श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 157 गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ हरणी होवा बनि बसा कंद मूल चुणि खाउ ॥ गुर परसादी मेरा सहु मिलै वारि वारि हउ जाउ जीउ ॥१॥ मै बनजारनि राम की ॥ तेरा नामु वखरु वापारु जी ॥१॥ रहाउ ॥ कोकिल होवा अ्मबि बसा सहजि सबद बीचारु ॥ सहजि सुभाइ मेरा सहु मिलै दरसनि रूपि अपारु ॥२॥ मछुली होवा जलि बसा जीअ जंत सभि सारि ॥ उरवारि पारि मेरा सहु वसै हउ मिलउगी बाह पसारि ॥३॥ नागनि होवा धर वसा सबदु वसै भउ जाइ ॥ नानक सदा सोहागणी जिन जोती जोति समाइ ॥४॥२॥१९॥ {पन्ना 157} पद्अर्थ: बनि = वन में, जंगल में। बसा = मैं बसूँ। कंद मूल = घास बूटे (फल फूल)। चुणि = चुन के। खाउ = मैं खाऊँ। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। वारि वारि = सदके सदके। हउ = मैं। जाउ = जाऊँ।1। बनजारनि = वणज करने वाली। वखरु = सौदा।1। रहाउ। अंबि = आम (के पौधे) पर। सहजि = अडोल अवस्था में (टिक के), मस्त हो के। सबद बीचारु = शबद का विचार। दरसनि = दर्शनीय, सोहना, सुंदर। रूपि = रूप वाला। अपारु = बेअंत प्रभू।2। जलि = जल में। सभि = सारे। सारि = सार लेता है, संभालता है। उरवारि = इस पार। पारि = उस पार। पसारि = पसार के, बिखेर के।3। नागनि = नागिन। धर = धरती में। जिन = जिन की। जोती = ज्योति स्वरूप प्रभू में।4। अर्थ: (हे प्रभू! अगर तेरी मेहर हो तो) मैं तेरे नाम की वंजारन बन जाऊूं। तेरा नाम मेरा सौदा बने, तेरे नाम को ही फैलाऊँ।1। रहाउ। (हिरनी जंगल में घास-तृण खाती है और मौज में फुदकती फिरती है) हे प्रभू! तेरा नाम मेरी जीवात्मा के लिए खुराक बने, जैसे हिरनी के लिए कंद-मूल है। मैं तेरे नाम रस को प्रीति से खाऊँ। मैं संसार-वन में बेफिक्र हो के विचरूँ, जैसे जंगल में हिरनी। अगर गुरू की कृपा से मेरा पति प्रभू मुझे मिल जाए, तो मैं बारंबार उससे सदके जाऊँ।1। (कोयल की आम से प्रीति प्रसिद्ध है। आम के वृक्ष पर बैठ के कोयल मीठी मस्त सुर में कू-कूह करती है। अगर मेरी प्रीति प्रभू से वैसी हो जाए जैसी कोयल की आम के साथ है तो) मैं कोयल बनूँ, आम पे बैठूँ (भाव, प्रभू नाम को अपनी जिंदगी का सहारा बना लूँ) और मस्त अडोल हालत में टिक के प्रभू की सिफत सालाह के शबद की विचार करूँ (शबद में चित्त जोड़ दूँ)। मस्त अडोल अवस्था में टिकने से, प्रेम में जुड़ने से ही प्यारा दर्शनीय, सोहना बेअंत प्रभू पति मिलता है।2। (मछली पानी के बिना नहीं जी सकती। प्रभू के साथ अगर मेरी प्रीति भी ऐसी ही बन जाए तो) मैं मछली बन जाऊँ। सदैव उस जल-प्रभू में टिकी रहूँ जो सारे जीव-जंतुओं की संभाल करता है। प्यारा प्रभू पति (इस संसार समुंद्र के अथाह जल के) इस पार और उस पार (हर जगह) बसता है (जैसे मछली अपने बाजू पसार के पानी में तैरती है) मैं भी अपनी बाँहें पसार के (भाव निसंग हो के) उसे मिलूँगी।3। (नागिन बीन पर मस्त होती है। प्रभू से अगर मेरी प्रीति भी ऐसी ही बन जाए, तो) मैं नागिन बनूँ। धरती पे बसूँ (भाव, सबकी चरणधूड़ बनूँ, मेरे अंदर प्रभू की सिफत सालाह वाला) गुरू शबद बसे (जैसे बीन में मस्त हो के सपनी को वैरी की सुध-बुधि भूल जाती है) मेरा भी (दुनिया वाला सारा) डर-भय दूर हो जाए। हे नानक! जिन जीव-सि्त्रयों की ज्योति (सुरति) सदा ज्योति रूप प्रभू में टिकी रहती है, वह बड़ी भाग्यशाली हैं।4।2।19। गउड़ी पूरबी दीपकी महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरहु सिरजणहारो ॥१॥ तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जाउ जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥ स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण आसीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥ घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥२०॥ {पन्ना 157} नोट: इस शबद के आखिरी अंक पढ़ें– अंक 4 शबद के बंदों की गिनती है। अंक 20बताता है कि ‘गउड़ी’ में गुरू नानक देव जी का 20वां शबद है। पिछले शबद के आखिरी अंक।4।2।19 बताता है कि ‘गउड़ी बैरागणि’ में गुरू नानक देव जी के 2 शबद हैं। अब रागिनी फिर बदल गई है, और इस रागिनी गउड़ी पूरबी दीपकी’ में गुरू नानक देव जी का1 (एक) शबद है। इस शबद के शुरू में लिखा मूल मंत्र भी यही संकेत करता है कि रागिनी बदल गई है। नोट: इस शबद और सोहिले में आए इस शबद में थोड़ा सा फर्क है। पाठक ध्यान से देख लें। पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर में, जिस सत्संग घर में। कीरति = कीर्ति, शोभा, सिफत सालाह। तितु घरि = उस सत्संग घर में। सोहिला = सुहाग का गीत, यश, सिफत सालाह, प्रभु पति से मिलने की तांघ के शबद।1। (नोट: लड़की के विवाह पे जो गीत रात को औरतें मिल के गाती हैं, उन्हें सोहिला या सुहाग कहते हैं। इन गीतों में कुछ तो विछोड़े का जज्बा होता है जो लड़की के बिहाए जाने पे माता-पिता व सहेलियों से पड़ना होता है और कुछ आसीसें आदि होती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे)। हउ = मैं। वारी = कुर्बान। जितु सोहिले = जिस सोहिले से।1। रहाउ। समालीअनि = संभालते हैं। देखैगा = संभाल करेगा। तेरे = तेरी ओर से (हे जीवात्मा!)। दानै कीमति = दान का मूल्य। सुमारु = अंदाजा, अंत।2। संबति = साल। साहा = ब्याहे जाने वाला दिन। लिखिया = निश्चित हुआ। मिलि करि = मिल के। पावहु तेल = तेल डालो ।3। (नोट: शादी के कुछ दिन पहले शादी वाली कन्या को माईएं डालते हैं। जिसमें चाचियां, ताईयां, भाभियां, सहेलियां मिलके उसके सिर पर तेल डालती हैं और आर्शीवाद भरे गीत गाती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे)। घरि घरि = हरेक घर में। पाहुचा = आमंत्रण । पवंनि = पड़ते हैं। दिह = दिन। आवंनि = आते हैं।4। (नोट: विवाह का साहा और लगन मुकरॅर होने पे लड़के वालों का नाई बारात की गिनती तथा और जरूरी संदेश लेकर लड़की वालों के घर जाता है। उसे पहोचे वाला नाई कहते हैं)। नोट: विवाह के समय माईएं की रस्म की जाती है। चाचियां, ताईयां, भाभियां, सहेलियां मिल के विवाह वाली लड़की के सिर पर तेल डालती हैं, उसे स्नान कराती हैं, और साथ–साथ सुहाग के गीत गाती हैं। पति के घर जा के सुखी बसने की आसीसें देती हैं। उन्हीं दिनों में रात को गाने बैठी औरतें भी सोहिलड़े व सुहाग के गीत गाती हैं। इनमें आर्शीवाद के गीत भी होते हैं और वैराग के भी। क्योंकि, एक तरफ लड़की ने ब्याह के बाद अपने पति के घर जाना है। दूसरी तरफ, उस लड़की का माँ बाप, बहिन भाईयों, सहेलियों, चाचियों ताईयों, भाभियों आदि से विछोड़ा भी होना होता है। इन गीतों में ये दोनों मिलवें भाव होते हैं। जैसे विवाह के लिए समय महूरत निश्चित किया जाता है और उस निहित समय में ही विवाह परिणय आदि को सम्पन्न करने की पूरी कोशिश की जाती है। इस तरह हरेक जीव कन्या का वह समय भी पहले ही निश्चित किया जा चुका है जब मौत पहोचा आता है, और इसने साक–संबंधियों से विछुड़ के इस जगत–पिता के घर को छोड़ के परलोक में जाना है। इस शबद में जीवात्मा लड़की को समझाया है कि सत्संग में सुहाग के गीत गा और सुन। सत्संग, जैसे, माईएं पड़ने का स्थान है। सत्संगी सहेलियां यहां एक दूसरी सहेली को आशीशें देती हैं। प्रार्थना करती हैंकि परलोक जाने वाली सहेली को पति प्रभू का मेल हो। अर्थ: जिस (साध-संगति) घर में (परमात्मा की) सिफत सालाह होती है और करतार के गुणों की विचार होती है (हे जीवात्मा कन्या!) उस सत्संग घर में (जा के तू भी) परमातमा के सिफत सालाह के गीत (सुहाग मिलाप की तांघ के शबद) गा। और अपने पैदा करने वाले प्रभू को याद कर।1। (हे जीवात्मा!) तू (सतसंगियों के साथ मिल के) प्यारे निरभउ (पति) की सिफत के गीत गा। (और कह–) मैं सदके हूँ उस सिफत के गीत से जिसकी बरकति से सदा का सुख मिलता है।1। रहाउ। (हे जीवात्मा! जिस पति की हजूरी में) सदा ही जीव की संभाल हो रही है। जो दातें देने वाला मालिक (हरेक जीव की) संभाल करता है। (जिस दातार की) दातों का मूल्य (हे जीवात्मा!) तेरे पास नहीं पड़ सकता, उस दातार का क्या अंदाजा (तू लगा सकती है) ? (भाव, वह दातार प्रभू बहुत बेअंत है)।2। (सत्संग में जा के हे जीवात्मा! अरजोई किया कर) वह साल, वह दिन (जो पहले ही) निश्चित है (जब पति के देश जाने के लिए मेरे वास्ते मौत पाहोचा आना है। हे सत्संगी सहेलियो!) मिल के मुझे माईएं डालो! और हे सज्जन (सहेलियो!) मुझे शुभाशीशें भी दो (भाव, मेरे लिए प्रार्थना भी करो) जिससे पति प्रभू से मेरा मेल हो जाए।3। (परलोक में जाने के लिए मौत रूप) ये पहोचा हरेक घर में आ रहा है। ये आमंत्रण नित्य आ रहे हैं। (हे सत्संगियो!) उस निमंत्रण भेजने वाले पति प्रभू को याद करना चाहिए। (क्योंकि) हे नानक! (हमारे भी) वह दिन (नजदीक) आ रहे हैं।4।1।20। रागु गउड़ी गुआरेरी ॥ गुरि मिलिऐ हरि मेला होई ॥ आपे मेलि मिलावै सोई ॥ मेरा प्रभु सभ बिधि आपे जाणै ॥ हुकमे मेले सबदि पछाणै ॥१॥ सतिगुर कै भइ भ्रमु भउ जाइ ॥ भै राचै सच रंगि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरि मिलिऐ हरि मनि वसै सुभाइ ॥ मेरा प्रभु भारा कीमति नही पाइ ॥ सबदि सालाहै अंतु न पारावारु ॥ मेरा प्रभु बखसे बखसणहारु ॥२॥ गुरि मिलिऐ सभ मति बुधि होइ ॥ मनि निरमलि वसै सचु सोइ ॥ साचि वसिऐ साची सभ कार ॥ ऊतम करणी सबद बीचार ॥३॥ गुर ते साची सेवा होइ ॥ गुरमुखि नामु पछाणै कोइ ॥ जीवै दाता देवणहारु ॥ नानक हरि नामे लगै पिआरु ॥४॥१॥२१॥ {पन्ना 157-158} पद्अर्थ: चउपदे = चउ+पदे, चार बंदों वाले शबद। गुरि मिलिअै = यदि गुरू मिल जाए। मेला = मिलाप। आपे = (प्रभू) खुद ही। बिधि = (मिलने का) ढंग। सबदि = शबद के द्वारा।1। भइ = भय में, डर अदब में। भ्रम = भटकना। जाइ = दूर हो जाता है।1। रहाउ। सुभाइ = (स्वभावेन) अपनी प्यार-रुची के कारण। भारा = बहुत गुणों का मालिक।1। रहाउ। मनि = मन में। निरमलि = निर्मल में। मनि निरमलि = निर्मल मन में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। साचि वसिअै = (‘गुरू मिलिअै’ की तरह) अगर सदा स्थिर प्रभू हृदय में बस जाए। साची कार = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की कार में। करणी = आचरण।3। ते = से। साची सेवा = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की सेवा = भक्ति। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।4। अर्थ: गुरू के डर अदब में रहने से (दुनियावी) भटकना दूर हो जाती है। जो मनुष्य (गुरू के) डर अदब में मगन रहता है वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के (प्रेम) रंग में समाया रहता है।1। रहाउ। अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा से मिलाप हो जाता है। वह परमात्मा स्वयं ही (जीव को गुरू से) मिला के (अपने चरणों में) मिला लेता है। प्यारा प्रभू स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में मिलाने के) सारे तरीके जानता है। (जिस मनुष्य को परमात्मा अपने) हुकम अनुसार (गुरू के साथ) मिलाता है, वह मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा से सांझ पा लेता है।1। अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा (भी अपनी) प्यार रुची के कारण (मनुष्य के) मन में आ बसता है। प्यारा प्रभू बेअंत गुणों का मालिक है। कोई जीव उसका मूल्य नहीं पा सकता (अर्थात, ये नहीं बता सकता कि दुनिया के किसी पदार्थ के बदले परमात्मा मिल सकता है)। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के उस परमात्मा की सिफत सालाह करता है जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता जिसकी हस्ती का इस पार व उस पार का छोर नहीं ढूँढा जा सकता। बख्शनहार प्रभू (उसके सारे गुनाह) बख्श लेता है।2। अगर गुरू मिल जाए (तो मनुष्य के अंदर) ऊँची बुद्धि पैदा हो जाती है। (मनुष्य के) पवित्र (हुए) मन में वह सदा स्थिर प्रभू प्रगट हो जाता है। अगर सदा स्थिर प्रभू (जीव के मन में) आ बसे, तो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह उसकी नित्य की कृत हो जाती है। उसकी करणी श्रेष्ठ हो जाती है। गुरू के शबद की विचार उसके मन में टिकी रहती है।3। सदा स्थिर प्रभू की सेवा-भक्ति गुरू से ही मिलती है। गुरू के सन्मुख रहके ही कोई मनुष्य प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल सकता है। हे नानक! जिस मनुष्य का प्यार हरी के नाम में बन जाता है (उसे निश्चय हो जाता है कि सब दातें) देने के समर्थ दातार प्रभू (सदा उसके सिर पर) जीता जागता कायम है।4।1।21। नोट: |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |