया की गठड़ी। उचाई = उठाई हुई है। लजु = उम्र की लाज। मूसा = चूहा, यम, बीत रहा समय।2।

मनमुखि = जिन का मुख अपने मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलते हैं। तेता = उतना ही। तिनि = उस (परमात्मा) ने। किरतु = जनम जन्मांतरों के किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।3।

सुभर = नाकोनाक। पंक = चरण धूड़। मूढ़ा = मूर्ख।4।

अर्थ: हे भाई!अगर तू जनमों जन्मांतजरों के किये बुरे कर्मों के संस्कारों को काटने वाले परमात्मा का नाम लेता रहे, अगर तू (उसके नाम के सिमरन में) अपने चिक्त को पक्का कर ले, तो (तुझे यकीन आ जाएगा कि) मन के रोग दूर करने वाली सबसे बढ़िया दवा प्रभू का नाम ही है। मन को वश में करने वाला सबसे बढ़िया मंत्र परमात्मा का नाम ही है।1।

हे भाई! (विकारों से बचा सकने वाला) मन का रक्षक एक प्रभू का नाम ही है (उसके गुण पहिचान), पर जितने समय तक तेरी त्रिगुणी इंद्रियां संसार (के मोह) में खचित हैं, उस अलॅख परमात्मा को समझा नहीं जा सकता।1। रहाउ।

हे भाई! हम जीवों ने ता माया की गठड़ी (हर वक्त सिर पर) उठाई हुई है। हमें तो माया, अपने अंदर शक्कर जैसी मीठी लग रही है, (हमारे लिए तो माया के मोह की) अंधेरी रात पड़ी हुई है (जिसमें हमें कुछ दिखता ही नहीं) और (उधर से) यम रूपी चूहा हमारी उम्र की लाज कतरता जा रहा है (उम्र घटती जा रही है)।2।

हे भाई! अपने मन के पीछे चल के मनुष्य जितने भी उद्यम करते हैं, उतने ही दुख घटित होते हैं। (लोक परलोक में) शोभा उन्हीं को मिलती है जो गुरू के सन्मुख रहते हैं। जो (नियम) उस परमात्मा ने बना दिया है वही घटित होता है। (उस नियम के अनुसार) जनमों जन्मांतरों के किए कर्मों के संस्कारों के समूह को (जो हमारे मन में टिका हुआ है, अपने मन के पीछे चल के) मिटाया नहीं जा सकता।3।

नानक (कहता है) जो मनुष्य प्रभू के चरणों में प्रीत जोड़ के उसके प्रेम में रंगे रहते हैं, उनके मन प्रेम रस के साथ लबा-लब भरे रहते हैं। वह (प्रेम से) खाली नहीं होते। अगर (हमारा) मूर्ख (मन) उनके चरणों की धूड़ बने, तो इसे भी कुछ प्राप्ति हो जाए।4।4।16।

गउड़ी चेती महला १ ॥ कत की माई बापु कत केरा किदू थावहु हम आए ॥ अगनि बि्मब जल भीतरि निपजे काहे कमि उपाए ॥१॥ मेरे साहिबा कउणु जाणै गुण तेरे ॥ कहे न जानी अउगण मेरे ॥१॥ रहाउ ॥ केते रुख बिरख हम चीने केते पसू उपाए ॥ केते नाग कुली महि आए केते पंख उडाए ॥२॥ हट पटण बिज मंदर भंनै करि चोरी घरि आवै ॥ अगहु देखै पिछहु देखै तुझ ते कहा छपावै ॥३॥ तट तीरथ हम नव खंड देखे हट पटण बाजारा ॥ लै कै तकड़ी तोलणि लागा घट ही महि वणजारा ॥४॥ जेता समुंदु सागरु नीरि भरिआ तेते अउगण हमारे ॥ दइआ करहु किछु मिहर उपावहु डुबदे पथर तारे ॥५॥ जीअड़ा अगनि बराबरि तपै भीतरि वगै काती ॥ प्रणवति नानकु हुकमु पछाणै सुखु होवै दिनु राती ॥६॥५॥१७॥ {पन्ना 156}

पद्अर्थ: कत की = कब की? केरा = का। कत केरा = कब का? किदू = किससे? किदू थावहु = किस जगह से? बिंब = मण्डल (बिम्ब = a jar) अगनि बिंब = माँ के पेट की आग, जठराग्नि। जल = पिता का वीर्य। निपजे = माँ के पेट में टिकाए गए। काहे कंमि = किस वास्ते?1।

जाणै = गहरी सांझ डाल सकता है। कहे न जानी = गिने नहीं जाते।1। रहाउ।

चीने = देखे। नाग = सांप। पंख = पक्षी।2।

पटण = शहर। बिज = पक्के। मंदर = घर।3।

नवखंड = नौ खण्डों वाली सारी धरती। घट ही महि‘अपने अंदर ही।4।

सागरु = समुंद्र। नीरि = नीर से, पानी से। तेते = उतने, बेअंत।5।

वगै = चल रही है। काती = छुरी, तृष्णा की छुरी।6।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभू! मेरे अंदर इतने अवगुण है कि वे गिने नहीं जा सकते। (और, जिस जीव के अंदर अनगिनत अवगुण हों, वह ऐसा) कोई भी नहीं होता जो तेरे गुणों के साथ गहरी सांझ डाल सके (जो तेरी सिफत सालाह में जुड़ सके)।1। रहाउ।

(हे मेरे साहिब! अनगिनत अवगुणों के कारण ही हमें अनेको योनियों में भटकना पड़ता है, हम क्या बताएं कि) कब की हमारी (कोई) माँ है। कब का (भाव, किस जून का) हमारा कोई बाप है किस किस जगह से (जूनियों में से हो के) हम (अब इस मनुष्य जनम में) आए हैं? (इन अवगुणों के कारण ही हमें ये भी नहीं सूझता कि) हम किस मनोरथ उद्देश्य के लिए पिता के वीर्य से माँ के पेट की आग में तपे, और किस वास्ते पैदा हुए।1।

(अनगिनत अवगुणों के कारण) हमने अनेकों रुखों, वृक्षों की जूनियां देखीं। अनेकों बार पशू जून में हम जन्मे। अनेकों बार साँपों की कुलों में पैदा हुए, और अनेकों बार पंछी बन बन के उड़ते रहे।2।

(जनमों जन्मांतरों में किये कुकर्मों के असर में ही) मनुष्य शहरों की दुकानें तोड़ता है, पक्के घर तोड़ता है (सेंध लगाता है), चोरी करके (माल ले के) अपने घर आता है, (चोरी का माल लाता) आगे पीछे ताकता है (कि कोई देख ना ले, पर मूर्ख ये नहीं समझता कि हे प्रभू!) तेरे से कहीं छुपा नहीं रह सकता।3।

(इन किए कुकर्मों को धोने के लिए हम जीव) सारी धरती के सारे तीर्थों के दर्शन करते फिरते हैं। सारे शहरों, बाजारों की दुकान-दुकान देखते हैं (भाव, भीख मांगते फिरते हैं, पर ये कुकर्म फिर भी नहीं मिटते)। (जब कोई भाग्यशाली जीव-) वणजारा (तेरी मेहर के सदका) अच्छी तरह परख विचार करता है (तो उसे समझ आती है कि तू तो) हमारे हृदय में ही बसता है।4।

(हे मेरे साहिब!) जैसे (अनमापे, अथाह) पानी के साथ समुंद्र भरा हुआ है, वैसे ही हम जीवों के अनगिनत ही अवगुण हैं। (हम इन्हें धो सकने में अस्मर्थ हैं), तू खुद ही दया करके मेहर कर। तू तो डूबते पत्थरों को भी उबार सकता है।5।

(हे मेरे साहिब!) मेरी जीवात्मा आग की तरह तप रही है। मेरे अंदर तृष्णा की छुरी चल रही है। नानक विनती करता है– जो मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है, उसके अंदर दिन रात (हर वक्त ही) आत्मिक आनंद बना रहता है।6।5।17।

गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥ हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥१॥ नामु न जानिआ राम का ॥ मूड़े फिरि पाछै पछुताहि रे ॥१॥ रहाउ ॥ अनता धनु धरणी धरे अनत न चाहिआ जाइ ॥ अनत कउ चाहन जो गए से आए अनत गवाइ ॥२॥ आपण लीआ जे मिलै ता सभु को भागठु होइ ॥ करमा उपरि निबड़ै जे लोचै सभु कोइ ॥३॥ नानक करणा जिनि कीआ सोई सार करेइ ॥ हुकमु न जापी खसम का किसै वडाई देइ ॥४॥१॥१८॥ {पन्ना 156}

नोट: इस शबद के आखिरी अंकों को देखिए। अंक 4 बताता है कि शबद के 4 बंद हैं। अंक18 बताता है कि राग गउड़ी में श्री गुरू नानक देव जी का यह 18वां शबद है। इससे पहले ‘गउड़ी चेती’ में 5 शबद आ चुके हैं। अब ये “गउड़ी बैरागणि” का पहला शबद है, जिसके लिए अंक 1 लिखा गया है।

पद्अर्थ: रैणि = रात। दिवसु = दिन। खाइ = खा के। बदले = बदले में, एव्ज में।1।

नामु न जानिआ = नाम की कद्र ना पाई, नाम के साथ गहरी सांझ नही डाली। रे मूढ़े = हे मूर्ख!।1। रहाउ।

अनता धनु = अनंत धन। धरणी धरे = धरती में रखता है, एकत्र करता है। अनत = अनंत प्रभू। अनत न चाहिआ जाइ = अनंत प्रभू के सिमरन की तांघ नहीं उपजती। अनत कउ = बेअंत धन को। अनत गवाइ = परमात्मा की याद गवा के।2।

आपण लीआ = निरी लोचना से, सिर्फ इच्छा करने से। जे मिलै = अगर (नाम धन) मिल सके। सभु को = हरेक जीव। भागठु = धनाढ, नाम खजाने का मालिक। करम = अमल, आचरण। निबड़ै = फैसला होता है। जे = चाहे जैसे भी। लोचे = चाह करे।3।

करणा = जगत। जिनि = जिस (परमातमा) ने। सार = संभाल। करेइ = करता है। न जापी = समझ में नहीं आ सकता। देइ = देता है।4।

अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ नहीं डाली। (ये मानस जीवन ही सिमरन के लिए समय है, जब ये उम्र सिमरन के बगैर गुजर गई तो) फिर समय बीत जाने पे अफसोस करेगा।1। रहाउ।

(हे मूर्ख!) तू रात सो के गुजारता जा रहा है और दिन खा खा के व्यर्थ बिताता जाता है। तेरा ये मानस जन्म हीरे जैसा कीमती है, पर (सिमरन हीन होने के कारण) कउड़ी के मोल जा रहा है।1।

जो मनुष्य (सिर्फ) बेअंत धन ही इकट्ठा करता रहता है, उसके अंदर बेअंत प्रभू को सिमरने की तमन्ना पैदा नहीं हो सकती। जो जो भी बेअंत दौलत की लालच में दौड़े फिरते हैं, वे बेअंत प्रभू के नाम धन को गवा लेते हैं।2।

(पर) अगर सिर्फ इच्छा करने से ही नाम धन मिल सकता हो, तो हरेक जीव नाम-धन खजानों का मालिक बन जाए। हलांकि, यद्यपि हरेक मनुष्य (सिर्फ जबानी जबानी) नाम धन की लालसा करे, पर ये हरेक जीव के अमलों पर फैसला होता है (कि किस को प्राप्ति होगी। सो, निरा दुनिया की खातर ना भटको)।3।

हे नानक! (उद्यम करते हुए भी हक नहीं जतलाया जा सकता। ये नहीं कहा जा सकता कि किस को मिलेगा। उद्यम का गर्व ही सारे उद्यम को व्यर्थ कर देता है)। जिस परमातमा ने ये जगत रचा है, वह हरेक जीव की संभाल करता है। (उद्यम के फल के बारे में) उस प्रभू पति का हुकम समझा नहीं जा सकता। (ये पता नही लग सकता कि) किस मनुष्य को वह (नाम जपने की) वडिआई देता है (हम जीव किसी मनुष्य के दिखाई देते कर्मों पर गलती खा सकते हैं। इसलिए उद्यम करते हुए भी प्रभू से मेहर की दाति मांगते रहें)।4।1।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh